कहानी
‘‘यार,मेरा हाथ नहीं पहुंच पा रहा है’’ खिड़की के बीच में इधर और उधर दो टांगो से फंसे हुए मर्द ने कुछ परेशान सी हंसी के साथ अपनी औरत से गुहार की।
‘‘कानून के हाथ बहुत लम्बे होते हैं’’ कहते हुए उस आजानबाहु औरत ने खिड़की के पास झुकते हुए अपना बायां हाथ इस तरह से नीचे डाला जैसे कुंए में कांटा डाल रही हो। एक क्षण में ग्रिल में फंसे कपडे़ उसके हाथ में थे।
‘‘शर्मा, तेरे हाथों में मैंने यह हाथ दिया कैसे?’’ पत्नी ने पति से पूछा।
शर्मा फिर हंसा, इसबार थोड़ा लजा कर। उसके दोनों गालों पर एक एक तिर्यक रेखा थी। हंसते समय वह रेखाएं गोरी से गेहुअन हो जाती थीं जैसे कि वह गोरा था और बीबी गेहुअन। उसका कद बीबी के कद से छपाक भर ऊपर ही था लेकिन बीबी ही लम्बी नज़र आती थी। इसका नतीजा यह था कि जहां भी लम्बाई की जरूरत होती वह बुलाई जाती, ऊपर से कोई चीज उतारनी हो या नीचे से कोई चीज उठानी हो। शर्मा को लगता था कि उसकी बीबी के हाथ किसी जादूगरनी के हाथ जैसे हैं, जितना चाहती है उतने ही लम्बे और कारआमद हो जाते हैं।
शर्मा कुर्सी पर पैर ऊपर कर किसी गुड्डे की तरह बैठा हुआ था। उसे देख कर कोई छठी इंद्रियशाली ही अनुमान लगा सकता था कि इस आदमी की नीयत खराब हो रही है। फर्श से आंख लगाए पोंछा लगाती रजिया की नुकीली छरहरी छातियां हिल रही थीं कि अचानक उसकी अतीयन्द्रियता भड़क कर बोली- ‘‘शर्मा, मैं तेरी आंखे फोड़ दूंगी’’। शर्मा की आंखे इस समय गोल गोल हो रही थीं। उसकी बाकी देह-दशा भी कुछ गोलू-मोलू जैसी थी गोकि वह थुलथुली काठी का नहीं था, सालिड चर्बी का मर्द था। बस बात इतनी थी कि वह अपनी बांकी-तिरछी, क्षीणकटि पत्नी का शारिरिक प्रतिकार सा दिखता था। रजिया को वह पसन्द था, उसकी आंख और मन में बसा हुआ रसिया-मनबसिया था।
‘‘देखो, वह टावेल बच गई है, उसे भी ग्रिल में टांग दो’’ पत्नी ने पति को किसी और काम में लगाना चाहा। शर्मा उठा और तौलिया टांगने के लिए उसे खोला तो उसमें से भरभरा कर एक जोड़ा अंगिया और जंघिया गिरे।
‘‘अल्लाह रे! यह डाइट मैडम भी’’ वह एक बार चीखी और दुबारा ‘‘खबरदार, जो हाथ लगाया, मैं आती हूं।’’ देस आया हुआ परदेसी पति हर जगह साथ-साथ लगा रहता था।
हाथ का काम रोक कर उसने कपड़े टांगे। इस फ्लैट में उसके पास झाड़ू पोछा और उपरोक्त को छोड़ते हुए शेष वस्त्रों को धोने-सुखाने का काम था। अब तक शर्मा छीना झपटी पर उतर आया था।
‘‘अरे! दिन दहाड़े दोजखी’’
शर्मा ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसकी देह से भाप निकल रही थी। औरत की पतली आंखों की दोनों कोर फैल रही थी। उन्हीं कोरों को समेटते हुए उसने कहा ‘‘इतना न मचमचा मेरे यार, औरत को गाय बकरी क्या समझना, थोड़ा रूक न, हाथ का काम खत्म कर लूं।’’
रजिया ने हाथ मुंह धोया अैर ड्रेसिंग टेबिल के सामने बैठकर कुछ यूं लिपिस्टिक और क्रीम लगाने लगी जैसे इन्हें अभी खल्तमल्त ही नहीं होना है। तब तक अधीर हुआ शर्मा कमरे के अन्दर आ गया। ‘‘नहीं, किसी भरोसे पर मैडम लोग कुंजी देकर जाती हैं, उनका बेडरूम नहीं खराब करना है। चल लाबी में चल’’
‘‘अरे कोई चटाई नहीं है क्या’ उन्माद की धुन्ध में से हिलती हुई शर्मा की आवाज बाहर आई।
‘‘है न, क्यों मरा जा रहा है’’
माउथ फ्रेशनर की फुहार दाएं हाथ से मुंह मे मारती हुई रजिया सुल्ताना ने बाएं हाथ से कोने में खड़ी चटाई गोकुल शर्मा की ओर फेंकी।
बीच में मोबाइल भी टनटनाया। शर्मा अप्रतिभ हुआ तो एक हाथ से मोबाइल में यह कहते हुए ‘‘मैं अभी ट्रेन में हूं’’ दूसरे हाथ से शर्मा के घने बालों को दबोचते हुए रजिया उसे वापस मंझधार में ले आई।
फोन जरीना का था जो रूपहली दुनिया में रह रही है। जरीना उसकी मौसेरी बहन है। पिछली बार जब शर्मा छुट्टियों में घर आया था तब कुछ दिनों के लिए रजिया ने अपनी एवजी में उसे इसी फ्लैट में लगा दिया था। रजिया पति की छुट्टियों के आखिरी दस-पन्द्रह दिन खुद भी छुट्टी लेती थी। मैडम ने तनख्वाह काटने की बात की तो उसने दो टूक जवाब दिया ‘‘काट लो।’’
‘‘दस-पन्द्रह दिन हमारा कैसे चलेगा, इतने दिनों के लिए कोई नई मेड कैसे रखी जा सकती है, तुम्हीं बताओ।’’ विनयवती हुयी मैडम ने पेशानी पर परेशानी के बल डालते हुए कहा। इस पर रजिया ने उज्र किया’’ मेरा हसबैण्ड दो साल में एक बार, दो महीने की छुट्टी पर आता है। मैं आखिर के दस-पन्द्रह दिन पूरी तरह उसके साथ रहना चाहती हूं और आप इतना भी ऐडजस्ट नहीं कर सकतीं हैं। आपको भी छुट्टी की जरूरत पड़ती है तो आपकी कम्पनी ऐडजस्ट करती है या नहीं?’’
मैडम प्राइवेट सेक्टर में नौकरी कर चुकी थीं और कितना नाक-भौ चढ़ाकर उन्हें छुट्टी मिलती थी, वही जानती थीं लेकिन रजिया इस तरह से उन्हें और अपने को साथ-साथ तौल देगी, उन्होंने सोचा भी न था। मैडम के मुंह से निकला ‘अरे’ तो डायट मैडम का पेट उसी अरे की समस्वरता में सिकुड़ गया। मैडम अपनी कम्पनी में ह्यूमन रिसोर्स् के प्रबन्धन का कार्य देखती थीं जिसके कारण उनके भीतर मनुष्य होने का गुण थोड़ा कम होते हुए भी मानवीय व्यवहार का कौशल भरपूर था। इसी अभ्यास के तहत उन्होंने कहा ‘‘किसी को अपनी जगह लगा दो, तुम उससे पैसा ऐडजस्ट कर लेना’’। तो इस तरह से जरीना इस फ्लैट में एवजी की मेड बन कर आई। उस समय दो बेडरूम का यह फ्लैट काफी भरा भरा था। एक आदमी जो रूपहली दुनिया में तीन साल की नौकरी करने के लिए अभी अभी ही गया था, उसकी बीबी, दो साल की एक बेटी और आदमी के दूर के रिश्ते की उपयोगी कजिन।
जरीना काम में सुस्त थी बल्कि यह कहना चाहिए कि उसे ऐसे काम पसन्द थे जिनमें सुस्ती एक गुण होती है। वह आंख के धागों से तुरपाई का काम करती थी, बेले का गजरा ऐसे गूंथती थी कि लगता था कि गजरा पहले खिला है फूल बाद में। इससे जो चार पैसे मिलते थे उनसे किसी तरह काम चलाती थी।
वह चाहती थी कि उसके पास इतना अच्छा खाना बनाने भर को पैसा हो जिसे खाते समय उसके बच्चे उसे देखते रहें। वह अपने क्या पराए बच्चों को भी बहुत अच्छा सम्हाल लेती थी। परात में मांडे़ हुए आटे की तरह सीने पर परस्पर पसरी हुई उसकी भोंदू छातियां जिन्हें देखकर उसका पति कहता था कि इन्हें बरतने की तबियत नहीं होती, से लगते ही ठिनकते-रोते हुए बच्चे चुप हो जाते थे।
‘‘जरीना, तू कोई टोना जानती है’’ लोग खुशमिजाजी से आरोप लगाते।
जरीना वाकई बहुत कुछ जानती थी मसलन किसको नज़र लगी है और कैसे उतारी जाए। उसे इलाके के झाड़-फूंक करने वालों की जानकारी थी जिन्हें वह जात-पांत से परे ले जाकर पंडित कहती थी। रजिया हमेशा अपने बच्चों का एक साथ दोहरा इलाज करती थी, एक डाक्टर की दवा और दूसरी ज़रीना के पंडितों की तरकीब। लेकिन यही ज़रीना अपने पति पर कोई तरकीब नहीं लगा पाई। तब ज़रीना ने ही कहा था ‘‘रजिया देख मेरा हाल। तू इन ननिहाल वालों की लगाई शादी न करना। यह शादी करते नहीं हैं, किसी तरह हमें शादी में झोंकते हैं। यह तरस खाने लायक हैं लेकिन मेरी किस्मत ऐसी है कि गुस्सा करना पड़ता है।’’
ननिहाल वालों का कहना था कि एक तो दूसरे का फर्ज निभाओ और ऊपर से गाली भी खाओ। भला क्या तुक है। ज़रीना की मां नहीं थी और बाप ने दूसरी शादी कर ली थी। कहावत है कि मां दूसरी तो बाप तीसरा। जैसे ही ज़रीना शादी लायक हुई तो ननिहाल वालों ने उसकी शादी एक ऐसे आदमी से कर दी जो खाने के लिए नहीं वरन् पीने के लिए कमाता था। उसका आदमी छुटपन से ही काम पकड़ता और छोड़ता आया था। न वह किसी पेशे में समाया और न जिन्दगी में आगे बढ़ा। उसका पहला काम था सोसाइटी के फ्लैटों में रहने वालों के कपड़े प्रेस की दुकान पर ले जाना और वापस करना। कुछ दिनों बाद उसने एक कैटरर के यहां वेटर का काम किया। इस काम के दौरान जूठे गिलासों की तली में जो एक बूंद पानी की और एक बूंद शराब की बचती थी, उसे पीने लगा। इस वेटरगीरी से उसे शराब और वर्दी का चस्का लगा। वह वही काम करता जिसमें वर्दी मिले। दूकानों में सेल्समैन, डिलीवरी ब्याय और छोटी सोसाइटियों में वाचमैन इत्यादि की ड्यूटी करते और छोड़ते उसकी जिन्दगी किसी तरह कट रही थी। ज़रीना सोचती कि मान लो इस आदमी को बीबी और रोजगार में रूचि नहीं है तो दो औलादें पैदा करके उन्हें कहां खो दिया इसने। उसने हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदायों में प्रचलित टोटके किए। जब कुछ काम नहीं आया तो वह नाना-मामा के पास गई जिन्होंने जवाब दिया कि शादी करना उनका काम था, शादी सम्हालना उसका। अब शादी सम्हालने से ज्यादा ज़रूरी था दो बेटियों को सम्हालना। जब मैडम के घर काम मिला तो लगा कि जिन्दगी को सिलने वाली सुई मिल गई है।
कुछ ही दिनों में मैडम यह देख कर खुश होतीं कि उनकी बच्ची ज़रीना को देख कर खुश होती है। वह गाहे-बगाहे दिल खोलती और प्रशंसा करतीं ‘‘ज़रीना देखो यह बच्ची तुम्हें देख कर कैसा लपकती है, तुम्हें देखकर तो मुझे भी भूल जाती है’’। सुनकर ज़रीना चिढ़ जाती थी क्योंकि वह बेवकूफ नहीं थी। यूं बेवकूफ न होना भी कितना काम आ पाता है। झोपड़पट्टी की कोई लड़की बेवकूफ नहीं थी। बहुतों की किस्मत एक खड़ी चढ़ाई थी जिस पर वह अपने अपने तरीके से चढ़ती थीं। ज़रीना, रजिया और रजि़या की मां सभी तो।
जब मैडम के बच्ची हुई थी तो उसके पहले और उसके बाद भी मैडम के मां-बाप और सास-ससुर पारी बांध कर उनके पास रहे थे। इससे उत्साहित होकर मैडम ने यही सिलसिला आगे भी कायम रखना चाहा क्योंकि वह नौकरी नहीं छोड़ना चाहती थीं। पहले उन्होंने मां-बाप को ट्राई किया। वह महीना दो महीना के लिए तो आ सकते थे लेकिन घर परिवार छोड़कर लम्बे अरसे तक यह सेवा नहीं कर सकते थे। सास-ससुर की अवधि और भी कम निकली। साथ में यह भी सुनने को मिला कि भला यह क्या बात हुई कि पहले अपने बच्चों को पालो फिर बच्चों के बच्चों को। लिहाजा मैडम ने झींकते हुए अपनी नौकरी छोड़ी। ज़रीना के आते ही उन्हें नई नौकरी करने की आस लगी। उनकी डिग्री काम चलाऊ दर्जे की थी। जब उन्होंने एक औसत से भी कमतर कालेज से एम.बी.ए. किया था तब किसी अच्छे कालेज में बी.ए. में प्रवेश पाना कठिन था और बी.ए. करके नौकरी पाना और भी कठिन। इस एम.बी.ए. के कारण उन्हें कोई न कोई नौकरी मिल ही जाती थी।
जब यह लगभग तय हो गया था कि मैडम के पति को बाहर जाना है और अभी यह स्थिति नहीं है कि परिवार को साथ ले जा सकें तो वह सोच-विचार में पड़ गए। उनकी रिष्ते की चचेरी बहन समन्दरनगर में एक तीन सितारा अस्पताल में डाइटीशियन की नौकरी करने आई थी और ठंडी मुस्कानों के बीच उनके यहां एक सप्ताह रहकर वकिंग गर्ल्स के हास्टल में रहने चली गई थी। उसे वहां रहना अच्छा नहीं लग रहा था। इसलिए जब उसे पता लगा कि भाई साहब भाभी के लिए कोई सहवासिनी ढूंढ़ रहे हैं तो वह खुशी-खुशी विशिष्ट पेंइंगगेस्ट बन कर रहने चली आई। इस पेंइंगगेस्ट की विशिष्टता का कोई भी अनुच्छेद अस्पष्ट नहीं था।
उक्त बहन से आवास शुल्क नहीं लिया जाएगा बस खाने खर्चे के लिए वह एक निश्चित राशि देंगी। यह तय हुआ कि जब मैडम पति के पास रूपहली दुनिया में जाएंगी तो बाथरूम वाला एक बेडरूम बन्द करके जाएंगी और शेष आवास मय फर्नीचर और बर्तन के खुला छोड़ देंगी। फिलहाल तो सब साथ थीं और यह बड़ी भारी राहत थी उस लड़की के लिए, जिसके पास घर में घुसने से पहले डोरबेल बजाने की सुविधा थी और लाइट का स्विच न दबाने के मौके थे। रजि़या की उस पर और उसकी रजिया पर खास निगाह पड़ी। रजि़या की निहायत पतली कमर देखकर उसने कहा ‘‘साइज जीरो की मेड’’ तो रजि़या ने उसका नाम रखा डाइट मैडम।
डाइट मैडम दूसरों के बच्चों को हृदय से नहीं लगा पाती थीं। वह बच्चों के साथ अपनत्वहीन टाफी-चाकलेट वाला पुचकार-व्यवहार कर पाती थीं। इस बीच मैडम को यह ज्ञान प्राप्त हो चुका था कि बच्चे से प्यार और बच्चों की देखभाल पूरी की पूरी एक ही बात नहीं है। देखभाल के लिए कोई ऐसी नौकरानी चाहिए जिसकी वात्सल्य कला में मंजाई-घिसाई हो चुकी हो, खास तौर पर जब मैडम अपने व्यक्तित्व की निजता बचाए रखने के लिए घर से बाहर की कोई नौकरी पर आमादा हों। तो रजि़या के लौटने पर भी उन्होंने ज़रीना को काम से नहीं हटाया। पुरानी बात है।
फिर से फोन लगने में देरी हो रही थी और ज़रीना अधीर हो रही थी। वह पिछली बार अपनी बेटी से बात नहीं कर पाई थी। उसने इस अन्दाज से फोन मिलाया कि रजि़या घर पहुंच चुकी होगी। इस समय रजि़या-गोकुल वाकई ट्रेन में थे। आवाज कट कट जा रही थी। रजि़या अनुमान से हां या ना में उत्तर दे रही जो शायद सही बैठ रहा था। शायद ज़रीना पूछ रही थी कि उसकी बेटियां तंग तो नहीं करतीं। रजि़या कह रही थी, बेटियां मां को याद करती हैं। फोन की टूटती हुई आवाज को जोड़ना मुश्किल काम होता है, खीझ भी होती है। रजि़या ने ख्वामख्वाह नाक-भौं चढ़ा कर गोकुल की ओर गरदन घुमाई। अब इसमें भी वह बेचारा क्या करे, मोबाइल तो उसने अच्छा ही खरीद कर दिया था।
कभी कभी पति-पत्नी के बीच संभोगोत्तर सौहार्द बहुत देर तक कायम नहीं रह पाता है। सोसाइटी के सर्वेन्ट गेट तक आते आते रजि़या गोकुल के बीच इस बात पर झगड़ा होने लगा कि गोकुल नई नई चीजें औकात से बाहर जाकर खरीदता है और यह नहीं सोचता कि पैसे कितनी मुश्किल से आ रहे हैं। सारी किफायतशारी रजि़या के जिम्मे आती है और खुद बच्चों की तरह मंहगे खिलौने देख कर ललचाता है।
‘‘बताओ, भला लैपटाप लेने की क्या जरूरत थी।’’
‘‘सस्ता मिला तो ले लिया और बहुत काम आ रहा है। मच्छर की तरह तेरी शिकायतें भुनभुनाया करती हैं। तू इतना लड़ती क्यों है और वह भी बेटाइम।’’
‘‘देख, जब जब मैं लड़ना चाहती हूं, तू कतराता है और टाइम-बेटाइम की बात करता है, हूं?’’
‘‘क्या बात है, अरे तू मुझसे उतनी दूर फोन पर लड़ती है’’
‘‘मोबाइल तो तुम्हींने खरीद कर दिया था’’ रजि़या ने याद दिलाया।
‘‘अरे! तो यह भी तो कहा था कि कम बात करना। एक बार में बीस रूपए से ज्यादा टापअप न भराना’’ गोकुल ने याद दिलाया।
‘‘अरे अगर मेरा मन पच्चीस रूपए की लड़ाई लड़ने का करे तो।’’
‘‘लड़ना जरूरी है? परदेस में आदमी चाहता है कि घर की मीठी-मीठी बोली कान में पड़े।’’
‘‘कितनी देर मीठे-मीठे हालचाल पूछूं। हर शख्स् और शै को मुझे यहां पटा कर रखना पड़ता है, जिनके यहां काम करने जाती हूं उन मैडमों को, राशन-पानी के दुकानदार को, पड़ोसियों को, बच्चों के डाक्टर और ओझा को, कुत्तों और सांड़ों को। कोई ननद नहीं, कोई सास नहीं तो एक हसबैण्ड ही तो बचा है लड़ने को। फिर तू कितने पैसे भेजता है कि मैं सिर्फ तेरी कमाई पर बसर कर सकूं और मीठी-मीठी बातें करूं।’’
‘‘ठीक है, ठीक है’’ जब तक गोकुल कहे तब तक रजि़या एक झपाके में सड़क पार कर चुकी थी। उसी गति के अधीन उसने गरदन घुमाई तो देखा कि गोकुल सड़क मध्य फंसा हुआ दाहिने हाथ से गाडि़यों को रूकने का इशारा कर रहा था। यह आदमी समन्दरनगर में पैदल चलने की कलाबाजी भूल चुका है।
गोकुल की परवरिश एक अनाथालय में हुई थी। कौन मां-बाप कुछ पता नहीं, तो भी इस बच्चे के धर्म का निर्माण आसानी से किया जा सकता था क्योंकि अनाथालय चलाने वाले हिन्दू थे। जो एन.जी.ओ. अन्य परोपकारी धन्धों के साथ इस अनाथालय को चलाता था उसकी नीति यह थी कि ऐसे बच्चों को शर्मा सरनेम दिया जाए। थोड़ा हाथ-पांव निकलने के बाद गोकुल शर्मा इस काम की डाल से उस काम की डाल को पकड़ता हुआ खुद को जि़न्दगी के पेशे के लिए तैयार करने लगा गोकि कभी कभी उसे लगता था कि उसे रजि़या ने अपने लिए तैयार किया है।
जब रजि़या तेरह बरस की थी तब वह भी तेरह बरस का ही था और एक अच्छे अनाथालय में रहने के कारण उसका गोरा रंग मटमैला नहीं हुआ था। स्कूली पढ़ाई-लिखाई के अतिरिक्त वह सबेरे अखबार बांटता था और बांटने से पहले जिस लय और तेजी के साथ अखबारों की तह लगाता था उससे रजि़या की आंखें बंध जाती थीं। वह उसकी अंगुलियां देखती थी और धीरे-धीरे उसका सब कुछ देखने की इच्छा होने लगी।
विवाह के शुरूआती दिनों के बाद रजि़या ने गोकुल को बेतकल्लुफी से देखना शुरू किया। वह भौंहे ऊपर नीचे करते हुए, तरह तरह से होंठो को सिकोड़ते हुए आंखों ही आंखों में हंसती। इस पर गोकुल पूछता, क्या?
‘‘कुछ नहीं’’
‘‘कुछ तो’’
तब उसे रजि़या उतना बताती जितना एक पति की समझ में समा सकता था ‘‘तेरी ढोढ़ी कितनी फूली हुई है, ढंग से नाल नहीं काटी गई’’
उस समय गुलथिया कर फूली हुई ढोढ़ी गोकुल को बहुत ही बेहूदा दिखती। रजि़या उसे यह नहीं बताती कि उसकी गरदन कुछ इस तरह से छोटी और मोटी है कि पता ही नहीं चलता कहां शुरू हुई और कहां खत्म, कि उसका धड़ दोहरी काठी का दिखता है और अधरांग इकहरा। वह उसे यह ज़रूर बताती कि उसकी देह के घुंघराले बाल उसे बहुत अच्छे लगते हैं। औरत की देह मर्द के लिए सदैव आविश्करणीय रही है लेकिन यह औरत मर्द की देह के द्वीप खोजती है।
सड़क पार कर दोनों पैदल-पैदल रेलवे स्टेशन पहुंचे। यह रेलवे स्टेशन नया बना था, खूब खुला हुआ और साफ सुथरा। लगता ही नहीं था कि इस जगह के नीचे कभी कोई झोपड़पट्टी बजबजाती थी। उस झोपड़पट्टी में रहने वाले लोग आहार, निद्रा, भय और मैथुन की कशमकश भरी मशक्कत में लगे थे। गोकुल के पास अखबार कोई अकेला काम नहीं था और रजि़या के पास तेल की शीशियों में लेबल चिपकाने के अलावा भी काम थे। काजू छील कर दो टुकडे़ करने के बाद उसे पैक करना भी एक काम था। अन्य लड़के-लड़कियों के साथ गोकुल और रजि़या भी यह काम करते थे। इसी में एक दिन गोकुल की उंगली पर धार लग गई।
बहते हुए खून को उसने पानी से धोया और उंगली आगे करके ऐसे खड़ा हो गया जैसे ‘‘अब क्या करूं।’’ और लड़के लड़कियां हंसने लगे लेकिन रजि़या नहीं। वह आगे बढ़ कर आई तो गोकुल ने अपने हाथ आगे कर दिए। भरी भरी मॉसल हथेलियां जिन पर श्रम की लकीरें पड़ ही नहीं पाती थी, बस किस्मत की गिनी चुनी लकीरें थीं। रजि़या ने अपने हाथ फैला दिए। काम की अनगिनत लकीरों ने किस्मत की लकीरों को काट-फांट कर रख दिया था।
‘‘तू यह काम मत कर’’
‘‘तब’’
‘‘मैं तेरे लायक काम दिलाती हूं।’’
रजि़या उसे गुलदस्ते बनाने की दुकान पर ले गई। दुकान के सामने फुटपाथ पर फूल-पत्तियों के ढेर से, चुन चुन कर, सधे हुए हाथ कुछ इस तरह से गुलदस्ते बना रहे थे जैसे कच्ची मिट्टी से खिलौने गढे़ जा रहे थे।
रजि़या आते जाते उसे देख लिया करती थी और देखते देखते एक दिन रूक गई ‘‘तेरे तो मूंछे निकल आई’’
यह लड़का मूंछे निकलने पर लजा गया।
गोकुल और रजि़या यही छोटे छोटे काम करते बडे़ होने लगे। गोकुल हाईस्कूल पास कर चुका था। इलेक्ट्रीशियन के कोर्स के समय के साथ गुलदस्ते का काम जारी रखना सम्भव नहीं था। उसने बड़ी सोसाइटियों में कार धोने का काम पकड़ लिया था। रजि़या भी इस बीच कपड़े धोने का साबुन बनाने का काम पकड़ कर पछता रही थी। कारखाना बहुत ही गन्दी जगह में चल रहा था और उतने ही गन्दे पानी में उबलता कास्टिक रजि़या के हाथ काट देता था। दोनों को ही काम की नई डाल कूदकर पकड़नी थी। उन्हें प्याज की मण्डी में प्याज छांटने का काम मिला। टाप ग्रेड का प्याज निर्यात के ढेर में जाता था, मध्यम और उसे कम दर्जे का प्याज देसी मार्केट के लिए था। इन्हीं लाल-गुलाबी प्याजों के बीच गोकुल की जुबान लुढ़की ‘‘लड़कियों का बड़ा होना बहुत जल्दी दिखता है।’’
रजि़या हाथ में प्याज लिए सीधी खड़ी हो गई। कमर झुकाए काम करते वक्त किशोरी-कन्या में कभी-कभी युवती-स्त्री की ज्यामिति का आभास होता है। गोकुल की थुक्का-फजीहत दाढ़ी रजि़या की उठान के आगे कमऔकात लगती थी।
‘‘गोकुल, तू अब शेव बनाया कर, दाढ़ी ठीक हो जाएगी।’’
कुछ इस तरह से गोकुल ने शेव कराई जो रोज की आदत बन गई। सघन मूंछो और सफाचट दाढ़ी वाले इस लड़के के मन में इंतजार कौंध रहा था। वह इतवार का दिन था। इस दिन रजि़या स्त्रियोचित सर्वांग सफाई-धुलाई करती थी। उसे देखकर गोकुल की पुतलियां निमिश मात्र के लिए ऐसे स्थिर हुई जैसे कैमरे की आंख। मोतिया रंग का वह बुर्का रंगीन हो उठा था। वह बुर्का एक परिधान था, कोई परदा नहीं। ‘‘तू’’ कुछ इस तरह से गोकुल ने पूछा जैसे रजि़या किसी फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता से सीधे निकल कर आई हो। रजि़या के चेहरे की सलज्ज मुस्कान ने गोकुल को एक पल के लिए इतना ताकतवर बना दिया कि वह इस ताकत से घबरा गया। उसने रजि़या का हाथ पकड़ लिया।
समन्दर के किनारे, लहरों के शोर में शब्दों की निजता का एक अलग व्योम होता है। दोनों और केवल दोनों ही एक दूसरे से कह सुन पा रहे थे। उसी दरम्यान रजि़या ने पूछा ‘‘मैं कैसी लग रही हूं।’’
‘‘बहुत अच्छी’’ कह कर गोकुल अरसे तक मन मथता रहा। उसे कुछ और कहना चाहिए। यह अक्सर उसके साथ होता था जब अचानक चौंक-चौंका कर वह अपनी भूल-चूक सुधरता था।
एक दिन इसी तरह उसने कहा ‘‘तुम उस दिन ताजमहल की तरह दिख रही थी।’’
‘‘ओ, ओ, ओबेवकूफ वह तो इमारत है।’’
‘‘तो मैं क्या करूं। मोती के रंग का तो वह भी है।’’ गोकुल ने हथियार डाल दिए।
यह बुर्का रजि़या को मां से विरासत में मिला था। उसकी मां ने कभी किसी को नहीं बताया कि वह यह बुर्के क्यों खरीदती है। नौकरी करने के बाद गोकुल उसके लिए रंगबिरंगे बुर्के लाया करता था जिन्हें पहन कर वह शादी ब्याह में जाती थी।
ट्रेन इस समय समुन्द्री पानी के एक चहबच्चे के ऊपर से गुजर रही थी। कई दुहरावो के बाद ज़रीना की आवाज का मतलब साफ हो रहा था। ‘‘तू अभी तक ट्रेन में कैसे है’’
‘‘उस समय जा रही थी, अब लौट रही हूं।’’
‘‘लो, बच्चों से मैं कैसे बात करूं’’ ज़रीना की आवाज में शिकायत और खिन्नता थी।
‘‘अरे सब ठीक है दीदी’’
‘‘सुन, नाना को मैंने तेरे पैसे भेज दिए हैं। ले लेना’’
‘‘हूं’’
‘‘तेरे फ्लैट का क्या हुआ?’’
‘‘नाना से बात करनी है। मामा लोगों ने बड़ी चिल्लमचिल्ली मचा रखी है’’
‘‘अच्छा। शर्मा कब जाएगा?’’
‘‘दस पन्द्रह दिन में। लो बात कर लो। साथ ही में है।’’
गोकुल को फोन थमा कर रजि़या खिड़की से बाहर देखने लगी। ट्रेन पुल पार कर चुकी थी और बगल में एक दूसरी ट्रेन दौड़ रही थी। बरसों बरस पहले उसके नाना की ट्रेन वी.टी. स्टेशन पर आकर रूकी थी। ट्रेन के अगल बगल ही नहीं आगे भी प्लेटफार्म था। लगता था रेलवे लाइन यहां खत्म हो गई है। नाना को ठीक ही लगा कि अब इसके आगे कहीं नहीं जाना है। नाना यू.पी. के बस्ती जिले से भाग कर बम्बई आए थे और इस लम्बे रास्ते में ही उन्होंने छोटा-मोटा झूठ बोलना अंगीकार किया था। झूठ बोलते समय उनकी उंगलियां गले में पडे़ ताबीज को कुछ इस तरह से टटोलती थीं गोया झूठ का ताला खोल रहे हों। स्टेशन से बाहर निकलते ही वह उन लोगों से आक्रांत हो गए जो उनकी ओर नज़र उठा कर भी नहीं देख रहे थे। उबलती हुई भीड़ के बीच का वह निःसहाय अकेलापन उन्हें कभी नहीं भूला। भूख से बेहाल चलते चलते वह एक झोपड़पट्टी में पहुंचे। रमजान के दिन थे और नानी के पिता खैरात बांट रहे थे। नाना उसी लाइन में खडे़ हो गए। नानी के पिता इस नए चेहरे को देखते ही पहचान गए कि यह भागा हुआ मुसाफिर है और खाने के अलावा इसे रहने का ठौर भी चाहिए। खाना देते समय उन्होंने कहा ‘‘धीरे धीरे खाना और कम खाना नहीं तो कलेजे में लग जाएगा।’’
उनकी आवाज की नरमी से लड़के की आंखे नम हो गईं। वह सिसकियां भरते-रोकते खाने लगा। वह वहीं सो गया और बाद में उसने सुना कि वह चौबीस घंटे सोता रहा। ‘‘सोने दो’’ नानी के पिता ने सबसे कहा, उन कुत्तों से भी जो जबड़े फैलाकर इस अज़नबी को सूंघना चाहते थे।
नानी के पिता अवैध शराब की गुलजार भट्टियों से सटी हुई मांसाहारी चटखारे की एक दुकान चलाते थे। ग्यारह महीने गुर्दा, कपूरा, चाप-गोड़ी, कलेजी-भेजा, अंडा-आमलेट और फिश फ्राई बेचने के बाद वह रमजान के महीने में ठेले पर खजूर और अंजीर बेचते थे। लड़के के जागने पर उन्होंने पूछा ‘‘कहां से आए हो’’
‘‘बस्ती से’’
‘‘बस्ती कहां’’
‘‘अजुध्या के पार’’
‘‘ओह, कौन जात’’
अब तक लड़का थोड़ा चौकन्ना हो गया था। उसने अपनी जाति से एक पायदान ऊंची जाति का नाम लिया।
‘‘यह कौन जात होती है’’
लड़का मुंह ताकने लगा तो इस सवाल को कूडे़ में फेंकते हुए नानी के पिता ने पूछा ‘‘नाम क्या है’’
लड़के ने रेलगाड़ी में सुना एक नाम बताया ‘‘महराजदीन’’
‘‘अच्छा’’
महराजदीन वहीं रहने लगा और रजि़या की नानी से शादी के समय दुनियावी वज़ह से उसका नाम दीन मुहम्मद हो गया। गले की ताबीज की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। यह ताबीज अब उसकी मटमैली देह का हिस्सा बन चुका था। इस समय नाना रजि़या को आते हुए देख रहे थे। अनायास उन्होंने ताबीज को मुट्ठी में जकड़ा और कुछ पल रूके। हमेशा यही होता था। नाना कुल पल रूककर ही रजि़या के पति और बच्चें का हाल पूछ पाते थे। हाल-चाल के बाद नाना ने ज़रीना के भेजे रूपये उसे दिए। विश्वास और दंड की मिश्रित नीति से चलने वाले रूपयों के इस समानान्तर अन्तरराष्ट्रीय कारोबार से नाना को बस इतना ही वास्ता था।
‘‘ज़रीना की बेटियां कल मुझे दिखी थीं। स्कूल की ड्रेस उन पर अच्छी लगती है। अच्छी देखभाल कर रही हो’’ नाना ने बातचीत का एक अच्छा सिरा खोलना चाहा। रजि़या से कहे बिना नहीं रहा गया ‘‘ज़रीना चाहती है कि उन्हें वह सब मिले जो उसे नहीं मिला। उन्हें वह कभी न मिले जो मेरी मां को मिला’’
‘‘तू कब तक अपनी मां का ताना देती रहेगी? अब तो तेरी नानी नहीं है यह सुनने के लिए।’’
‘‘तो तुम सुनो’’
‘‘मैं क्या सुनूं, मेरा तो कपड़ा ही कम पड़ गया’’ कानों में उन्हीं के शब्द गूंजे। काफी कुछ यही बात उन्होंने सीनियर पुलिस इन्सपेक्टर सोल्कर से उस समय कही थी जब रजि़या ने गोकुल शर्मा से शादी की थी। रजि़या उससे कोर्ट मैरिज कर सीधे थाने पहुंची और कहा कि उसे और उसके पति को खतरा है। सोल्कर ने पहले शर्मा को धमकाया ‘‘अबे, यह क्या लफड़ा किया। जानता है मुसलमानों को?’’
‘‘क्यों नहीं जानेगा, साहब। हमारे ही लोगों के बीच उठा बैठा है।’’ रजि़या ने जवाब दिया।
‘‘तुम चुप रहो। मैं इससे पूछ रहा हूं।’’
‘‘नाम?’’
‘‘गोकुल शर्मा’’
‘‘बाप का नाम बोल’’
गोकुल चुप रहा तो एक सिपाही ने सवाल दुहराया।
‘‘अनाथालय में पला हूं साहब’’
थाने वालों के लिए यह कोई अनोखी नहीं फिर भी मजेदार स्थिति थी। कोई एक हंसा, कोई एक बोला, जैसे पूरा थाना हंसा और बोला ‘‘यह अनाथालय वाले भी गधे हैं। अरे जब बच्चे का नाम रखा तो बाप की जगह भी कोई नाम भर देते।’’
चूंकि यह अपमान हास्यरस के सृजन के लिए किया गया था इसलिए गोकुल-रजि़या को मुस्कराना पड़ा। सोल्कर की एक चिंता दूर हुई।
अगर यह लौंडा मारा पीटा भी गया तो कोई साम्प्रदायिक स्थिति उत्पन्न नहीं होगी। अनाथ का धर्म ठोस नहीं होता, भला कौन हिन्दू इसके साथ खड़ा होगा।
एक सामान्य पुलिस वाले की तरह सोल्कर ने बात को उल्टा टांग कर भी सोचा, एक अनाथ हिन्दू ही एक मुसलमान लौंडिया को शादी के लिए भगा सकता है मां-बाप होते तो अब तक वहीं डण्डा लेकर खडे़ होते।
सोल्कर की सामाजिक चेतना संतुष्ट हुई। इधर उसके ऊपर जो चरित्रवान ए.सी.पी. काम कर रहा था वह ब्राह्म मुहुर्त तक चलने वाली मदन-मादनी पार्टियों पर छापा मरवाता था।
सोल्कर इस छापा-नीति का समर्थक नहीं था, परन्तु ए.सी.पी. ईमानदार था, सोल्कर की कमाई में हिस्सा नहीं बंटाता था इसलिए सोल्कर एक आज्ञाकारी मातहत की तरह उसका साथ देता था।
एक दिन ए.सी.पी. ने कहा ‘‘देख भाई, छापों में हिन्दू, ईसाई, सिख और पारसी, सबके लौंडे लौंडिया मिलते हैं लेकिन मुसलमानों के केवल लौंडे ही मिलते हैं, लौंडिया कोई भूले-भटके ही मिलती है।
अपनी नहीं लाते, दूसरों की खराब करते हैं।’’
सोल्कर अवाक् रह गया। ज्ञान कब न मिल जाए। सम्मान से भर कर बोला ‘‘बरोबर सर, बरोबर। मेरे जैसे तो माया के चक्कर में ऐसा फंसते हैं कि राम को भूल ही जाते हैं।’’
सोल्कर के मन में इस समय दूर्वादल की तरह श्रद्धा उगबुगा रही थी। उसी भावावेश में उसने कहा ‘‘देख बे, अगर तूने इस लौंडिया को दगा दिया तो तेरी खैर नहीं।’’
‘‘नहीं, साहब नहीं’’ गोकुल ने दुगनी श्रद्धा के साथ हाथ जोडे़।
सोल्कर ने रजि़या के नाना-मामा लोगों को थाने पर बुलवाया और पुचकार पुचकार कर धमकाने लगा। एक मामा तेज होकर बोला ‘‘हम इस लड़की की शादी खुद करेंगे’’
‘‘कैसे करोगे। सकीना आपा की तरह या जैसे ज़रीना को निपटाया।’’ रजि़या चमक कर बोली और इसके बाद सबको सुनाया ‘‘मेरी मौसी जिन्दा नहीं है तो जानते हैं उनकी बेटियों की शादी इन्होंने कैसे की। एक की शादी ऐसे आदमी से की जिसकी पहले एक बीबी और तीन बच्चे थे और दूसरे की शादी पक्के शराबी से की। मेरी भी ऐसी ही करना चाहते थे, ठेंगा।’’
इस पर दूसरा मामा बोला ‘‘साहब, इस लड़के के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर गिरफ्तार करो। इसने हमारी लड़की भगाई है।’’
तब रजिया ने बगल में खड़ी मोटर साइकिल की सीट पर अपनी टांग टिकाई और जांघ पर थाप देते हुए बोली ‘‘इसने मुझे नहीं भगाया, मैंने इसे भगाया है। हम दोनों बालिग हैं और मैं इससे एक महीने बड़ी हूं। अब बोलो।’’
इस तेजस्वी वातावरण के कारण सोल्कर कोर्ट मैरिज और रूल ऑफ ला की बात सख्ती से कर सकता था। उसने कहा ‘‘भागो सालों, कोई लफड़ा हुआ तो तुम्हीं लोग भुगतोगे।’’ ‘‘क्या लफड़ा साहब, मेरा तो कपड़ा ही कम पड़ गया। एक जांघ ढकता हूं तो दूसरी खुलती है’’ कहते हुए दीन मुहम्मद बेटों समेत थाने से बाहर आ गया।
इसके बाद गोकुल रजि़या को अपनी झोपड़पट्टी में ले गया था। एक बुरे सपनों की तरह बनी झोपड़पट्टियों को घर समझना जिस्मी जरूरतों को मोहब्बत समझने जैसा है। मायका झोपड़पट्टी तो ससुराल झोपड़पट्टी। रजि़या गोकुल अच्छे सपनो को छूना चाहते थे। अब इन सपनो के लिए थोड़ी-थोड़ी जगह बन रही थी। इन जगहों को बोलचाल में फ्लैट कहते थे। सरकार की स्लम रिहैबीलीटेशन स्कीम के द्वारा जो झोपड़पट्टियां नाबाद की जाती थीं उनके निवासियों को आबाद करने के लिए बहुमंजिला इमारतों में आवास दिए जा रहे थे। इन आवासों के एकमात्र छोटे कमरे के अन्दर किचन और बाथरूम के बीच जगह का कुछ ऐसा संयोजन था जैसा भैंस के ग्रास और उसके गोबर में होता है। इन नाम-निहाद फ्लैटों के लिए बड़ी मारामारी थी क्योंकि यह झोपड़पट्टी वालों को साहिबे-जायदाद बनाते थे। फ्लैट उन्हें ही मिलता था जिनका नाम और घर झोपड़पट्टी के सर्वे में दर्ज हो। सर्वे में नाना के नाम दो कमरे दर्ज थे और बगल में रजि़या की मां के नाम एक कमरा दर्ज था। इसी के एवज में रजि़या को एक फ्लैट मिलना था। मामा लोग चाहते थे कि या तो रजि़या उन्हें फ्लैट दे दे या उसके एवज में अच्छी खासी रकम। उसके मना करने पर उसे यह याद दिलाते कि उनके यहां ही उसकी परवरिश हुई है। इस पर रजि़या चिल्लाती ‘‘कुत्तों की तरह पाला है तुम लोगों ने मुझे। एक टुकड़ा मिला तो खा लिया, एक कोना मिला तो सो लिया। उसी कमरे में मेरी मां एडि़या रगड़ती हुई मरी है। मैं कुछ भी नहीं दूंगी।’’
मामा लोग इस जबरदस्त नमकहरामी पर सन्न थे। वह यह समझने में असमर्थ थे कि पुरानी झोपड़पट्टी उजड़ने के साथ उनके रिश्ते भी विस्थापित हो चुके थे। हार कर उन्होंने दीन मुहम्मद से दबाव डलवाया। रजि़या पूछती ‘‘नाना, पालने की कीमत मांग रहे हो।’’
‘‘अल्लाह जानता है, नहीं। लेकिन रहना तो मुझे अपने बेटो बहुओं के साथ है। उनकी बात नहीं मानूंगा तो कहां जाऊंगा’’ दीन मुहम्मद कहता। ‘‘और मेरी मां ने कितने हण्टर खाए हैं उनका भी कोई हिसाब होगा’’ रजिया फिर पूछती।
दीन मुहम्मद कुछ यूं देखता रह गया जैसे रजिया कोई खोई हुई आकृति हो। रजि़या उस समय तीन बरस की थी जब उसके पिता की मृत्यु एक दुर्घटना में हुई थी। कम्पनसेशन क्लेम से जो लुटा-पिटा मिला था उसी से यह तीसरा कमरा, मां का कमरा बना था। पिता की मृत्यु के सात साल बाद मां की मृत्यु हुई थी। इन सात सालों में मां पर क्या बीती, रजि़या बहुत कम जानती है पर मां जैसियों पर क्या बीतती थी, इसकी कानाफूंसियों से वह अपनी मां को गढ़ती थी और एक उद्देश्यपूर्ण जीवन के लिए आवश्यक दुःख और क्रोध पैदा कर लेती थी।
तब भी यहां से धोबी, ड्राइबर, मैकेनिक और इलेक्ट्रीशिन वगैरह जाते रहते थे। उसके बाद वहां तरह तरह की दासियों की खेप जाने लगी। जरूरत के मारे लोग समन्दर पार रेगिस्तान में कूद पड़ते थे। वहीं किसी नखलिस्तान की तलाश में रजि़या की मां सुनहरे रेगिस्तान गई थी। उस समय की पक्की अफवाह यही थी कि जो सुनहरे रेगिस्तान में दास बन कर जाएगा वह समन्दरनगर में स्वामी बनकर लौटेगा। रजि़या की मां वहां दो साल ही रह पाई। जब वह लौटी तो उस पर फफूंद लग चुका था। वह कुछ पैसे, नब्ज की धड़कन से चलने वाली घड़ी और कुछ रूपहले-सुनहरे बुरके वहां से लाई थी। निढालतन वह सोचा करती कि वह सुन्दर बुरके नहीं कपड़ों के दिलकश मकबरे लाई है। वह मरने के लिए ही वापस लौटी थी।
हार कर लौटी हुई इन औरतों के बारे में लोग बात नहीं करते थे। बच्चों के कान में पड़ी खुसफुसाहटे उनके साथ ही वयस्क हो पाती हैं। बड़े होने पर जो रजि़या की समझ में आया वह यह था कि शुरू के तीन महीने सभी औरतों पर बहुत सख्त बीतते हैं। जैसे गरम लोहे को पीट कर अच्छा औजार बनता है वैसे ही इन्हें अच्छी दासी बनाया जाता है। इसके बाद अच्छे स्वामी-स्वामिनी मिले तो जीवन अच्छा गुजरता है और बुरे मिले तो बुरा। रजि़या की मां का नसीब अच्छा नहीं था। उसे याद है कि मां इतनी अशक्त हो गई थी कि अपने बालों में कंघी नहीं कर पाती थी। मां लेटी हुई थी और उसने एक एक बाल बिचार बिचार कर उसके सर में तेल लगाया था। उस समय नानी कमरे में आई थी तो मां ने मुंह फेर लिया था। रजि़या का सवाल यही था कि नानी ने मां को वहां क्यों भेजा जहां वह किसी की बहन, बेटी और मां नहीं रह गई थी।
रजि़या जब खुद से यह सवाल करती तो अपने को निर्दोष पाती। ज़रीना को रूपहली दुनिया में भेजने में उसका कोई दोष नहीं है। ज़रीना जानती थी कि मैडम किसी भी समय विदेश जा सकती हैं। छोटी मोटी तैयारियां रोज होती रहती थीं। इलेक्ट्रिक केतली और गरम मसाले साथ जाएंगे। वहां ओवर द काउन्टर दवाएं नहीं मिलती हैं। इसलिए दर्दनिवारक और दस्तनिवारक दवाएं आ गई थीं। ज़रीना ने साफ साफ पूछा ‘‘फारेन जाने से एक महीना पहले बता देना मैडम, मुझे भी तो दूसरा काम पकड़ना होगा।’’
‘‘तुम मेरे साथ, चलोगी, ज़रीना?’’
‘‘मैं, मैं भला कैसे। मेरे बच्चे हैं, मेरी फेमिली है’’
‘‘इस आदमी के साथ रहकर तुम्हे क्या मिलेगा?’’
‘‘जब तक जिन्दा है तब तक तो रहना ही है’’
डाक्टर कहते थे कि अब अगर इसने एक बूंद भी पी तो इसे कोई नहीं बचा सकता है। लेकिन पिए जा रहा है और जिए जा रहा है, जी का जंजाल। मैडम घुमा फिराकर कहतीं ‘‘मेरी बेटी तुम्हारे रहते मुझे पूछती ही नहीं। लगता है पिछले जनम का नाता है।’’
ज़रीना का मन होता कि इन बेपर्दा बातों से मुंह फेर ले। ज़रीना इस परिवार पोशक कमीनगी पर चुप रहती और यह न कह पाती कि वह अपनी ही बेटियों को समय नहीं दे पा रही है। काश कोई रजिया से यह कह के देखे। बोलती बन्द न हो जाए तो कहना। ज़रीना अपनी कमजोरी को रजि़या की ताकत में बदल देती।
इधर कई सालों से दासियों की खेप सुनहरे रेगिस्तान के अलावा रूपहली दुनिया भी जा रही थी। वहां स्थितियां बेहतर थीं। सप्ताह में एक दिन छुट्टी मिलती थी। उसी दिन उन्हें पूरा दिन फोन करने के लिए मोबाइल मिलता था। शारीरिक हिंसा नहीं थी। वहां जाने वाली औरत प्रथम श्रेणी की दासी मानी जाती थीं।
मैडम ज़रीना की पगार बढ़ा चुकी थीं और बेहतर उम्मीदों वाले परदेस का अर्थशास्त्र उसे समझा चुकी थीं। इस अर्थशास्त्र के अनुसार ज़रीना अच्छे खासे पैसे अपने बच्चों को भेज पाएगी जिनसे उनकी अच्छी परवरिश होगी और कुछ न कुछ बचता ही रहेगा। उसका रहना और खाना फ्री होगा। इस लगातार हमले से ज़रीना टूटने लगी।
‘‘दीदी क्या चाहती हो’’ रजि़या ने पूछा।
‘‘मेरी बेटियों को कौन देखेगा’’ ज़रीना की कातर दृष्टि में एक अनिश्चित सवाल था।
‘‘तुम जाना चाहती हो?’’
ज़रीना ने याचक आंखों से उसे देखा। वह चाहती थी कि यह कठिन निर्णय चुप्पियों के बीच हो। रजि़या के रहने चुप्पी सम्भव नहीं थी। उसने ज़रीना से उसकी जुबान वसूल ली।
जाने के बाद ज़रीना का जो पहला फोन आया उसमें रूपहली दुनिया की आभा छिटक रही थी।
‘‘घास इतनी हरी है, फूल इतने चमकदार है कि पहली नज़र में सब कुछ नकली लगे, रजि़या।’’
उस आवाज को सुनकर लगता ही नहीं था कि समन्दरनगर की मैली-कुचैली हरियाली, रेलवे लाइन से लगी कूड़े की पहाडि़यां, गतिहीन नाले और रेले की तरह बहते जन प्रवाह की कोई रील ज़रीना की आंखों में बची है।
आवाज की यह चमक मौसमी थी। धीरे-धीरे यही आवाज ठंडी और सफेद होने लगी। मैडम को एक स्थानीय रेडियो स्टेशन पर हिन्दी बोलने की नौकरी मिल गई थी। ज़रीना पार्क में बच्ची को टहलाने ले जाती थी जहां उसकी जैसी अन्य मेड दिखाई पड़ती थीं। प्रवासी नौकरानियों के बच्चे भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और थाईलैण्ड में रहते थे और वह भी ज़रीना की तरह दूसरे के बच्चों की देख-भाल करने रूपहली दुनिया में आई थीं। उन्होंने भी अपने अपने देष में बच्चे पालने वाली मेड पाल रखी थी जिनकी पगार और बच्चों के पालन-पोषण पर होने वाले खर्चे वह भेजती थीं। इसके बावजूद वह दिन रात चिंतित रहती थीं क्योंकि उन्हें प्यार और देखभाल के बीच का अन्तर बखूबी पता था। उन्हें डर था कि उनके बच्चे कहीं उनसे नफ़रत न करने लगें। दो अतिरिक्त बच्चों की जिम्मेदारी के कारण रजि़या को दो घरों में काम छोड़ना पड़ा था। वही पगार उसकी पगार थी। उसके अलावा खान-पान, पढ़ाई-लिखाई और कपडे़-लत्ते का खर्चा वह ज़रीना से पाती थी। यह सिलसिला था मेड की मेड का, यह सम्बंध था रूपहली दुनिया और समन्दरनगर का। सब बर्दाश्त है लेकिन यह औरतें उस प्यार का क्या करें जो उनकी छातियों में भरे-रूके दूध की तरह दर्द दे रहा था।
रजिया-गोकुल अब घर पहुंच गये थे बच्चे अभी स्कूल से नहीं आए थे। उनकी झोपड़पट्टी नई थी और नाना-मामा की झोपड़पट्टी से बेहतर दिखती थी। फिर गोकुल की छुट्टियों की मेहनत। इस बार वह घर की पुरानी वायरिंग बदल रहा था। घर में दो धार्मिक तस्वीरें थी। आज उसे इन तस्वीरों पर छोटे-छोटे बल्ब लगाने थे उनकी और हाथ बढ़ाते ही रजि़या ने टोका ‘‘कैसा हिन्दू है रे, नहा ले।’’
‘‘सबरे तो नहाया था, दुबारा?’’
‘‘और क्या। गन्दा हो गया है कि नहीं।’’
‘‘भक्क’’
बच्चों के स्कूल से आने का समय हो गया था। रजिया रोटी सेंक कर घर से काम के लिए निकलती थी और तरकारी लौटकर बनाती थी। जल्दी जल्दी उसने अंडे का सालन बनाया था। छुट्टियों पर आने से पहले दोनों का एक दूसरे से करार रहता था कि पहले दिन गोकुल उसे अपने हाथ से बनाकर खिलाएगा और छुट्टी के आखिरी दस या पन्द्रह दिन रजि़या उसे कुछ न कुछ अलग बनकर खिलाएगी। कल उन दस दिनों का पहला दिन होगा। कल से वह काम पर नहीं जाएगी।
रजि़या-गोकुल को शादी का पहला दाम्पत्य-दिवस बड़ी जद्दोजहद के बाद नसीब हुआ था। शौहर जैसी लाटसाहबी करने के बजाय गोकुल ने उसे पावभाजी बनाकर खिलाई थी। रजि़या की बनाई खास चीजों में कुछ न कुछ गड़बड़ी जरूर हो जाती थी। जो चीज लुगदी जैसी बननी है वह भुरभुरी हो जाती थी और जो भुरभुरी बननी है वह पत्थर हो जाती थी। दस दिवसीय व्यंजन सेवा का आरम्भ आज उसने हलवे से किया था। हलवा गोकुल के मुंह में गया और वहीं रूक गया। दीवार पर खडे़ किचन का सामना करते रजि़या बेचारगी से बोली ‘‘खा ले यार, बड़ी मेहनत से बिगाड़ती हूं’’
रजि़या की बेचारगी सदैव ही एक अनुभव होती थी। पहला बच्चा पेट में आने के बाद रजि़या बहुत परेशान रही। वह खाना नहीं बना पाती थी, जब गोकुल रात तीन बजे उठकर चुपछुप खाना बनाता था ताकि रजि़या को खाना न बनाना पडे़ और कोई उसे जोरू का गुलाम न कहे।
एक दिन उसने देखा कि रजि़या दोनों पैर जमीन पर आगे फैलाकर किसी तरह फर्ष पर झाड़ू लगा रही है तो उसने झाड़ू उसके हाथ से ले लिया। गर्भवती स्त्री की सार-सम्हार पुरूष को पति बनाती है। स्वयंवरा रजि़या के माथे पर गर्व की लकीरें पड़ते देर नहीं लगती थी।
रजि़या-गोकुल के बेटे और बेटी का नाम गोकुल के नाम से उपजा था। रजि़या जानती थी कि इस लिहाज से वह इस घर में अकेली मुसलमान रहेगी और यही याद बनाए रखने के लिए जब तब कहती’’ -या अल्लाह कब मुझे हज नसीब होगा?’’ जब होगा तब होगा अभी तो उसने एक मुसलमानी तस्वीर गोकुल की हिन्दुआनी, तस्वीरों के सामने लगा रखी थी लगभग उसी तरह से जैसे तस्वीर बेचने वाले बिना किसी भेदभाव के काबा और शिवलिंग की तस्वीरें बेचते हैं।
गोकुल इस समय एक तस्वीर की अगरबत्ती से अर्चना कर रहा था। गोकुल आस्मान के पर्दे में छिपी हुई पूजा करना जानता था क्योंकि सुनहरे रेगिस्तान में उसे पूजा चुरानी पड़ती है। वहां किसी गैर-इस्लामी पूजा पद्धति पर सख्त पाबन्दी थी। जत्थे के जत्थे हिन्दू कारीगर जाते और इस पाबन्दी का तोड़ सोचा करते।
सबसे लोकप्रिय और सुरक्षित तरीका था गणेष लक्ष्मी का चांदी का सिक्का। उसी को पर्स से निकाल कर लोग कुछ ओम दोम कर लिया करते थे। इससे ज्यादा की गुंजाइष उन थ्रीटियर बिस्तरों वाले कमरों में नहीं थी जिनमें कुषल श्रमिकों की श्रेणियां डेरा डालती थीं। इन्हीं लोगों के बीच रहते हुए गोकुल ने दिक्काल में सेंध लगाकर लैपटाप पर शंकर भगवान को अवतरित किया था। उसके कमरे में सब हिन्दू थे और वह उनकी रूचि के अनुसार देवी देवता बना कर देता था। वह उनका पंडित बन गया था।
इस बार साइबर-पूजा की यह तरकीब वह रजिया को दिखा रहा था कि नौ दुर्गाओं के पीछे एक और ही तस्वीर झपकी।
‘‘कौन है ये’’ रजि़या ने पूछा। एक पल के लिए गोकुल को लगा कि उसे यह तस्वीर हटा लेनी चाहिए थी। यह तस्वीर एक बांग्लादेशी औरत की थी। वह तीसरी दुनिया की उन तमाम दासियों में से एक थी जिनसे सुनहरा रेगिस्तान भरा हुआ था। यह औरत भी अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा अपनी ननद को भेजती थी जो मासिक वृत्ति पर उसके बच्चों की परवरिश करती थी। अब पृथ्वी पहले से अधिक गम्य हो गई थी, अब पृथ्वी पहले से अधिक दासीमय हो चुकी थी।
इस बांग्लादेशी औरत का दुःख यह था कि उसकी बेटी उससे फोन पर बात नहीं करती थी और अपनी मां को मोबाइलमां कहती थी। गोकुल ने रजि़या से पूछा था कि ज़रीना दी की बात अपने बच्चों से हो पाती है। रजि़या की ‘‘हां’’ में एक गंभीर चेष्टा थी।
गोकुल के लाए जूसर में फल का रस अन्तिम बूंद तक निचुड़ जाता है। किन्नो के रस से गिलसिया भरते हुए रजि़या ने कहा ‘‘लो, उठ कर पियो।’’
‘‘उठा नहीं जा रहा है’’
समन्दरनगर में आज गोकुल का आखिरी दिन है। औरों की तरह गोकुल भी हवाई जहाज से सुनहरे रेगिस्तान के लिए उड़ता है लेकिन उस दिन रजि़या सागर के किनारे खड़ी होकर उसे किसी नाव में जाते हुए देखती है। नाव के ओझल होने में देर लगती है।
घर से आए हुए साथी से लपेट-लपेट कर मज़ाक किए जाते हैं, बिना इस बात का ख्याल किए कि भई अगला अपनी बीबी के पास से आया है न कि किसी गुलजार गली से। गोकुल को यह फरमाइश पूरी करनी पड़ती थी। एक दो दिन के बाद उनके मजाक सुनहरे रेगिस्तान में यौन समस्या-पूर्ति के कठिन विषय पर फिर वापस आ जाते थे। सुनहरे रेगिस्तान के कठोर कानून न केवल उन्हें कष्ट देते हैं वरन् यहां काम करने वाली औरतों को भी वही दुःख देते हैं। इनकी तुलना वह रूपहली दुनिया की दासियों से करते थे जो उनकी कल्पना में इस मामले में काफी भाग्यशाली होंगी।
इस तुलना से वह थोड़ी देर के लिए कुछ ऐसा भूल जाते थे जिसे भूले बिना रहा नहीं जा सकता था। वह सभी अपनी बीबियां घर पर छोड़कर आए थे। इस बातचीत से गोकुल सिहर जाता था क्योंकि उसे ज़रीना का ख्याल आ जाता था।
इस ख्याल के साथ उस बांग्लादेशी औरत का चित्र भी उभरता था। वह आते जाते इस फिराक में रहने लगा कि कभी वह मिले तो यह जरूर पूछे कि आखिर उसकी बेटी जिसकी जिन्दगी की बेहतरी के लिए यह खुद को होम कर रही है उससे बात क्यों नहीं करती। यही सवाल उसने रजि़या से पूछा था तो झिड़की भरा उत्तर मिला ‘‘तुम्हे क्या पता कि बच्ची से बड़ी होती हुई लड़की को कब और क्यों मां की सबसे ज्यादा जरूरत होती है।’’
लड़कियां अचानक बड़ी होती हैं जैसे किसी पौधे में रातों-रात फल आ जाएं। अबोध तन के विस्मय की सहचारिता के लिए मां ही सखी है। जब महीना-दो-महीना हो गए और वह औरत नहीं दिखी तो परेशान होकर उसने कमरे के एक साथी से पूछा। साथी के चेहरे पर भय की सफेदी पुत गई। पता चला कि बदचलनी के आरोप में वह औरत जेल में है। वह किसी आदमी के साथ बहिररति की मुद्रा में देखी गई। मुकदमा चलेगा, नतीजा पहले से पता है। यह कानूनी दशा पहले से जानते हुए भी गोकुल डर गया। लगा, जैसे सब कुछ उस पर बीत रहा हो। उसने रजि़या को फोन पर बताया तो उसने तुरन्त कहा ‘‘अब तो तुम्हे वहां रहना ही नहीं है। बस किसी तरह से यह दो साल बीत जाएं। हम यहीं कुछ कर लेंगे। उनके कानून हाथ काट लेते हैं। बाबा रे बाबा।’’
नाना ने रजि़या को आते देखा। आज उसकी चाल में कोई तेजी नहीं थी तो नाना के मन में कोई आशंका नहीं थी। उसके एक हाथ में खाने की रकाबी और दूसरे हाथ में एक बैग था।
‘‘यह क्या लाई, लड़की?’’
‘‘पहले खाओ, फिर बताओ कैसा बना।’’
‘‘तेरे हाथ की बनी चीजों का जायका बताने के लिए खाना कहां जरूरी है।’’
‘‘अरे खाओ, मुझे बहुत अच्छा कुक बनना है’’
‘‘बाप रे’’ नाना ने खाया और तारीफ अदा की। इसके बाद रजि़या ने बैग खोला।
‘‘यह किसके लिए’’
‘‘देखो तो। पिछली बार भी और इस बार भी शर्मा, तुम्हे देने के लिए लाया था। मैंने दिए नहीं। मना मत करना।’’
नाना बैग से कपड़े निकाल कर देखने लगे।
‘‘सब मेरे लिए है?’’
‘‘हां और क्या’’
‘‘कोई और भी पहन सकता है। इन कपड़ों की साइज ऐसे ही झोल-झाल वाली होती है।’’
‘‘ठेंगा। तुम्हारे बेटो को तो मैं कुछ देने वाली नहीं और फ्लैट की बात तो भूल ही जाओ।’’
‘‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’’ नाना ने इधर उधर देख कर मज़ाक किया।
‘‘शर्मा कब तक वहां रहेगा’’ नाना को जानते हुए भी यह पूछना था।
‘‘बस आखिरी बार। इस बार बान्ड पूरा होते ही वह आ जाएगा। उसके हाथ में हुनर है, यहीं कमाएगा।’’
‘‘और ज़रीना’’
‘‘वह भी दो साल बाद आ जायेगी। उसकी मैडम और उनके हसबैण्ड का बान्ड तब तक पूरा हो जाएगा।’’
‘‘तुम लोग यहां करोगे क्या? इतने तो खर्चे फैला रखे हैं। बच्चों की अच्छी पढ़ाई का खर्चा, टी.वी. तो सबके यहां है, इसी झोपड़पट्टी में फ्रिज भी कहीं कहीं दिखाई पड़ जाते हैं।’’
‘‘वही करेंगे जो नानी और उनके अब्बा पुरानी झोपड़पट्टी और रोजगार उजड़ने से पहले करते थे। फ्राई और तंदूरी आइटम बेंचेगे। इडली और सांभर भी बनाएगें। तब तो माइक्रोवेव भी दिखेगा’’ कहते समय रजि़या के दोनों हाथ कमर पर थे और बित्ते एक दूसरे से जुड़े हुए दिखते थे। यह एक कटिबद्ध उत्तर था। नाना का हाथ ताबीज पर गया।
उनकी ताबीज़ की परतों में जमे बरसो में इसी तरह एक औरत खड़ी थी। बित्ते भर की कमर को पंजो में कसे हुए। उसके माथे पर परेशानी की लकींरे थीं और होठों पर इस परेशानी के लिए हिकारत की मुस्कान। वह नीचे देख रही थी, कच्चे रास्ते पर गिरी हुई दाल की छोटी छोटी ढेरियों को जो धोती का एक छोर फट जाने की वजह से गिरी थी।
देखते देखते बहुत सफाई से उसने ऊपर से धोती के दूसरे छोर में गिरी हुई दाल गठिया ली। उस दिन उसका कपड़ा कमजोर हो गया था। उसने अपनी कमर के बोझ की ओर तड़पते हुए देखा।
नाना कभी लौट कर बस्ती नहीं गए। सुदूर सदियों दूर एक गांव में मेला घुमनौ नाम की एक औरत थी। ऐसा नाम कभी नहीं सुना होगा। मेले-मेले डोलती हुई जब वह इस गांव में आई थी तो उसकी कमर में एक बच्चा था। गांव का एक हृष्टपुष्ट विधुर खेतिहर जो जवान बहुओं की जांगर चोरी से क्षुब्ध था और इस कारण सामने मुंह बाए खडे़ बुढ़ापे से डरा हुआ था, उस औरत को मेले से ले आया। बड़ी कमेरी औरत थी, नाना की मां।
नाना की आंखे इस समय जमीन पर थीं जिस पर कुछ अनहोनियां बिखरी पड़ी थीं, मान लो शर्मा दो साल के बाद न आ सके या ज़रीना की मैडम और उनका हसबेन्ड अपना कान्ट्रेक्ट बढ़वा लें, या यह या वह। इस या और उस या के ऊपर ऊपर से रजि़या घर भर की छोटी-छोटी इच्छाएं बड़ी सफाई से उठाकर सहेज रही थी।
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