रावण गाथा
~डॉ. संदीप अवस्थी
लगता नहीं इस आर्यों के देश में कोई कभी मुझे सुनेगा ,मुझसे बात करेगा।कभी मेरा भी पक्ष जाएगा या नहीं लोगों तक या ऐसे ही सदियों तक मेरे पुतले जलाए जाते रहेंगे? आज किसी भी अफसर,नेता का पुतला जलाओ तो दस लोग रोकने पहुंच जातें हैं। मुझे तो सारे के सारे भरी भीड़ के सामने जला देते हैं। मैं अपने देश का राजा, यशस्वी राजा,जिसने कई देवताओं तक को युद्ध में परास्त किया।अर्थ ,अनर्थ, शुभ अशुभ का ज्ञाता। शिव की ऐसी अखंड तपस्या,जो किसी ब्राह्मण के भी वश की नही ,मैंने की और साक्षात भोलेनाथ ने वरदान दिया।कभी मैंने अपने राज्य विस्तार के लिए हजारों कोस दूर अयोध्या तो छोड़ें किसी अन्य मानुष के राज्य पर कभी आक्रमण नहीं किया। हां,जिस तरह आदिवासी,या आज के अफ्रीकन मूल के लोग अलग रंगत और नैन नक्श के हैं वैसे ही हम भी थे।और आज भी विश्व में उनको भी वही अधिकार और सुविधाएं हासिल हैं जो अमेरिका,इंग्लैंड और यूरोप के किसी भी नागरिक को। तो फिर मेरे और मेरे देश लंका के साथ यह भेदभाव क्यों? क्या मुझे,हमारे जैसे आदिवासियों,या असुरों को भगवान ने अलग से बनाया और आपको अलग भगवान ने? ऐसा तो नहीं होता न!! तो फिर मेरी सोने की लंका में ,जिसमें पूर्ण शांति थी,अमन चैन था और शासक ब्रह्मज्ञानी,शूरवीर योद्धा और परम प्रतापी रावण था। कुछ अज्ञानी मुझे वेदों ,उपनिषदों का ज्ञाता भी कहते हैं। पर यह तो मेरे हजारों वर्ष बाद आए। त्रेतायुग में यह वेद,आरण्यक,उपनिषद कुछ नही था। हमें इसके बिना ही सब ज्ञान भगवान की आराधना से मिला था। यहआपके लिए सूचना है की हमारे भगवान शिवजी,इंद्र या अन्य आपके ही थे। कोई असुर राक्षस जैसा भगवान हमारा कोई क्यों नही था? निरंतर एकतरफा और पक्षपाती व्यवहार से मुझे लगा की मेरी बात आपके सामने रखना उचित होगा। आप जो सभी मानव,संवेदनशील और खरे इंसान हैं। रखने का जरिया यह लिखे शब्द हैं।
आप क्या सोचते हैं रावण मार दिया गया? क्या विभीषण जैसे कुलद्रोही भाई के व्यवहार और दुश्मन खेमे में मिल जाने के नुकसान का मुझे अंदाजा नहीं होगा ? वह श्री रामचंद्र क्षत्रिय युवराज को मेरे प्राणों का ही रहस्य बताएगा। जिसने तीनों लोकों को नापकर ,फिर भी पाताल लोक,देवलोक उनके निवासियों के लिए छोड़ दिया। उस दशानन को वह कल का युवराज मुझे मार सके। यकीनन मैं जानता था,मुझे पता था और उसका उपाय भी मेरे पास था। परम ज्ञानी यूं ही नही कहा जाता मेरे को। तो मैंने बचाव किया,योजना बनाई ,प्लान बी भी था मेरे पास पर उसकी जरूरत नही पड़ी । तो अभी भी और रहती दुनिया तक मैं जिंदा हूं और यहीं हूं। वह दस सिर मेरे अब असंख्य हो गए हैं। और सम्पूर्ण पृथ्वी के अलग अलग भाग पर रहता हूं मैं। परंतु जैसे हत्यारा,बलात्कारी,डाकू,दुष्ट आपके देश काल में हैं वह मैं नहीं हूं। यह तो अन्य पिचाशीय बाधाएं हैं,जिनका हल प्रभु के पास है परंतु अब कोई उतनी साधना नही करता जितनी मुझ रावण ने की।मुझे कहें तो पृथ्वी और प्राणियों के लिए मैं फिर भोलेनाथ को प्रसन्न कर इस धरती के लिए वरदान मांग लूंगा। लेकिन जब मैं आ जाऊंगा और समस्याएं खून खराबा,बलात्कार,अपराध,आतंकवाद खत्म कर दूंगा तो फिर जग में जगह जगह बने मंदिरों,धार्मिक स्थलों में जो खुद ही मूर्ति बना बैठा है ,उसके पास आप जाना बंद कर दोगे । और यही मैं नहीं चाहता। मुझे अपनी मूर्ति, या जगह जगह तमाशा नही करना। यह शासन का, राजा का कर्तव्य है की प्रजा खुशहाल रहे,देश में शांति रहे, उसके लिए राजा की पूजा हो यह बहुत ही अजीब बात है।
मैंने अपने कर्तव्य का पालन,शासक होने के नाते किया न की मूर्ति बनाकर मेरी पूजा करवाने के लिए ? तो इसीलिए मुझे सदियों पहले से ही बाहर कर दिया गया और ऐसा इंतजाम किया की कभी भी मैं आऊं तो कोई भी मेरा नाम तो दूर मेरा चित्र तक न हो। प्रभु होकर इतनी असुरक्षा क्यों? मेरी आत्मा भी आपने ही तो बनाई है जगत के स्वामी,पालनहार ? फिर मुझे ऐसी नाराजगी क्यों की ? मुझे हमेशा के लिए इस भूमि,पृथ्वी से निकाला और लांछन अलग। और आज मैं सभी का जवाब दूंगा। आप मेरी पूरी बात सुनकर फिर फैसला करना की मुझे जलाना कितना सही या गलत फैसला है । "मेरे विचार से यह केवल हमदर्दी पाने और किए हुए हतकर्म को कम दिखाने का एक प्रयास है इनका। और इतनी सदियों,शताब्दियों और सभ्यता के बीत जाने के बाद यह सब कहना बिलकुल फिजूल और व्यर्थ गाल बजाना है।
यह सब कहने और दूसरे को ग्रे शेड में दिखाने से इनके चरित्र और मुख पर पुती कालिख कम नहीं हो जाएगी। लिहाजा इनकी बातों को यहीं रोककर ,इन्हे इनकी सजा,_कहकर दो पल को मुनिवर नारद रुके, मुस्कराकर तिरछी निगाह कटघरे में सिर झुकाए बैठे रावण पर डाली और न्यायिक बेंच से बोले _ "जब से श्री राम जी की विजय गाथा चली है तब से चल रही सजा को ही बाकी दुनिया तक चलने देना चाहिए । यही मेरी इस अदालत से प्रार्थना है।"। सातों आसमान से ऊपर,सितारों के मध्य और यक्षों, गणों,देवी देवताओं की मौजूदगी में लगी अदालत । न्यायधीश स्वयं ब्रह्म और विष्णु जी मंद मंद मुस्कराते विराजमान हैं। असुर सम्राट ने उन दोनो की ओर देखा ।एक धीर गंभीर मुद्रा में कुछ नोट कर रहे फाइल में तो दूसरे सारगर्भित स्मित से उसे देख रहे। मंद मंद मुस्कराया दशानन, "देखिए ईश्वर भी मनुष्य,देवता और असुरों के एक ही हैं। मैं बताना चाहूंगा हम असुर, मानवों से अलग प्रजाति और अपने अलग राज व्यवस्था में रहते हैं। परंतु विधाता ने हमें भी वह सभी सुविधाएं दी हैं जो मानव को। प्रजनन,हवा,पानी,रंगों की दुनिया, सुख,दुख सभी देने में उसने भेद नहीं किया। कुछ उत्पात मचाने वाले तत्व हर समुदाय में होते हैं जो ऋषि मुनियों की तपस्या में बाधा बनते। चाहे वह खर,दूषण,अक्षय कुमार हो या अन्य राक्षस । उन्हे दंड मिलता भी रहा है । क्या ऋषि मुनियों के पास तप जप की शक्तियां नही थीं जो इन उत्पात मचाने वालों को रोक ,नष्ट कर देती?" या वह सब दिव्य शक्तियां केवल आम मानव,अहिल्या पर ही चलती उनका हम असुरों पर असर नहीं होता? फिर तो हम विशेष हुए। और स्वयं मैंने शिवजी को अखंड तपस्या कर कई कई बार वरदान और दिव्य शक्तियां ली थीं। तो एक तरह से मैं भी तो संत,ऋषि मुनि हुआ या नहीं ? " अदालत में सन्नाटा।
सब सन्न से दशानन की ठोस पर विनम्र आवाज में खोए हुए। चतुर सरकारी वकील बने नारद ने तुरंत हस्तक्षेप किया," छी,छी छी एक राक्षस,असुर अपने आपको ऋषि तुल्य रख रहा।नारायण नारायण, नारायण । यह बेकार की बात है प्रभु, (my lord)। बेकार क्यों? जो भी घनघोर तपस्या के मानदंड है वह सब मैंने पालन किए। मेरी भी जटाजूट ,शरीर पर चिटियों,प्राणियों ने घर बना लिए थे।मुझे कुछ भी भान नहीं था सिर्फ मेरे शिव की भक्ति के। तो मैं सन्यासी,योगी हुआ या नहीं?""क्या तुम्हे यह अहसास है उस युग में किसी नारी का ऐसे बलात अपहरण करना और उसे सैंकड़ों मील दूर कैद में रखना पहला भयंकर अपराध था।"कहकर नारद ने कोर्ट का ध्यान मुद्दे पर दिलाया। "इस विषय पर बोलने से पहले मैं कुछ पूछना चाहता हूं माननीय न्यायालय से।" विष्णु जी स्मित हो अनुमति का संकेत दिए। "क्या यह मुकदमा आस्था, मिथ पर चलेगा या तर्क और यथार्थ पर? क्योंकि इसकी ही आड़ में सदियों से आज तक हमारे साथ खिलवाड़ होता रहा है। "नारद सहित देख रहे असंख्य गणों,देवी देवताओं, यक्षों, अप्सराओं आदि ने रावण को ,इतिहास के सबसे बड़े खलनायक को देखा। "क्या कहना चाहते हो,साफ साफ कहो।" ब्रह्मा जी की धीर गंभीर वाणी गूंजी।
चारों धरतीलोक, पाताललोक और सातों आसमान के पार देखता वह सामने न्यायपीठ से विनम्रता से बोला,"यही की ऐसा तो नहीं की जो बातें मेरे पक्ष में हो उन्हे तो ऐसा होता है,प्राचीन परंपरा है कहकर खारिज कर दिया जाए। और जो बातें मेरे खिलाफ हो उन्हे ,यह तो गलत है ही,कहकर स्वीकार कर लिया जाए? ऐसा तो नही की व्यक्ति व्यक्ति में फर्क किया जाएगा? हमारे लिए अलग और श्री राम के लिए अलग कानून होगा? यदि ऐसा है तो बता दें मै अभी ही अपनी बात खत्मकर कोई भी सजा भुगतने को तैयार हूं।" दोनो न्यायधीश सोचते रहे और कुछ सिर झुकाए मंत्रना करते रहे। नारद मुनि बीच में खड़े होकर बोले,"यह न्याय को भटकाने की इसकी चाल है। आप पहले से न्याय को इस या उस हिस्से में नही बांट सकते।" कोर्ट कुछ देर बाद बोली,"इस बारे में अभी से कुछ आश्वासन देना उचित नहीं।यहां सभी की उपस्थिति में तथ्यों, किए गए अपराध के लिए दोषी और निर्दोष का फैसला होगा। पहले से ही हम यह नहीं कह सकते जब तक मामले की प्रकृति, हालात और उसके ओचित्य को समझ न लें।
आपका मुकद्दमा कोन लड़ेगा?" "धन्यवाद,आपका यह कहना भी काफी है की गुणदोष के आधार पर मामला तय होगा। "_दो पल रुककर और सभी को देखते हुए उसने कहा,"अपनी लड़ाई खुद ही लड़ी है तो यहां भी आपकी अनुमति से खुद ही लडूंगा ।" आसमान पर सन्नाटा था।और यहां दिन और रात,सूरज और चांद,समय खुद एक तरफ खड़े थे तो कोर्ट के अगले दिन का कोई प्रश्न नही था। रावण उठ खड़ा हुआ और जब बोला तो उसकी आवाज में दर्द और पीड़ा थी, "हे सर्वज्ञ ज्ञाता, मेरा यह कहना है की जब रामभार्या सीता, को मैं लेकर गया और उसको अशोक वाटिका,अपने राजमहल में रखा तो यह मेरे "प्रथम जघन्य अपराध में आ गया" जैसा अभी मुनिवर ने कहा परंतु उससे पहले जो एक स्त्री के,एक राजकुमारी के ,मेरी प्यारी बहन शूर्पणखा के साथ हुआ वह तो कभी भी कहीं भी संज्ञान में लिया ही नही गया? एक स्त्री को कुरूप,बदसूरत बना देना,एक राजकुमारी को जो प्रणय निवेदन कर रही थी, वह भी श्री रामचंद्र के अनुमति से लक्ष्मण के साथ । उसे आर्यपुत्र द्वारा कुरूप बना देना, नाक कान काट देना क्या जघन्यतम अपराध नहीं? क्या ऐसा पहले हुआ इस भूमि पर? वह भी स्वयं नारायण के सामने। क्या हमारी बहन,हम जंगलवासियों की स्त्रियां,बहनों के दर्द ,तकलीफ,अपमान नही होता? प्रणय निवेदन से यह इनकार तो आज कलयुग में तेजाब डालकर,स्त्री के टुकड़े टुकड़े कर देना,हत्या कर देना हो रहा है उसकी नींव वहीं पड़ी। " कहते कहते उसका गला भर आया,वह रुका आसपास,उपर तक सन्नाटा छाया था।लोग सन्नाटे में थे। "आज तक कोई भी उस अति रूपवती,असुर सुंदरी ,राजकुमारी मेरी बहन का जिक्र किसी किताब,ग्रंथ में नही ।
वह तो ऐसे भुला दी गई जैसे उसका होना, हम असुरों, राक्षस प्रजाति का होना ही अपराध है। इस धरती पर तो सिर्फ राजा,राजकुमार ,देवदूत,अवतार ही रहें। हम लोग,आदिवासी,जंगल निवासियों को तो रहने का अधिकार ही नहीं,हक ही नही?" अब नारद उठे, " नारायण,नारायण यह विषय से भटका रहा है। यह भावुकता से कोर्ट के फैसले नही होते। और किसी के रहने न रहने का अधिकार स्वयं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी ने,हुजूर ने दिया हुआ है । उस पर कोई प्रश्न ही नहीं है ।फिर इसे क्यों मुद्दा बना रहा है वादी? इस पर गौर नही किया जाए।" "वादी को कहा जाता है वह विषय से भटके नही और जो बातें सभी जानते हैं उन्हें न कहे। सभी जीव जंतुओं के मूलभूत अधिकारों और रहने के स्थानों का निर्धारण किया गया है। सीमा का अतिक्रमण ही विवाद को जन्म देता है।" नारद जी तुरंत खास व्यंग्य के लहजे में बोले,"यही वजह रही जब सुदूर देश लंका की भ्रमणशील,चंचला,सुंदरी राजकुमारी कामांध होकर वन में विचरण करती दो स्वस्थ हष्टपुष्ट राजकुमारों पर मोहित हो गई । उसकी मासूमियत देखें की सीता मां के सामने ही उनके पति राम को प्रणय निवेदन कर रही!! यह भी कभी इतिहास में नही हुआ?" कहकर तिरछी निगाह से उन्होंने रावण को देखा। सिर झुकाए बैठा रावण खड़ा हुआ और गंभीर आवाज में बोला," आज बात उठी है तो इस युद्ध की वजह और जड़ मैं स्पष्ट कर ही देता हूं। फैसला आगे आप सभी करें जो जूरी के सदस्य हैं।बात उचित है शूर्पकर्णखा को ऐसे दूसरे प्रजाति और देश के राजकुमारों को प्रणय निवेदन नही करना था।
परंतु ऋषिवर नारद की यह बात गलत है की विवाहित पुरुष से प्रणय निवेदन गलत है। स्वयं श्री राम के पिता दशरथ की तीन तीन पत्नियां थीं। पर यह उनकी निजी जिंदगी है मैं उसमें नही जाऊंगा। पर यह बात अकाट्य है की प्रेम निवेदन को ठुकरा दें,मना कर दें पर स्त्री और वह भी राजकुमारी के नाक कान काटना बिलकुल भी न्याय संगत नहीं। और इसकी सजा या सुनवाई कहीं नहीं हुई न तब और न इससे पहले। और वह खर,दूषण दोनो मेरे खानदान के वीर योद्धा के पास गई खून से लथपथ। चिकित्सकऔर वैद्य,ज्ञानी,आचार्य शुक्राचार्य और उनके बहुत से योग्य शिष्यों को हमने सब जगत तैनात कर रखा था। तो हमारी बहन की मरहम पट्टी समय पर हुई। अन्यथा कुछ भी हो सकता था। परंतु आगे इससे भी बुरा और भयानक हुआ जिसे कोई भी अदालत उचित नहीं कह सकती। वह रुका और देखा की तभी नारद के पास एक देवता कुछ लिखे हुए बेलपत्र लेकर आया और मुनिवर उसे गौर से देखने लगे। रावण के माथे पर क्षण मात्र को बल पड़े पर फिर वह आगे पैरवी करता बोला,"फिर खर,दूषण जब गए बात करने,और मिलने ऐसे योद्धा से जो अकेली स्त्री के नाक कान काट सकते हैं प्रणय निवेदन के बदले। तो आप जानते ही हैं उन दोनो की हत्या कर दी गई ।साथ ही कई सैनिक भी उन लोगों ने मार डाले। यहां से बात मेरे संज्ञान में आई और मुझे गंभीर लगी की हमारे क्षेत्र, वनों में जहां कभी कोई असुर, राक्षस मारा नही गया वहां मेरे प्यारे खर और दूषण और मेरे सैनिक मार डाले गए।वह भी मात्र दो मुनि जैसे युवाओं द्वारा?"।
"प्रभु,प्रभु यह तो ऐसा ही है जैसे शेर या भेड़िया कहे की बकरी मुझे धमका रही हो ,की मैं तुझे खा जाऊंगी "। खुले आसमान में कई हंसी के स्वर नारद की बात सुनकर गूंजे।"इस बिंदु पर यह बताना उचित होगा की वह दोनो देत्य खर और दूषण निरीह मानुषों को मारकर भक्षण करते थे। ऋषि मुनियों की तपस्या,झोपड़ी तोड देते थे। पूरे वन क्षेत्र में इन राक्षसों का आतंक था। तो जब दो वीर योद्धाओं ने उन्हे अपनी बहादुरी और युद्ध कौशल से परास्त किया तो कैसा रोना? वह तो यह सोचकर आए थे की इन दोनों श्री राम और लक्ष्मण का भी भक्षण कर लेंगे। तो हिंसा को उतारू,हिंसक लोगो को मारकर राम ने तो वनवासियों की रक्षा ही की। और यह उनका कर्तव्य था। रही बात राजकुमारी शूर्पकर्णका की तो यह तो उसे बेहद सामान्य सजा दी। कृत्य तो उसका अक्षम्य था। एक विवाहित युवक को उसकी पत्नी के ही सामने रिझाने और शादी का प्रस्ताव रखने की घटिया हरकत एक राक्षसी ही कर सकती है। फिर भी राम,सीता ने सहजता से इस अप्रिय प्रसंग को झेला। लक्ष्मण के बार बार मना करने पर भी वह नही मानी।
यह ध्यान रखें की वह उन लोगों के सामने रूपवती स्त्री का मायावी वेश बनाकर गई थी, न की राक्षसी का। तो उस मायावी के ,जो ऐसी दुष्ट आत्माओं के साथ किया जाता है ,बाल या नाक ,कान काटे ही इसलिए जाते हैं की यह माया अपने असली स्वरूप में आ जाएं और भाग जाएं। लेकिन वह दुष्ट अपनी तमाम गलतियों से भी नही सुधरी और जाकर इस असुरराज रावण को दो की चार, बढ़ा चढ़ाकर घटना बताई। और इतना ज्ञानी, वीर दशानन अपनी बहन की कारगुजारियां जानते हुए भी उसकी हिमायत में यहां पंचवटी आ धमका ?? " कहकर मुनिवर चुप हुए ,चारों ओर सन्नाटा था। सत्य अपनी जगह और तथ्यों की रोशनी में जगमगा रहा था। दशानन सिर झुकाए सब सुन रहा था। डायस पर विष्णु भगवान नोट करते हुए मुस्कराए और बोले," नारद,कलयुग में भी तुम्हारे कई अवतार और चाहने वाले होंगे। जिस तरह तुमने सच्चाई को जाहिर किया वह सराहनीय है।परंतु इससे मुलजिम रावण की शिकायत दूर नहीं होती ,की उसे क्यों बुराई का प्रतीक ,अधम ,नीच मानकर सदियों से कलंकित किया जाता है?" नारद अपनी मनमोहक मुस्कान के साथ आधे आसमान में टहलते हुए सामने झुके और बोले,"आपके आशीर्वाद से यह नारद जब भी जहां भी अन्याय, घात,प्रतिघात होगा सदैव उसे सामने लाएगा।
अब एक मिथ, गलतफहमी भी आज दूर करता हूं।जो रहती दुनिया तक इसे सहानुभूति दिलाती रही पर यह झूट था।" ऋषिवर नाटकीय रूप से रुके,देखा सब उत्सुकता से उन्ही की तरफ देख रहे। सामने हवा में दिखाई दे रहे बेलपत्र को उठाया और बताया,"उस प्रणय निवेदन वाली राक्षसी के कटे हुए नाक,कान भी मायावी थे । वह बाद में रावण को दिखाने के बाद पुनः अपने मूल स्वरूप में आ गई थी। जिस तरह मायावी चीज का आप वध भी करदो तो वह ,जो यह माया रच रहा होता है,उसका बाल बांका भी नही होता। और इस बात को भला रावण से बेहतर कौन जानता है? जी हां, शूर्पकर्णखा के नाक कान कटे ही नही। वह मायावी,धूर्त अपने मूल रूप और नैन नक्श में ही रही ।" कोर्ट में हलचल होती है।कई यक्ष, गण,देवता मुस्कराते हुए सिर हिलाते हैं। रावण परेशान दिखता है । मुनिवर आगे अपनी धीर, गंभीर वाणी में आगे कहते हैं,"कलयुग तक मानव जाति और उसके कुछ जड़, जिद्दी लोग यही सच मानते रहे की एक राजकुमारी के नाक कान कटे, बहुत बड़ा अपराध दशरथ पुत्रों से हुआ। जबकि ऐसी कोई बात नही थी। मायावी के हाथ, सिर सब काट दिए जाएं तो भी उस माया का कुछ नही बिगड़ता। यानि जो मुद्दा बनाया गया, वह था ही नही।फिर भी रावण खुद चला आया जानकी को,एक मानुषी,पतिव्रता स्त्री को हरण करने? वह भी साधुवेश धरकर? यही इसके मन के खोट,फरेब को दिखाता है। यह राक्षसी सोच पर स्त्री की चाह और सबसे बढ़कर इसका अहंकार कि जिसे देवता भी परास्त नहीं कर पाए,जिसके संगी साथी सब पूरी धरती ही नही पाताललोक तक में अत्याचार कर रहे।
असंख्य निर्दोषों की हत्याएं ही नही कर रहे उन्हे जिंदा खा भी रहे,उसके राक्षस लोगों को दो वन में आए युवक मार देते हैं!! इतनी हिम्मत!!यह दुस्साहस ? इसीलिए पापी और कामी रावण ने सीता मां का बलात अपहरण किया। वह भी पूरी तैयारी और सोची समझी साजिश से। आप सभी जानते हैं की वह हिरण भी मायावी था,और इस पापी का वेश भी एक साधु ,पुण्यात्मा का था।राम ही नही उनके अनुज ने भी जानकी की रक्षा के लिए ऐसी अकाट्य लक्ष्मण रेखा खींची थी कि रावण भी उसे पार नहीं कर पाया था। यह साजिश,यह छलना किसी की पत्नी को उठा लाना ,और अपने महल में कैद रखना यह इतनी नीच,शर्मनाक और कलंकित करने वाली घटना थी की उससे पहले और कलयुग तक में नही होती। हुई तो पापी को तुरंत कानून और समाज ने सजा दी। इसीलिए इस लंकापति के रहती दुनिया तक पुतले जलाए जाते हैं और बुराई का प्रतीक इसे माना जाता है।" सातों आसमान देव ,गणों,नक्षत्रों,अप्सराओं की तालियों से गूंज उठे।
अब लंकापति से रहा नही गया उसने चारों ओर, ऊपर तक गर्दन घुमाकर देखा। और विनम्रता की मूरत बने नारद मुनि को भी । "फिर तो फेसला हो गया। मै दोषी हूं पर इस बात को लेकर बहस नहीं हुई की क्यों मैंने इन दोनो राजकुमारों को वहीं पंचवटी में नही मारा? क्यों मैंने, जिसने इंद्र से लेकर कुबेर ,यम तक को परास्त किया हुआ है इन्हे आगे बढ़ने दिया? त्रिकालदर्शी हूं मैं तो क्या मैंने इनमें साक्षात नारायण को नहीं पहचाना? और सबसे जरूरी बात सीता को अशोक वाटिका में रखा।उसे कोई तकलीफ मेरे से नही होने दी।मेरी परछाई भी नही पड़ी उस पर। यदि मै चाहता तो युद्ध से पूर्व ही मेरे गुप्तचर विभीषण का वध कर देते।फिर अकेला रावण ही इस पूरी चतुरंगिनी सेना के लिए काफी था।" वह रुका और एक चौपाई पढ़ी,"_____ "देखिए,प्रभु का नाम आखिर इनके मुंह पर आ गई गया !! और रावण महोदय सीता को यह शक्ति प्राप्त थी की तुम उसकी परछाई भी छूते तो भस्म हो जाते। तो यह मत कहो।कोशिश तुमने उसे रिझाने,बहलाने की बहुत की। अपनी मुहलगी दासियों से प्रलोभन दिलवाए। सोचकर ही घृणा होती है की एक राजा ,अपनी महारानी ,पत्नी मंदोदरी के होते हुए भी परस्त्री को बलात हरण करके कैद में रखता है। और उसकी पत्नी भी देखती रहती है और सीता मां को आजाद नही करती। यह भी पाप की श्रेणी में आता है। नारायण, नारायण,नारायण "। न्यायपीठ से ब्रह्मा जी ने नारद को हाथ के इशारे से मौन रहने को कहा। फिर वह बोले, "दशानन,आपको जो कहना है वह तथ्यों की रोशनी में कहो। ऐसे इधर उधर की बातों से आप पर लगा कलंक मिट नही जाएगा। तो be spacific and to the point ।" विष्णु जी,साक्षात विधाता,सब भाषाओं के ज्ञाता और बारंबार ग्रहों पर अवतार लेकर वहां व्यवस्था ठीक करने वाले मुस्कराए।
आजकल वह पृथ्वी के अलग अलग हिस्सों में हैं। वह ईरान में हिजाब,बुर्के का विरोध करती स्त्री के रूप में हैं। जो टैंकों,मशीनगनों के सामने डटी हैं और उनके पुरुष,नेता,विपक्ष,शिक्षाविद और दुनियाभर के प्रगतिशील दुबके बैठे हैं खुमैनी के अंदर के रावण से।कोई उन स्त्रियों के अहिंसक आंदोलन को सेना और इस्लामिक मोलानाओं द्वारा कुचले जाने और उन स्त्रियों को जेलों में अमानवीय यातनाएं और फांसी देने के खिलाफ जरा भी आवाज नहीं उठा रहा। कम्युनिस्ट तो खत्म हो गए पर उनके पुछल्ले साहित्यकार भी मोन हैं।जो कश्मीर के आतंकियों से लेकर नक्सलियों के पक्ष में खड़े हो जातें हैं परन्तु कितनी सहनशीलता से सेना,अर्धसैनिक बल काम कर रहे उस पर भी नही बोलते । विष्णु जी भारत में भी हैं तो यूक्रेन में भी मानवता और इंसानियत के पक्ष में हैं । दशानन ने सिर झुका चेतावनी कुबूल की,और फिर खड़ा हो गया।
सभी तरफ देखा ,देवताओं की आंखों में परिणाम जानने की उत्सुकता थी। तो कुछ अप्सराएं, गण, यक्ष आदि एक अनजाने डर से सहमे हुए थे। क्योंकि यदि रावण ही सारे इल्जामों से बरी हो गया तो फिर बुराई और अच्छाई में फर्क ही मिट जाएगा। और यह मायावी, दानवी और आसुरी सोच का दशानन कहीं दुबारा इस धरती पर अत्याचार और अनाचार न बढ़ा दे। अभी तक की पैरवी में दोनो ही पक्ष बराबरी से लगे हुए थे। "अशोक वाटिका हो,या विभीषण की दगाबाजी,नारायण को पहचानना सब कुछ मुझे पता था। और यह लड़ाई दरअसल देवताओं और असुरों में थी। इस पर थी की पृथ्वी पर शक्तिशाली योद्धा मैं ,लंकेश्वर हूं। इस युद्ध से सब तय हो जाता। और तीनों लोकों में रावणराज होता। परंतु ऐसा हो न सका। लेकिन मै मायावी, यम जिसके वश में कैसे मर सकता हूं? मेरी इच्छा थी पूरी पृथ्वी पर राज करने की तो उस वक्त भी मैंने ऐसा खेला किया की आज कलयुग तक मेरा नाम लिया जाता है। और ,........वह रुका ,अपनी बड़ी बड़ी मूछों में मुस्कराया ,आज मैं हर जगह हूं।
मेरी लंका एक नही कई जगह हैं। आतंकवाद,नक्सलवाद,भ्रष्टाचार,हत्याएं,बलात्कार,संकीर्णता,नस्लभेद,धर्मांधता,भ्रूण हत्या और राजनीति यह दसों सिर मेरे पहले से भी मजबूत और पूरे ब्रह्मांड में नाना रूपों में फैले हैं।" कहते कहते वह क्लीन शेव रूप में बदल गया। फिर वह खुमैनी, पुतिन से लेकर आतंकवादी, किम जोंग चेहरा बदलता अंत में एक मासूम युवक बनकर कठघरे में खड़ा दिखा। फिर उस मंद मुस्काते सौम्य युवक ने अचानक से विकराल रूप लिया और जोर से हंसा। फिर वह गरजा, उसकी आवाज तीनों लोकों में गूंजी ,"आज दशानन, सामने खड़ा है आप सबके और अपने बताए कार्यों की सफाई नही दे रहा बल्कि बता रहा है की उस अपरोक्ष युद्ध में भले ही मैं विजयी नही हुआ परन्तु मैंने अपने सामर्थ्य और आसुरी शक्ति को इतना मज़बूत और फेला दिया की आज हर शहर,गांव ,देशों में रावण हैं और रहेंगे। लेकिन कहीं भी आपके प्रभु नारायण, श्री राम नजर नही आते? कहां हैं वो? मैं तो अमर हूं ,रहूंगा ,हर वक्त, हर काल में ।और अब, .......सबने देखा,उसने पृथ्वी से आकाश तक विकराल स्वरूप कर लिया और दसों सिरों के साथ अट्टहास किया।पूरा ब्रह्मांड दहल गया। विष्णु भगवान ने जज की गरिमा को बड़ी मुश्किल से सहन करते हुए स्वयं को इस पापी को सजा देने से रोका, "रावण, यह मत भूलो तुम कहां और किनके सामने हो। सृष्टि के रचयिता सामने हैं।तुम्हे जो घमंड है उसे हम अभी तोड़ सकते हैं परंतु...."। रावण आगे बढ़कर बोल उठा, "पंरतु तोड़ेंगे नही, नियम से बंधे हो,न्याय करोगे। अरे इन बेकार की बातों को तुम मानते रहो। हम, दशानन के लाखों प्रतिरूप और समर्थक न मानते हैं , न कभी मानेंगे। अपनी मनमानी पूरे विश्व में करते रहेंगे। राम से कह देना इस बार मेरे से मुकाबले के लिए उसे सारी फोज और दिव्यास्त्र भी कम पड़ेंगे। और अब में कभी नही जाऊंगा। रहती दुनिया तक राम भले ही ना मिले लोगों,लेकिन तुम्हे दशानन हर जगह मिलेगा। क्यों न तुम मेरी पूजा,आराधना करो? मैं जल्दी सुन लूंगा। " कहते कहते वह अचानक से गायब हो गया। सातों आसमान पार चल रही खुली कोर्ट में सन्नाटा था ……..।
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_संदीप अवस्थी, चार कथा संग्रह,दो काव्य और आलोचना की पुस्तकें प्रकाशित,देश विदेश से पुरस्कृत।
संपर्क: मो 7737407061,अजमेर राजस्थान, भारत ईमेल: leooriginal2010@gmail.com
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