गुरुवार, 7 सितंबर 2023

कहानी-बोल्टू के हस्का फुस्की और बोल्ट्स-प्रदीप श्रीवास्तव






 यह कहानी आपातकाल के उस भयावह कटु यथार्थ को सामने रख रही है जब सत्ता के मद में चूर तानाशाह ने, दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतान्त्रिक भारत देश में पूरी निर्लज्जता के साथ लोकतंत्र की हत्या की, उसकी क्रूरता ऐसी कि  मानवता कराह उठी, देश स्याह डरावने बादलों से ढंक गया, लेकिन सच यह भी है कि रात जितनी काली होती है, सुबह उतनी ही उजली चमकदार होती है। ऐसी सुबह हुई और हम स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, लेकिन उत्सव के साथ-साथ हमें सतर्क भी रहना है .....           


बोल्टू के हस्का फुस्की और बोल्ट्स

~प्रदीप श्रीवास्तव


मैं कुछ भूलता नहीं ऐसा दावा नहीं कर रहा हूँ। मगर यह दावा पुरज़ोर करता हूँ कि नाममात्र को ही कुछ भूलता हूँ। जैसे बचपन में मैं जिन साथियों के साथ खेलता-कूदता था, पढ़ता-लिखता था उनमें से कुछ ही हैं जो अब याद नहीं रहे या दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डालने, तमाम कड़ियों को जोड़ने पर पूरा याद आते हैं। एक बात और कह दूँ कि बचपन की कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें मैं रिसाइकिल बिन से भी हटा देता हूँ। चाहता हूँ कि वह दिमाग़ की हार्ड ड्राइव से भी पूरी तरह डिलीट हो जाएँ। लेकिन वह नहीं होतीं। किसी ना किसी तरह से ना दिन देखें ना रात किसी भी समय याद आ ही जाती हैं। तब मुझे अपनी स्मरण शक्ति पर बहुत क्रोध आता है कि फ़ालतू की बातों मेरे लिए अप्रिय बातों को भी वह क्यों सँजोए रखने की हठ किए बैठा है।

जैसे कि मैं नहीं चाहता कि मुझे वह होली याद आए जब मैं तेरह वर्ष का था और देश की कट्टर तानाशाही प्रवृत्ति वाली तथाकथित लोकतांत्रिक निर्लज्ज सरकार ने आपातकाल लागू किया हुआ था। देश में अगर कुछ था जो डरा-सहमा पीड़ित नहीं था, अपनी पूरी शान-ओ-शौक़त पूरी ऐंठ पूरी मुस्टंडई के साथ कण-कण में व्याप्त था, तो वह था भय अत्याचारी क्रूर निर्लज्ज तानाशाह का। ऐसा लगता था जैसे हर तरफ़ हर समय हर कोई पशु-पक्षी यहाँ तक कि नदी तालाब तारा पोखरी-पोखरा सभी अपनी प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक चाल ही भूल गए हैं । त्यौहारों की आत्मा ही छिन गई थी। वो रंगहीन-रसहीन हँसी-ख़ुशी उत्साह से मुक्त हो गए थे। लोग त्यौहार भी ऐसे मना रहे थे कि रस्म ही पूरी करनी है। अपशगुन ना होने पाए बस।

यही रस्म अदायगी उस होली को भी हो रही थी। न रंगों में कोई रंग था। ना लोगों में कोई उत्साह। जिस दिन होलिका जलनी थी उस दिन सब कुछ ठीक ही दिख रहा था। अपने भाइयों, चच्चा के साथ मैं भी होलिका में अलैया-बलैया, गोबर के बने बल्ले, गेहूँ की बालियाँ आदि डाल आया था। बाबूजी को दो महीने से वेतन नहीं मिला था। वह ज़िला हॉस्पिटल में फार्मासिस्ट थे। वहीं हमारे एक पट्टीदार कम्पाउण्डर थे। वेतन ना मिलने का मुख्य कारण मतलब कि एकमात्र कारण था कि बाबूजी और पट्टीदार जिन्हें मैं चच्चा कहता था दोनों ही लोगों द्वारा नसबंदी के जितने केस करवाने थे वह दोनों ही लोग नहीं करवा पाए थे।

एड़ी-चोटी का ज़ोर दोनों ही लोगों ने लगाया हुआ था लेकिन बात बन नहीं पा रही थी। इसकी वज़ह से वेतन रुका हुआ था और होली जैसे त्यौहार की बस रस्म ही पूरी की जा रही थी। हमारे संज्ञान में यह पहली होली ऐसी बीत रही थी जिसमें बच्चों सहित किसी के भी नए कपड़े नहीं बने थे। खाने-पीने की चीज़ों में भी भारी कटौती चल रही थी।

ऐसी कड़की, ऐसी स्थिति में चच्चा के घर अगले दिन यानी रंग खेलने वाले दिन विकट विपत्ति आ पड़ी। पूरे गाँव में गहरा सन्नाटा छा गया। चच्चा के ख़िलाफ़ थाने में दूसरे पट्टीदार ने एफ.आई.आर. दर्ज करा दी थी कि चच्चा और उनके लड़कों ने उनके घर का लकड़ी का काफ़ी सामान चोरी करके होलिका में जला दिया है। इसमें बैलगाड़ी का एक पहिया जो की मरम्मत के लिए रखा था और उन लकड़ियों को भी जला दिया जो धन्नियाँ बनवाने हेतु लाए थे।

शिकायत करने पर अपने लड़कों के साथ गाली-गलौज की, जान से मारने की धमकी दी। ऐन त्यौहार के दिन जब दुनिया रंग-गुलाल के बाद खाने-पीने, नए कपड़े पहन कर लोगों से मिलने-जुलने को तैयार हो रही थी तभी पुलिस चच्चा और उनके दो बड़े लड़कों को थाने उठा ले गई। घर वाले हाथ जोड़ते, गिड़गिड़ाते रहे, कहते रहे कि यह पूरी तरह से झूठ है, हमें फँसाने के लिए बेवज़ह झूठी एफ.आई.आर. की गई है। मगर पुलिस ने एक ना सुनी। पास-पड़ोस का कोई भी सामने नहीं आया। सब के सब घरों में दुबके रहे। ऐन त्यौहार के दिन चच्चा के घर रोना-पीटना मच गया। मगर झूठी एफ.आई.आर. करने वाले पट्टीदार के पास कोई भी नहीं पहुँचा कि भाई त्यौहार के दिन ऐसा नाटक क्यों कर रहे हो?

आपातकाल लागू होने के बाद से ही पट्टीदार त्रिनेत्रधारी आग मूत रहा था। वह था तो सत्ताधारी पार्टी के यूथ विंग का स्थानीय स्तर का कोई पदाधिकारी लेकिन अकड़ किसी बड़े लीडर से कम नहीं थी। अपने को वह समानांतर सत्ताधारी युवराज का दाहिना हाथ बताता था। युवराज के साथ खींची अपनी कई फोटो मढ़वा कर घर में लगा रखी थी। अपनी दबंगई से दूसरों की संपत्ति ख़ासतौर से खेत-खलियान बाग-बग़ीचा हथियाना उसका शग़ल बन गया था।

वह अपने इस शग़ल का शिकार चच्चा को नहीं बना पा रहा था तो उन्हें ऐसे फँसा दिया। मगर ईमानदार, सिद्धांत के पक्के चच्चा झुकने वालों में नहीं थे, तो नहीं झुके। वह क्षेत्र में ख़ौफ़ का पर्याय बने त्रिनेत्रधारी की इस चाल के समक्ष भी नहीं झुके। 

ताक़त के मद में चूर तानाशाह की गुलाम बनी व्यवस्था की आँखों में आँखें डाल कर सत्य की लाठी लिए डटे रहे। जल्दी ही पता चला कि उन्हें कई धाराओं में निरुद्ध कर बेटों सहित जेल भेज दिया गया। मगर सत्य की लाठी लेकर सभी के साथ खड़े रहने वाले मेरे चच्चा के साथ कोई नहीं खड़ा हुआ।

मेरे बाबूजी भी खुलकर सामने नहीं आए। बस चुपके-चुपके चच्चा के घर को आर्थिक, अन्य सामानों आदि के ज़रिए हर संभव मदद देते रहे। उन्हें रास्ते बताते रहे कि कैसे इस समस्या से मुक्ति पायी जा सकती है। उनकी मदद के लिए उन्होंने घर के तमाम ख़र्चों में कटौती ही नहीं की बल्कि कई लोगों से पैसा उधार भी लिया। सब कुछ इतनी सावधानी से कर रहे थे कि घर में अम्मा के सिवा किसी को कानों-कान ख़बर तक नहीं थी।

बाबूजी ने चच्चा के घर वालों को तानाशाह के संगठन के एक वास्तविक बड़े पदाधिकारी से संपर्क साधने का भी रास्ता बताया। इससे फ़ायदा यह हुआ कि वहाँ से त्रिनेत्रधारी पर दबाव बनाया जा सका। इससे वह चच्चा के शेष बचे घर वालों को और खुलकर परेशान नहीं कर पा रहा था। लेकिन यह सब होते-होते इतना समय निकल चुका था कि एक दिन सूचना मिली कि चच्चा ने जेल की कोठरी में ही अपने पाजामे से फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट और जेल वालों ने जिस प्रकार आत्महत्या करना बताया वह किसी के गले नहीं उतर रहा था। हर कोई हतप्रभ था कि यह पूरी तरह निराधार और झूठ है। जेल की कोठरी में अपने पहने हुए पाजामे से, दरवाज़े के सींखचों में कोई फाँसी पर कैसे झूल सकता है, और यह कि जेल में इतने क़ैदियों, स्टॉफ़ में से कोई उन्हें यह सब करते देख नहीं पाया।

यह सब सच नहीं है। यह पुलिस द्वारा बेतुकी गढ़ी हुई कहानी है। मगर हर कोई विवश था पुलिस की इस मनगढ़ंत कहानी के आगे। जिसके बारे में कोई कुछ भी नहीं बोल सकता था। कुछ महीने बाद यह पता चला कि त्रिनेत्रधारी की लिखी कहानी को पुलिस ने यथार्थ में परिवर्तित किया था। चच्चा का शव मृत्यु के तीसरे दिन गाँव पहुँचा था। क़ानूनी पचड़ों के ज़रिए जितनी देर की जा सकती थी वह की गई थी। इतनी देरी के कारण पार्थिव शरीर के आते ही उसका दो घंटे में ही अंतिम संस्कार कर दिया गया।

चाची यह सब देखकर इतना बेसुध हो गईं थीं कि उनके ना आँसू निकल रहे थे, ना ही वह रो रही थीं। मूर्तिवत सब कुछ होता देख रही थीं। चच्चा के जेल में बंद दोनों लड़के अंतिम संस्कार के दिन दो घंटे के लिए आए थे। यह कोर्ट के आदेश के बाद हो पाया था। इसमें बड़ा रोल मेरे बाबूजी का था। तेरहवीं के दिन दोनों लड़के नहीं आ सके। इसके लिए भी बाबूजी ने बहुत कोशिश की थी लेकिन यह संभव नहीं हो पाया।

चच्चा के तीन छोटे भाइयों और उनके तीन छोटे बेटों ने तेरहवीं की रस्म पूरी की। यह संयोग ही कहा जाएगा कि ठीक उसी दिन देश का मनहूस काला अध्याय समाप्त किए जाने की घोषणा हुई। मानो चच्चा अपना बलिदान देकर देश भर से मनहूस काली छाया हटा गए थे। मगर उनके जाने से घर पर पड़ी काली छाया गहराने लगी थी।

घर का ख़र्च कैसे चलेगा यह समस्या सुरसा के मुँह की तरह विकराल होती जा रही थी। चच्चा के भाई ज़्यादा लंबे समय तक मदद के लिए तैयार नहीं थे। क्योंकि वे अपने परिवार के हिस्से का ज़्यादा हिस्सा अपने भाई के परिवार पर ख़र्च नहीं करना चाहते थे। अंततः कुछ ही महीनों में चाची अपने तीन छोटे बच्चों के साथ एकदम अकेली पड़ गईं। बाबू जी अभी भी भीतर ही भीतर मदद किए जा रहे थे। मगर उनकी भी एक सीमा थी, उससे आगे वह भी नहीं जा सकते थे। फिर भी उनके बच्चों की पढ़ाई का ख़र्च उठाते रहे। चाची को भी अम्मा के ज़रिए समझा-बुझाकर तैयार किया कि नाव मझदार से आप ही को निकालनी है। बाक़ी हम लोग मदद के लिए आसपास बने रहेंगे। इसलिए नाव का चप्पू आपको अपने हाथ में थामना ही होगा। जो आपको तब-तक चलाते रहना है जब-तक कि बच्चे चप्पू अपने हाथ में लेने लायक़ ना बन जाएँ।

समझदार चाची को बाबू जी की बातों से बल मिला, हिम्मत की और उठ खड़ी हुईं। चाची को चच्चा की जगह नौकरी दिलाने की बात आई लेकिन कुछ तकनीकी समस्याओं के चलते यह संभव नहीं हो पाया। चाची जल्दी ही पास में ही क़स्बे की बाज़ार में एक किराने की दुकान चलाने लगीं। तीनों लड़के भी स्कूल के बाद उन्हीं के पास दुकान पर रहते। हाथ बँटाते।

बहुत ही कम समय में चाची कुशलतापूर्वक नाव खेने लगी थीं और देश ने भी आज़ादी के बाद सबसे काले दिनों आपातकाल के थोड़े दिनों पश्चात ही अधिनायकवादी सोच की नेतृत्वकर्ता की सत्ता को उखाड़ फेंका था। वास्तविक लोकतांत्रिक लोगों के हाथों में सत्ता सौंप दी थी। 

अब त्रिनेत्रधारी पांडे भागा-भागा फिरने लगा। चच्चा के घर वालों ने तो तुरंत कुछ नहीं किया। लेकिन उससे त्रस्त कई और लोगों ने अपना हिसाब बराबर करना शुरू कर दिया था। परिणामस्वरूप उस पर एक के बाद एक कई केस दर्ज हो गए। अंततः वह जेल पहुँच गया।

समय बीतता रहा। चाची नाव खेती रहीं। लड़के दुकान में हाथ बँटाते रहे, पढ़ते रहे। मगर तीसरे लड़के ने रंग बदलना शुरू कर दिया। उसे गुंडई-बदमाशी रास आने लगी। इतनी की पढ़ाई-लिखाई पिछड़ती चली गई और गुंडई बढ़ती गई। अपने रंग-ढंग से उसने घर के भी रंग-ढंग बदलने शुरू कर दिए। मैं और वह एक ही क्लास में पढ़ते थे। स्कूल और बाहर भी मुझे उसका साथ भाने लगा था। बाबूजी-अम्मा जी की नज़रों से यह बात छुपी नहीं रही। वह चिंता में पड़ गए। मगर मुझसे कुछ नहीं कह रहे थे। मैं पूरी तरह ख़ुद को आज़ाद समझ रहा था।

हाईस्कूल में मैं तो किसी तरह खींचतान के पास हो गया। मगर वह फ़ेल हो गया। ज़बरदस्त ढंग से सभी सब्जेक्ट में फ़ेल था। किसी विषय में उसका सबसे ज़्यादा नंबर इतिहास में था। सौ में नौ नंबर। 

मैथ में शून्य। कुल टोटल छः सौ में तैंतीस नंबर थे। मैंने जब उससे कहा कि, ‘लिख तो मेरे जितना तुम भी रहे थे, फिर सारे नंबर कहाँ चले गए?’ तो वह हंसता हुआ एग्ज़ामिनिरों को अंड-बंड बोलने लगा।

कहा, ‘इतने अच्छे-अच्छे गानों से पूरी की पूरी कॉपी भर देता था कि कॉपी जाँचते-जाँचते थक जाएँगे तो गानों से उनका मनोरंजन हो जाएगा।

 उनकी थकान उतर जाएगी और मुझे पुरे नंबर दे देंगे। मगर...।’ फिर वह अंड-बंड बकने लगा। टीचरों, एग्ज़ामिनिरों को कही जा रही ऊल-जुलूल बातें मुझे अखर रही थीं, और मेरे नंबर बाबूजी, अम्मा जी को इतने अखरे कि आगे की पढ़ाई के लिए मुझे दिल्ली भेज दिया। चच्चा के यहाँ।

इतना ही नहीं अगले कई साल तक होली, दिवाली जैसे त्यौहारों पर मेरे सारे भाई-बहनों के साथ दिल्ली आ जाते। जिससे मेरे गाँव जाने की सारी संभावनाएँ ख़त्म हो जातीं। कई बार तो ऐसा हुआ कि मैं तैयारी किए बैठा रहा कि गाँव चलूँगा, चच्चा भी कहते हाँ चलना है। मगर चलने के समय सब वहीं पहुँच जाते। चच्चा, बाबूजी, अम्मा सब मिले हुए थे। उस समय उन सब पर बड़ा ग़ुस्सा आता था। गाँव का हाल पूछने पर एक ही जवाब मिलता कि, ‘क्या रखा है गाँव में? वही धूल-माटी, कीचड़-गोबर। हम लोग ख़ुद ही ऊबकर अब बार-बार यहाँ आ जाते हैं।’

अम्मा चच्चा की तरफ़ देखती हुई कहतीं, ‘तुम्हारे बाबूजी की नौकरी भी चच्चा की तरह यहीं होती तो हम गाँव लौटकर जाते ही नहीं।’ तब समझ नहीं पाता था कि अम्मा-बाबूजी मेरे भले के लिए ही यह सब कुछ कर रहे थे। उस समय जो ग़ुस्सा आता था आज जब सोचता हूँ तो श्रद्धा से सिर बाबू जी, अम्मा जी, चच्चा, चाची जी सभी के चरणों में झुक जाता है। गाँव से आने के दस साल बाद मैं गाँव तब पहुँचा जब भारतीय वायुसेना में बतौर फ़ाइटर जेट पायलट मेरा चयन हो गया और प्रशिक्षण पर जाने से पहले बाबूजी ने मुझे फोन करके दो दिन के लिए गाँव बुलाया था। साथ में मेरे दोनों चचेरे भाइयों को भी।

ट्रेन लेट होने के कारण गाँव पहुँचने में हमें काफ़ी देर हो गई। हम बहुत देर रात में घर पहुँचे। सब हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। अम्मा-बाबूजी, भाई-बहन सब। अम्मा, बहन ने खाने-पीने की इतनी चीज़ें बनाई थीं, तैयारी घर में ऐसे की गई थी मानो शादी-ब्याह का घर हो। मैंने सबसे पहले अम्मा के पैर छुए तो उन्होंने गले से लगा लिया। अपनी बाँहों में भर लिया। मारे ख़ुशी के उनके आँसुओं की धारा बह चली थी। दोनों हाथों में मेरा चेहरा लेकर बार-बार माथे को चूमा। मुझे गले लगाया, रोती हुई बोलीं, ‘मेरा लाल, बेटा मैंने कैसे पत्थर बनकर तुझे इतने सालों तक यहाँ से दूर रखा बता नहीं सकती।’

रोते हुए अम्मा बोले जा रही थीं, उनके शब्द स्पष्ट नहीं निकल रहे थे। तभी बाबूजी भी बोले, ‘अरे इतना थका हुआ है, बैठने दो पहले इन सबको’ बाबू जी की आवाज़ भी बहुत भरी हुई थी। जैसे कि बस अब रो ही देंगे। असल में एक बाप तड़प रहा था अपने बेटे से मिलने के लिए। उनकी भावना समझते ही मैंने एक हाथ से उनको भी गले लगा लिया था।

मेरे लिए उस पल से ज़्यादा अनमोल शायद ही कोई दूसरा क्षण होगा। पूरा वातावरण इतना भावुक हो गया था कि बहन भी भैया बोलते हुए आ लगी गले से। मैंने उसे भी अपनी बाँहों के घेरे में ले लिया था। मेरी भी आँखें बरस रही थीं। बड़ी देर बाद हम अलग हुए। बाक़ी सभी भाइयों से मिला, वे भी भावुक थे। अम्मा साथ आए दोनों चचेरे भाइयों से भी मिलीं। उन्हें भी गले लगाया, आशीर्वाद दिया। बड़ी देर रात तक खाना-पीना, हँसना-बोलना, चलता रहा। सबसे ज़्यादा बातें मेरी पढ़ाई-लिखाई, एयरफ़ोर्स में मेरे सिलेक्शन को लेकर होती रहीं।

पूरा घर एक पेट्रोमैक्स, कई लालटेन के सहारे चमक रहा था। पूरे घर की रंगाई-पुताई से लेकर एक-एक चीज़ चमकाई गई थी। बहुत सी चीज़ें नई ख़रीदी गई थीं। मैं अपने लिए घर का ऐसा लगाव देखकर अभिभूत हो रहा था। कई कमरों में सभी के सोने के लिए अलग-अलग इंतज़ाम किया गया था। लेकिन सोने के समय बहन बोली, ‘बरोठे में सब एक साथ सोते हैं। सब ने बातें कर लीं, मैं तो बात कर ही नहीं पाई हूँ।’

वह सही कह रही थी। अम्मा का हाथ बँटाने में ही उसका सारा समय निकल गया था। उसके बोलते ही बाक़ी भाइयों ने भी हाँ कर दी तो एक साथ बरोठे में ही ज़मीन पर ही बिस्तर लगाया गया। क्योंकि वहाँ एक साथ सभी के लिए चारपाइयाँ नहीं पड़ सकती थीं। लेटे-लेटे ही सब बतिया रहे थे। बतियाते-बतियाते ही सब एक-एक कर सोते चले गए। मैं आख़िर तक जागता रहा। मैं थका था, आँखों में नींद भी बहुत थी लेकिन मैं सो नहीं पा रहा था।

एक ही बात बार-बार दिमाग़ में गूँज रही थी कि इतने सालों बाद आया हूँ, गाँव के संगी-साथी कैसे हैं? यह भी अभी तक नहीं देख पाया हूँ। परसों सुबह फिर चले जाना है। पता नहीं फिर कब वापसी होगी। मेरा मन बार-बार चच्चा के घर चला जा रहा था, कि पता नहीं उनके यहाँ सब कैसे हैं? चाची कैसी हैं? और उनका बेटा, मेरा सहपाठी, वह कैसा है? जेल में बंद उसके दोनों भाई छूटे कि नहीं। घर में तो गाँव के बारे में कोई कुछ बात ही नहीं करता था। बहुत पूछने पर ही बाबू जी कभी-कभी कुछ-कुछ बताते थे। बाबूजी ने तो उसकी ख़ुराफ़ातों के कारण उसका नाम ही “मुतफन्नी” रखा हुआ था। वहाँ पहुँचने पर इतनी सारी बातें दिल्ली, मेरी एयरफ़ोर्स की नौकरी की होती रही थीं कि गाँव का नंबर ही नहीं आया।

अगले दिन सवेरे ही मैं भाइयों के साथ गाँव देखने, सब से मिलने निकल लिया। निकलते वक़्त अम्मा ने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया था कि मैं किसी को यह भूल कर भी नहीं बताऊँगा कि मैं एयरफ़ोर्स में भर्ती हो गया हूँ। और भी कुछ ज़्यादा बातें करने से मना किया। उन्हें इससे मेरा अनिष्ट होने की आशंका सता रही थी।

मैं चच्चा के यहाँ पहुँचा तो चाची दरवाज़े पर ही बैठी मिलीं। उनके पैर छुए लेकिन वह पहचान नहीं सकीं। बताया तो ख़ूब आशीर्वाद दिया। उनके ही पीछे एक और महिला खड़ी थी जो हम लोगों के पहुँचते ही भीतर चली गई। मैंने अपने सहपाठी के बारे में पूछा तो चाची ने कहा, ‘बाज़ार में होगा दुकान पर।’ बाज़ार में हमने अपने सहपाठी इंद्रेश की दुकान पूछी तो जिनसे पूछा था वह कुछ लटपटाए। तब हमने चच्चा का नाम लिया, उनका नाम पूरा होने से पहले ही वह बोले, ‘अरे बोल्टुआ के पूछ रहे हो। ऊहे तो बा ओकर दुकनियाँ।’

उन्होंने पचास-साठ क़दम आगे एक दुकान की ओर हाथ दिखाते हुए कहा। हम वहाँ पहुँचे, वह चाय-समोसा, मिठाई की दुकान थी। सामने भट्टी पर कढ़ाई में तेल गर्म हो रहा था। उसके बगल में छोटी भट्टी में चाय की बड़ी सी केतली चढ़ी थी। भट्टी के दूसरी तरफ़ एक सोलह-सत्रह साल का लड़का उबले हुए आलू छील रहा था। मैं उससे पूछने ही वाला था कि नज़र उसके पीछे तखत पर बैठे एक औसत क़द के लेकिन मज़बूत जिस्म वाले व्यक्ति पर पड़ी। मैं देखते ही पहचान गया। मैंने जैसे ही आवाज़ दी ‘इंद्रेश।’ क्षण भर देखते ही वह भी पहचान गया।

ख़ुश होता हुआ बोला, ‘अरे तू, आवा अंदरवां आवा ना।’ कहते हुए वह उठा और मेरे पास आया। हमने उसे गले लगाकर कहा, ‘अरे तू तो बड़का सेठ हो गए हो।’ वह बोला, ‘अरे काहे का सेठ, ऐसे ही चाय-पानी चलता रहता है। आवा अंदर, आवा।’ हमें और हमारे साथ आए चचेरे भाइयों को तखत पर बैठाया। ख़ुद ग्राहकों के लिए पड़ी बेंच खींचकर उस पर बैठ गया। भट्टी के पास बैठे लड़के को चाय बनाने के लिए कहकर बतियाने लगा।

बड़ी देर तक चाय-नाश्ता, हमारी बातें होती रहीं। वह अपनी कम मेरी ज़्यादा पूछ रहा था। दिल्ली, पढ़ाई-लिखाई, इतने दिन आए क्यों नहीं? वह हँस-हँस कर अपनी एक से बढ़कर एक ख़ुराफ़ात भी बताता रहा कि इतने दिनों में कैसे त्रिनेत्रधारी से एक-एक कर बदला लिया। कैसे उसे भरे बाज़ार में मारा-पीटा। उसके लड़के को आए दिन इतना मारा-पीटा कि उसकी पढ़ाई छूट गई। त्रिनेत्रधारी ने उबकर लड़के को किसी रिश्तेदार के यहाँ भेज दिया।

त्रिनेत्र से मुक़ाबले के लिए उसने राजनीतिक पार्टी ज्वाइन कर रखी है। यह होटल भी त्रिनेत्र की ही ज़मीन कब्ज़ा करके बनाया है। मैंने उससे उसके भाइयों के बारे में पूछा तो उसने बताया कि, 'बड़के दोनों भईया जेल से छूटने के बाद यहाँ ज़्यादा दिन रुके नहीं, मुम्बई चल गए। वही काम-धंधा जमाए हैं। पढ़ाई-लिखाई तो दोनों जने की खत्मे हो गई थी। एक जने आगे खाद-बीज का धंधा जमाए हैं।' सबसे छोटे के बारे में उसने बड़े गर्व से बताया कि, 'वह एक हत्या के मामले में जेल में बंद है।' मैं हैरान था कि ग़लत काम को भी यह कैसे गर्व का विषय समझ रहा है। मुझे लगा कि मैं उसकी बातों से ऊब रहा हूँ। भाइयों के चेहरों पर भी कुछ ऐसा ही भाव दिख रहा था। मैंने बात बदलने की गरज से पूछा, ‘तुमने यह दुकान का नाम कैसा रखा है “बोल्टू हस्का-फुस्की मिठाई वाला।” पूछते ही वह ज़ोर से हँसा, फिर लंबी कहानी बता डाली, बोला कि, ‘तुम्हारे जाने के बाद गाँव के ही लड़कों ने बोल्टू कहना शुरू कर दिया था। कबड्डी खेलते वक़्त मैं जिसे पकड़ लेता था वह छूट नहीं पाता था। सब कहते बोल्ट टाइट हो गया है, छूट नहीं सकता। फिर बोल्ट से बोल्टू हो गया।’

मैंने तुरंत पूछा और हस्का-फुस्की तो वह फिर हँसकर बोला, ‘यह दोनों मेरे लड़कों के नाम हैं।’ उसने तर्क दिया कि, ‘मैं ऐसा नाम रखना चाहता था अपने जुड़वा बेटों का जो किसी और का हो ही नहीं, और साथ ही कोई उसके बेटों के नाम की नक़ल भी ना करना चाहे तो मुझे यही नाम सूझा। दुकान का नाम अपना, बेटों का नाम मिला कर रखा है। दावे से कहता हूँ कि कोई भी इस नाम की नक़ल नहीं करेगा।’ मैं उसकी बातों उसके कामों से बहुत निराश हुआ। किसी तरह बात ख़त्म कर के उससे विदा ली। मैंने पूरा प्रयास किया कि मेरे भाव को वह समझ ना सके।

इसके बाद गाँव, खेत, बाग़ घूम-घाम कर घर वापस चल दिया। बार-बार अम्मा, बाबूजी को प्रणाम करता हुआ कि उन्होंने कितना सही निर्णय लिया था मुझे यहाँ से हटाने का। नहीं तो मैं भी यहीं कहीं बोल्टू हस्का-फुस्की दुकान खोले चाय बेच रहा होता। घर पर खाने-पीने के बाद मैंने भाई-बहनों की पढ़ाई-लिखाई चेक की तो वह मुझे संतोषजनक नहीं लगी। मैंने बाबूजी-अम्माजी से उनकी आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली भेजने को कहा और वापस आ गया। दोबारा मेरा गाँव जाने का मन नहीं होता था। नौकरी भी ऐसी मिली थी कि फ़ुर्सत ही नहीं। हालात भी ऐसे बने कि हम सब भाई-बहनों का शादी-ब्याह सब कुछ दिल्ली में ही संपन्न हुआ।

समय बीतता गया लेकिन बोल्टू हस्का-फुस्की मेरे दिमाग़ से नहीं निकला। रिटायरमेंट के बाद बाबूजी भी हम लोगों के साथ दिल्ली में बस गए। मैं ख़ुद भी रिटायरमेंट के क़रीब पहुँच रहा हूँ। पर यह अभी भी दिमाग़ में है। इसे ढोते हुए एक दिन मैं विशाखापट्टनम से आकर एयरपोर्ट पर उतरा। मेरे बेटा-बेटी मुझे लेने आए थे। मैं कार में पीछे बैठा अपने एक कुलीग से मोबाइल पर बातें कर रहा था। घर रोहिणी पहुँचने से कुछ पहले ही एक बिल्डिंग के सेकेंड फ़्लोर पर बड़ा सा बोर्ड लगा देखा। जिस पर लिखा था, ‘बोल्ट्स जिम’। जिसे पढ़ते ही मेरे दिमाग़ में सेकेंड भर में न जाने कितनी तस्वीरें घूम गईं।

मैं गाड़ी बैक करवा कर वापस गया। बच्चों को गाड़ी में ही रुकने के लिए बोलकर ऊपर पहुँचा। मेरा अंदेशा बिल्कुल सही था। बोल्ट्स जिम का मालिक बोल्टू ही निकला। जिम क्या पूरी बिल्डिंग का मालिक वही था। हमें एक दूसरे को पहचानने में समय नहीं लगा। फिर गले मिले। तीस साल बाद। बोल्टू ने अपने बेटे को भेजकर मेरे बच्चों को भी ऊपर बुलवाया। ख़ूब ख़ातिरदारी की।

मैं बच्चों को नहीं मिलवाना चाहता था। लेकिन बात मुँह से निकल चुकी थी। आधे घंटे की मुलाक़ात में बोल्टू ने जो कुछ कहा वह मेरे लिए आश्चर्यजनक था। उसने बताया कि, ‘अपनी राजनीति मैंने ऐसी चमकाई कि मैं यहाँ हूँ, मर्डर केस में जेल में बंद भाई सज़ा काट कर लौटा तो दोनों भाइयों ने मिलकर यह पा लिया। गाँव में भी खेत-बाग़, मकान, गाड़ी सब कुछ है। पहले से सैकड़ों गुना ज़्यादा संपत्ति गाँव और शहर में बना ली है। यह बिल्डिंग ही पचास करोड़ से ऊपर की है। भाई दो-दो बार ब्लॉक प्रमुख रह चुका है। एक बार विधायक भी। मैं पिछली बार एमपी का चुनाव लड़ा लेकिन थोड़े से अंतर से दूसरे नंबर पर रहा। इस बार मेरा दाँव सफल रहा तो पार्टी मुझे राज्यसभा ज़रूर भेजेगी।’ चलते समय जब मैं कार में बैठ गया था तब अचानक ही चाची के बारे में पूछने पर बोल्टू ने कहा था कि, ‘कुछ साल पहले उनकी डेथ हो गई। वह भी यहीं रहती थीं।’

रास्ते भर मैं सोचता रहा कि बाबूजी-अम्मा जी का मुझे गाँव से पढ़ने के लिए दिल्ली भेजने का निर्णय सही था या ग़लत। और मैंने भाई-बहनों को आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली बुलाकर सही किया था कि ग़लत। हालाँकि सभी सरकारी नौकरी कर रहे हैं। सभी क्लास वन अफ़सर हैं।

घर पहुँच कर मैंने अम्मा-बाबूजी के पैर छू कर फिर आशीर्वाद लिया था। मैं घर से बाहर जाने-आने पर यह ज़रूर करता हूँ। उनके चरणों में मुझे सारी दुनिया ही नज़र आती है यह नहीं कहूँगा, बल्कि मैं यह कहता हूँ, समझता हूँ, अहसास करता हूँ कि मुझे तीनों लोकों की ख़ुशियाँ मिल जाती हैं। उस दिन भी चरण छूकर मुझे मेरे कन्फ्यूज़न का तुरंत उत्तर मिल गया था कि बाबूजी अम्मा जी और मैंने एकदम सही निर्णय लिया था।

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प्रदीप श्रीवास्तव      

जन्म : लखनऊ में जुलाई, १९७०

प्रकाशन :

उपन्यास–

'मन्नू की वह एक रात' - पहला संस्करण अप्रैल, २०१३ में (प्रिंट), दूसरा संस्करण (ई) सितम्बर, २०१३ में पुस्तक डॉट ऑर्ग अमेरिका से, तीसरा संस्करण दिसंबर, २०१६ में पुस्तक बाज़ार डॉट कॉम कैनेडा से, चौथा संस्करण मातृभारती डॉट कॉम गुजरात से प्रकाशित)

'बेनज़ीर- दरिया किनारे' का ख़्वाब- २०१९ में पहला संस्करण पुस्तक बाज़ार डॉट कॉम कैनेडा से, इसी वर्ष दूसरा संस्करण मातृभारती डॉट कॉम गुजरात, भारत से, तीसरा संस्करण (प्रिंट) प्रकाशनाधीन    

'वह अब भी वहीं है' २०२० में पहला संस्करण पुस्तक बाज़ार डॉट कॉम कैनेडा से, इसी वर्ष दूसरा संस्करण मातृभारती डॉट कॉम गुजरात से.

'अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं'  पहला संस्करण २०२२ में मातृभारती डॉट कॉम गुजरात से, दूसरा संस्करण पुस्तक बाज़ार डॉट कॉम कैनेडा से प्रकाशनाधीन.   

कहानी संग्रह–

'मेरी जनहित याचिका'

'हार गया फौजी बेटा'

'औघड़ का दान'

'नक्सली राजा का बाजा', पहला संस्करण कैनेडा से दूसरा भारत से. ('शब्द निष्ठा पुरस्कार-२०२३' से पुरस्कृत पुस्तक।')

'मेरा आखिरी आशियाना'

'मेरे बाबू जी'

'प्रोफ़ेसर तरंगिता'

'' टेढ़ा जूता ''  कहानी  RVS COLLEGE OF ARTS AND SCIENCE (AUTONOMOUS)

SULUR, COIMBATORE – 641 402. के पाठ्यक्रम में सम्मिलित 

कथा संचयन-

मेरी कहानियाँ : खंड-एक जून २०२२ में कैनेडा से प्रकाशित

(एक हज़ार सात सौ तीन पृष्ठों में पचीस लम्बी कहानियां)

मेरी कहानियाँ : खंड-दो, प्रकाशनाधीन 

(दो हज़ार से अधिक पृष्ठों में बत्तीस लम्बी कहानियां)

 - मातृभारती डॉट कॉम पर मेरी पुस्तकों की डाऊनलोड संख्या करीब पांच लाख और व्यूज की संख्या १.२ मिलियन से अधिक हो रही है.  

नाटक– 'खंडित संवाद के बाद', कहानी एवं पुस्तक समीक्षाएँ, साक्षात्कार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित

संपादन-  'हर रोज़ सुबह होती है' (काव्य संग्रह) एवं वर्ण व्यवस्था पुस्तक का संपादन.

पुरस्कार- ‘मातृभारती रीडर्स च्वाइस अवॉर्ड’ -२०२०, विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में प्रदान किया गया. 

‘उत्तर प्रदेश साहित्य गौरव सम्मान’-२०२२, बरेली, उत्तर प्रदेश में प्रदान किया गया.

डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव स्मृति 'कहानी सम्राट सम्मान'-२०२३, हिंदी संस्थान, लखनऊ, उत्तर प्रदेश में प्रदान किया गया.  

'शब्द निष्ठा पुरस्कार'-२०२३ अजमेर, राजस्थान में प्रदान किया गया.  

सम्पर्क : pradeepsrivastava.70@gmail.com, psts700@gmail.com       

ब्लॉग: https://tatsamtadbhav.blogspot.com/  ,    मो.नं. 8299756474

मेरी कहानियों को यू ट्यूब चैनल kahanitime pradeep पर सुना जा सकता है.




कहानी- रूबिका के दायरे-प्रदीप श्रीवास्तव






 कहानी रूबिका के दायरे

-प्रदीप श्रीवास्तव


“यह तो चाँस की बात थी कि शाहीन बाग़ साज़िश में हम-दोनों जेल जाने से बच गई और टाइम रहते अबॉर्शन करवा लिया, नहीं तो हम भी आज आरफा जरगर की तरह किसी अनाम बाप के बच्चे को लेकर दुनिया से मुँह छुपाती फिर रही होती। आज कौन है जो आरफा को मदद कर रहा है। मदद के नाम पर भी उस बेचारी को अपनों ने ही ठगा।

कहने को वह ख़ानदान का ही लड़का था, बड़े तपाक से सामने आया कि बच्चे को मैं दूँगा अपना नाम। झट से निकाह कर लिया, साल भर यूज़ किया, उसके प्रेग्नेंट होते ही व्हाट्सएप पर तलाक़ देकर भाग  गया धोखेबाज़। ये तो अच्छा हुआ कि उसने बिना किसी हिचक ज़रा भी देर नहीं की और तुरंत ही प्रेग्नेंसी अबॉर्ट करवा दी नहीं तो एक और बच्चे को ढो रही होती। पहले बेवक़ूफ़ी, फिर धोखे से मिले ज़ख़्म से उसके ऊपर क्या बीत रही है, कौन जाकर उससे कभी पूछता है।

मैंने तो उसी समय ऐसे फ़ालतू और पूरी तरह से ग़लत कामों से तौबा कर ली थी हमेशा के लिए, जब उसे जेल की सलाखों से सिर टकराते, मजबूर, आँसुओं से जेल की कोठरी भिगोते देखा था। जल्दी ही लॉकडाउन के चलते उससे मुलाक़ात बंद हो गई। लेकिन जो बातें सुनती थी, उससे मेरा दिल दहल उठता था।

यह सोचकर ही मैं पसीने से भीग जाती थी कि दिन-भर घूमने-फिरने, लाइफ़ एन्जॉय करने वाली आरफा कैसी बेचैनी, तकलीफ़ महसूस कर रही होगी, अपने पेट में एक ऐसे बच्चे को बढ़ते हुए महसूस करके, जिसका वालिद कौन है, ख़ुद उसे भी पता नहीं है।

इसलिए महबूबा मुझे तो माफ़ करो, मैं अब किसी आंदोलन-फान्दोलन के चक्कर में अपने को फँसाने वाली नहीं। इन्हीं बेवुक़ूफ़ियों की वजह से पहले ही अपना कैरियर, अपना जीवन तबाह कर लिया है, अब जो थोड़ा बहुत बचा है, उसमें भी आग लगाने के लिए मैं तैयार नहीं हूँ।

 इसलिए अब ऐसी किसी बात के लिए मुझसे कोई उम्मीद नहीं रखो, मैं यह सब बिल्कुल भी करने वाली नहीं।”

रूबिका की बातों ने महबूबा को झकझोर ही नहीं दिया, बल्कि जनवरी की कड़ाके की ठण्ड में भी कमरे का माहौल एकदम से गरमा दिया।

 महबूबा आश्चर्य-मिश्रित बड़ी-बड़ी आँखों से उसकी आँखों में देखती हुई बोली, “रुबिका तुम्हें क्या हो गया है? तुम यह क्या कह रही हो? यह कोई आंदोलन-फान्दोलन नहीं बल्कि अपने मज़हब, क़ौम की भलाई की बात है, क़ौम के साथ हो रहे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़े होने की बात है, हम अगर अपने मज़हब, क़ौम के साथ नहीं खड़े होंगे, तो इससे बड़ा गुनाह और कुछ नहीं होगा। हम तो मुसलमान हैं, हमें इस तरह तो ख़्वाबों में भी नहीं सोचना चाहिए।

“आरफा के साथ तो बस बदक़िस्मती से यह सब हो गया, नहीं तो जैसे तुम और हम बच गए थे, वैसे ही वह भी बच गई थी। बाद में पुलिस ने पता नहीं कहाँ से सब पता कर लिया और उसे पकड़ ले गई। बदक़िस्मती उसकी यह भी रही कि उसी समय लॉक-डाउन लग गया, सारी क़ानूनी कार्रवाइयाँ ठप पड़ गईं, नहीं तो ज़मानत मिल जाती या अबॉर्शन के लिए ही टाइम दे दिया जाता।

“इसलिए किसी एक घटना को लेकर अपना नज़रिया ऐसे नहीं बदलना चाहिए। चाहे जो भी हो जाए, हमें आँख मूँद कर अपने मज़हब, अपनी क़ौम के लिए हमेशा ही खड़े रहना चाहिए, किसी तरह के सवालात करने क्या उस बारे में सोचना भी नहीं चाहिए।

“फिर प्रेग्नेंसी की प्रॉब्लम तो हमारी ही बेवुक़ूफ़ियों के चलते हुई थी। हमीं लोग आंदोलन की आवाज़ बुलंद करने के साथ-साथ वहाँ हॉस्टल वाली एन्जॉयमेंट के फेर में पड़ गए थे। आंदोलन में भीड़ बनी रहे इसके लिए वहाँ शराब, ड्रग्स, सेक्स, पैसा हर तरह की व्यवस्था थी ही, हमीं लोग जोश में होश खोती रही, उसी व्यवस्था का हिस्सा बनती गई, ऐसे में जो हो सकता है, हमारे साथ वही हुआ। ज़िम्मेदार हमीं हैं।”

“जो भी हो महबूबा, मैंने तौबा कर ली है, तो कर ली। इसलिए मुझसे कुछ नहीं कहो, ठीक है।”

“रूबिका पहले बात तो पूरी सुनो, प्रोफ़ेसर सईद ने कल ही अपने घर पर मीटिंग में कहा है कि ‘जैसे भी हो हमें हमेशा की तरह एकजुट होकर अपने लिए, क़ौम के लिए हर हाल में आगे आना होगा। जैसे हमने ऐन‍आरसी, सीए‍ए मामलों में सरकार की ईंट से ईंट बजा दी थी, वैसे ही हल्द्वानी के अपने भाइयों के लिए भी अपनी ताक़त दिखानी ही होगी।

‘ये माना कि हमारे ऑर्गनाइज़ेशन को देश-द्रोही गतिविधियों के आरोप में बैन कर दिया गया है, मेन लोग जेल में हैं। लेकिन बाक़ी सारे लोग तो बाहर हैं, आज़ाद हैं। स्कूल, कॉलेज, ऑफ़िसों सहित बाक़ी जिस भी जगह, जो जहाँ है, वो वहाँ से ही अपना काम करता रहे।’ रुबिका उन्होंने सभी से दरख्वास्त की है कि सभी लोग जहाँ भी हैं, जैसे भी हैं, इकट्ठा हों और हल्द्वानी के भाइयों के लिए सड़कों पर उतरें।”

“देखो महबूबा मुझे हक़ीक़त देखने, समझने की समझ तो है ही और सब-कुछ समझते हुए भी, यदि हम अनदेखी करते हुए काम करेंगे न, तो आरफा से भी ज़्यादा मुसीबत में पड़ जाएँगे। हमें इस मुग़ालते से बाहर आ जाना चाहिए कि सीए‍ए, ऐन‍आरसी आदि मामलों में हमने सरकार की ईंट से ईंट बजा दी थी।

“वास्तव में सरकार ने जिसे हम शाहीन बाग़ मूवमेंट कहते हैं, उसे अपनी रणनीति से अपने पक्ष में यूज़ कर लिया और हम ख़ुद ही अपनी पीठ ठोक-ठोक कर ख़ुश होते चले आ रहे हैं। सरकार ने जानबूझ कर हमें वहाँ से हटाने की कोशिश नहीं की।

 हमें इतना लम्बा रास्ता देती गई कि हम ठीक से समझे बिना चलते गए और फिर थक कर पस्त हो गए, बैठ गए। ऐसा माहौल बन गया कि उसके बाद हो रहे चुनाव दर चुनाव वह जीतती ही जा रही है। वह काम वही कर रही है, जो वह करना चाहती है।

“हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि जिस देश में रहते हैं, वहाँ के नियम-क़ायदे तो मानने ही पड़ेंगे। यह कब-तक मज़हब और क़ौम के नाम पर कुछ लोगों के हाथों की कठपुतली बने, भटकते हुए, अपने ही हाथों अपने जीवन में आग लगाते रहेंगे।

“तुम यह क्यों नहीं सोचती कि हम लोग यदि बहकावे में आकर एकदम लास्ट स्टेज में चल रही अपनी पढ़ाई छोड़-छाड़ कर शाहीन बाग़ साज़िश से नहीं जुड़ते तो आज मैं और तुम किसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर होतीं और आरफा जरगर किसी हॉस्पिटल में डॉक्टर। साज़िश में शामिल होकर हम न इधर के रहे, न उधर के।

“घर वाले भी उस समय तो बड़े ख़ुश थे, बड़ी शान सबको बताते घूम रहे थे कि मैं क़ौम के लिए सड़क पर आंदोलन में जी-जान से जुटी हुई हूँ। रिश्तेदार बाक़ी दोस्त भी वाह-वाह करते थे। अब जब कहीं की नहीं रही तो कोई भी दिखाई नहीं देता। घर में भी सभी का मुँह मुझे देखकर लटक जाता है। तुम्हारे साथ क्या हो रहा है, मैं नहीं जानती।

“इसलिए मैं फिर कह रही हूँ कि मुझे बख़्श दो, अब मैं बात चाहे मज़हब की हो या क़ौम की, मैं किसी आंदोलन-वान्दोलन में नहीं जाने वाली। आंदोलन करवाने वाले तो एसी कमरों में बैठ कर अपनी-अपनी दुकानें चलाते हैं, राजनीति चमकाते हैं, उनके ख़जाने भरते रहते हैं, पुलिस की लाठी-गोली, मुक़द्दमे हम तुम जैसे लोग झेलते हैं, बर्बाद होते हैं, दूसरी तरफ़ क़ानून, सरकार अपना काम अपने हिसाब से करके ही रहती है। यह सब जानते-समझते हुए हम-लोग क्यों बेवजह अपने को खंदक में डालें।

“तुमसे भी कहती हूँ, छोड़ो इन सब बातों को। तुम्हारा हमारा कैरियर इन लोगों के बहकावे में आकर बर्बाद हो गया है। वाहवाही के चक्कर में बेवजह के मुक़द्दमों में फँस गए हैं। इतने दिन हो गए, हमारे तुम्हारे लिए प्रोफ़ेसर सईद ने आज तक क्या कर दिया, आगे भी क्या कर देंगे।

“जब-तक शाहीन बाग़ की आग जलाए रखनी थी, तब-तक तो उठते-बैठते नाक में दम किए रहते थे। उसके बाद न तो हमारे मुक़द्दमों की कोई खोज-ख़बर, न ही हमारी थीसिस की। हमें चवन्नी-अठन्नी देकर सारे पैसे अकेले डकारते रहते हैं। मुझे नफ़रत हो गई है उनसे।”

बड़ी तल्ख़ी के साथ अपनी बात कहती हुई रुबिका सोच रही थी, महबूबा अब आंदोलन-फान्दोलन का नाम लेने के बजाय चुप-चाप चली जाएगी, लेकिन वह उसकी उम्मीदों के उलट आगे ऐसे बोलने लगी जैसे वहाँ कोई बात हुई ही नहीं।

उसने बड़ी गंभीरता से कहा, “रूबिका, सईद साहब को तुमसे बहुत ज़्यादा उम्मीद है। उन्होंने मुझसे बहुत ज़ोर देकर कहा कि ‘महबूबा वह तुम्हारी बात मानती है। तुम उसे समझाओ कि अब ज़्यादा समय नहीं बचा है, सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा है कि वह कार्रवाई पर रोक नहीं लगा रहा। मतलब कि सरकार को खुला रास्ता दे दिया है कार्पेट बिछा कर कि आप जिस तरह चाहें, अपने मक़सद को पूरा करने के लिए उस तरह आगे बढ़ें। और सरकार जिस तरह आगे बढ़ रही है, उससे साफ़ दिख रहा है कि वह जल्दी से जल्दी मक़सद पूरा करने की फ़िराक़ में है। इसलिए हमें भी उनकी स्पीड से ज़्यादा तेज़ शाहीन बाग़ से भी बड़ा शाहीन बाग़़ वहाँ खड़ा करना है। समय कम है, इसलिए सब को जल्दी से जल्दी सामने आना ही होगा।’

“रूबिका सिर्फ़ उन्हें ही नहीं, मुझे भी तुमसे बहुत उम्मीद है, इसलिए पहले मेरी बात सुनो, मुझे पूरा यक़ीन है कि जब तुम बात को समझ लोगी तो बीती सारी बातें भूल कर पहले से भी ज़्यादा जोश के साथ आगे बढ़ोगी। तुम्हें मज़हब का, क़ौम का वास्ता देती हूँ, कि केवल अपने बारे में सोचने से पहले मज़हब, क़ौम के बारे में सोचो, मेरी बात को सुनो।”

महबूबा ने रूबिका पर जब बहुत ज़्यादा दबाव डाला तो उसने मन ही मन सोचा यह तो बिल्कुल गले ही पड़ गई है। अपनी बात पूरी सुनाए बिना मानेगी नहीं। चलो सुन ही लेती हूँ। उसने महबूबा से कहा, “ठीक है, इतना कह रही हो तो बताओ, लेकिन इस तरह बात-बात में मज़हब का सहारा नहीं लिया करो। इतनी पढ़ी-लिखी तो हूँ ही कि कौन-सी बात मज़हब की, क़ौम की है, कौन-सी नहीं, यह अच्छी तरह समझती हूँ।”

यह सुनते ही महबूबा ने कहा, “अल्लाह का शुक्र है कि तुम बात सुनने को तैयार हुई। देखो अभी बीते दिनों तुमने टीवी चैनलों, सोशल मीडिया पर तो यह देख ही लिया कि हल्द्वानी के बनभूलपुरा, गफूर, इंदिरा नगर, और उसके आसपास की सभी बस्तियों के लोगों ने मिलकर बस्ती को ख़ाली कराने के सरकार के आदेश के विरुद्ध बड़ा आंदोलन किया। 

“क़रीब चालीस से पचास हज़ार लोगों ने आंदोलन में शिरकत की। सरकार कहती है कि वह पूरी बस्ती ग़ैर-क़ानूनी है, सरकार की ज़मीन पर है। और अवैध बस्ती को अब वहाँ से हटना पड़ेगा। अब तुम ही बताओ बस्ती के क़रीब पचास हज़ार लोग कहाँ जाएँगे? 

“वो सब सालों साल से वहाँ रहते चले आ रहे हैं, अब वह अपने घर, काम-धंधा छोड़ कर कैसे जा सकते हैं। इसलिए हम सबक़ो सरकार को रोकने के लिए जल्दी से जल्दी एक और शाहीन बाग़ खड़ा करना ही पड़ेग।”

महबूबा की बातों से रुबिका खीझ उठी। उसने कहा, “ओफ़्फ़ो कब-तक शाहीन बाग़ खड़ा करते रहेंगे, किस-किस बात के लिए शाहीन बाग़ खड़ा करेंगे, अरे जैसे बाक़ी लोग देश में रह रहे हैं, हम-लोग भी उसी तरह शान्ति से क्यों नहीं रह पाते? दुनिया में हम-लोग उपद्रवियों के रूप में क्यों बदनाम होते जा रहे हैं, कभी यह भी सोचो।”

रूबिका की यह बात महबूबा को काँटे-सी चुभ गई। वह भड़कती हुई बोली, “रुबिका तुम यह क्या काफ़िरों जैसी बातें कर रही हो? हम पर ज़ुल्म पर ज़ुल्म किए जा रहे हैं, और हम बोलें भी न। तुम उल्टा क़ौम को ही कटघरे में खड़ा कर रही हो। यह तुमको इतने ही दिनों में हो क्या गया है?” 

“मुझे कुछ नहीं हुआ है। न ही मैं क़ौम या किसी को कटघरे में खड़ा करने की सोचती हूँ, और मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि पूरा वाक़या क्या है . . .” 

रूबिका भी तैश में आ गई। उसने कहा, “जब उन्नीस सौ उनसठ के नोटिफ़िकेशन के हिसाब से ज़मीन रेलवे की है तो वह तो उसे लेकर ही रहेगा। लोगों को वह ज़मीन आज नहीं तो कल ख़ाली करनी ही पड़ेगी। यदि हम वाक़ई अपनी क़ौम की भलाई चाहते हैं तो हमें सरकार से यह माँग करनी चाहिए कि वहाँ के लोगों को कहीं और बसने की जगह दे दे। और साथ ही पर्याप्त समय भी कि लोग वहाँ पर जाकर बस सकें। 

“नियम-क़ानून के हिसाब से भी सुप्रीम कोर्ट में सरकार जीतेगी ही जीतेगी। ऐसे में एक और शाहीन बाग़ खड़ा करने की कोशिश में बेवजह का तमाशा खड़ा करके हम वहाँ के लोगों के लिए और बड़ी मुसीबत खड़ी करेंगे। 

“वह लोग इस धोखे में आ जाएँगे कि ऐसे शाहीन बाग़़ खड़ा होने से वह ग़लत होने के बावजूद क़ानून के शिकंजे से बच जाएँगे, जब कि बात इसके एकदम उल्टी है। जब हक़ीक़त से उनका सामना होगा, उन्हें वहाँ से छोड़कर जाना ही होगा तो सोचो उनके ऊपर क्या बीतेगी। 

“इस तरह तो हम उन्हें और भी ज़्यादा नुक़्सान पहुँचाएँगे। एक तरह से उन पर दो-तरफ़ा मार पड़ेगी। इसलिए मैं कहती हूँ कि अगर तुम लोग सच में उन लोगों की मदद करना चाहते हो तो सरकार से केवल इतनी माँग करो कि उन्हें कहीं और बसने देने के लिए ज़मीन दे दे, मकान बनाने के लिए आर्थिक मदद भी कर दे। सरकार अगर इतना कर देगी तो उनके लिए इससे ज़्यादा बड़ी और कोई मदद नहीं हो सकती, समझी।”

रुबिका की बातों से महबूबा एकदम हैरान होती हुई बोली, “तुम कैसी बातें कर रही हो, वह लोग वहाँ से हटे ही क्यों? जानती हो वह लोग देश की आज़ादी के पहले से वहाँ रह रहे हैं। आज जो रेलवे विभाग उन्नीस सौ उनसठ के नोटिफ़िकेशन के आधार पर कह रहा है कि यह ज़मीन उसकी है, उसी रेलवे ने उन्नीस सौ चालीस में उन लोगों को लीज़ पर दी थी। 

“और जब इतने बरसों से वह सभी लोग हाउस-टैक्स, बिजली, पानी का बिल देते आ रहे हैं, ख़ुद सरकार ने ही वहाँ डेवलपमेंट के तमाम काम करवाए हैं तो फिर वह बस्ती अवैध कैसे हो गई। सीधी-सी बात तुम समझती क्यों नहीं कि सीधे-सीधे क़ौम पर ज़ुल्म किया जा रहा है।”

महबूबा की बात, आवाज़ में साफ़ झलकते क्रोध को समझते हुए रुबिका ने कहा, “महबूबा देखो मैं बेवजह की बहस में नहीं पड़ना चाहती। इतने नियम-क़ानून हैं, फिर भी सही क्या है, ग़लत क्या है, यह सब मेरी तरह तुम भी अच्छी तरह जानती हो, फिर भी ग़लत बात करती जा रही हो। 

“तुमसे प्रोफ़ेसर सईद या जो लोग भी एक और शाहीन बाग़ खड़ा करने की बात कर रहे हैं, क्या उन्हें यह नहीं मालूम कि जब रेलवे ने उन्हें जगह लीज़ पर दी थी तब अँग्रेज़ों की सरकार थी, उनका क़ानून था। देश उनके हाथों में था। 

“उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद देश आज़ाद हो गया। इसके साथ ही अँग्रेज़ों का क़ानून, उनके नियम उनके साथ चले गए। आज़ादी के बाद देश ने अपने हिसाब से नियम-क़ानून बनाए। रेलवे भी उन्हीं में से एक है। 

“लीज़ को सरकार किसी भी समय ख़त्म भी कर सकती है। टैक्स देने का मतलब यह नहीं है कि मालिक हो गए। बिजली, पानी का बिल तो जो लोग किराए पर रहते हैं, वह भी देते हैं, तो क्या वो मालिक बन जाएँगे? 

“और नियम तो इसी देश में यह भी है न कि सरकार किसी भी तरह के विकास कार्य के लिए किसी भी ज़मीन, प्रॉपर्टी का अधिग्रहण कर सकती है। काशी और अयोध्या में देख नहीं रही हो, सैकड़ों साल पुराने मकान, मंदिर आदि जो कुछ भी वहाँ के विकास में आड़े आए उनका सरकार ने अधिग्रहण कर लिया, लोगों को पैसा दे कर कहीं और बसा दिया। 

“सभी ख़ुशी-ख़ुशी चले भी गए, एक बार कहने को भी लड़ाई-झगड़ा फ़साद या आंदोलन-फान्दोलन किसी ने खड़ा किया? क्योंकि इन लोगों ने क़ानून के हिसाब से जो भी हो रहा था उसे मुआवज़ा लेकर होने दिया। 

“ऐसा ही कोई रास्ता यहाँ क्यों नहीं निकाला जाता? मैं साफ़-साफ़ कहती हूँ कि लोग निकालना चाहेंगे तो बड़ी आसानी से निकल आएगा, जैसे अयोध्या, काशी में निकला। 

“मैं बिना संकोच के यह कहती हूँ कि यह हो तभी पाएगा जब सईद जैसे लोग एक और शाहीन बाग़ खड़ा करने से बाज़ आएँगे। 

“जब उस दिन जुलूस में मैंने केवल महिलाओं को कैंडिल लिए हुए देखा तो मुझे तुरंत ही शाहीन बाग़ याद आ गया। ऐसे ही तमाशा वहाँ भी शुरू हुआ था। 

“सईद जैसे लोगों ने औरतों को आगे कर दिया, ख़ुद पीछे खड़े होकर अपने-अपने स्वार्थों की दुकान चमकाते रहे। शाहीन बाग़ में तो नहीं लेकिन यहाँ हल्द्वानी के जुलूस को देखकर मुझे बार-बार हरि सिंह नलवा और सलवार कुर्ता पहने मुस्लिम मर्द याद आते रहे। मैं यही सोचती रही कि मुस्लिम मर्दों की ऐसी हरकतों के कारण ही हरि सिंह ने उन्हें सलवार कुर्ता पहनाया होगा।”

यह सुनते ही महबूबा ने अजीब सा मुँह बनाते हुए कहा, “हरि सिंह नलवा, यह तुम किस काफ़िर का नाम ले रही हो, हल्द्वानी, मुस्लिम मर्दों के सलवार कुर्ता से एक काफ़िर का क्या लेना देना?” 

महबूबा की आवाज़ में तल्ख़ी का आभास कर रुबिका कुछ देर उसे देखती रही, उसने मन ही मन सोचा कि क़ौम पर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के नाम पर झूठी साज़िशों का हिस्सा नहीं बन रहे होते, अपनी पढ़ाई ठीक से कर रहे होते तो यह सब पता होता। उसे चुप देखकर महबूबा ने कहा, “तुम कुछ बोलती क्यों नहीं, यह काफ़िर कौन है, जिसने तुम्हारे दिमाग़ में क़ौम के ख़िलाफ़ ज़हर भर दिया है।”

महबूबा की सख़्त लहजे में कही गई यह बात रुबिका को चुभ गई, “उसने भी उसी लहजे में कहा, “तुम बार-बार फ़ालतू की बातें नहीं करो तो अच्छा है। क़ौम के बारे में जितना तुम सोचती हो, उससे कहीं ज़्यादा मैं सोचती हूँ, उसकी भलाई कैसे हो सकती है यह तुमसे ज़्यादा ही जानती हूँ।”

रूबिका की इस बात से रूम का माहौल और गर्मा गया। तनावपूर्ण हो गया। महबूबा ने तीखे लहजे में कहा, “जब जानती हो, तो क़ौम पर इतनी बड़ी आफ़त आने के बाद भी उसकी मदद के लिए आगे क्यों नहीं आ रही हो? यह केवल हल्द्वानी की ही बात नहीं है, हम शाहीन बाग़ खड़ा नहीं करते रहेंगे तो यह पूरे देश में ऐसे ही चलने लगेगा। रोज़ ही कोई ना कोई बस्ती ग़ैर-क़ानूनी होती चली जाएगी। 

“इसलिए हमें शुरू में ही अपना विरोध इतना तेज़ और भयानक करना चाहिए कि कोई भी सरकार हमारी क़ौम की किसी भी बस्ती को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर ख़ाली कराने से पहले हज़ार बार सोचे। अगर हम चुप रहे तो यह सिलसिला रुकने वाला नहीं। 

“इसीलिए हमेशा की तरह क़ौम की फ़िक्र करने वाला हर कोई, मैं, बहुत फ़िक्रमंद हैं और क़ौम के एक-एक आदमी को जोड़ रहे हैं। ऐसे माहौल में किसी हरि सिंह नलवा-अलवा की बात करना भी किसी कुफ़्र से कम नहीं है।” 

रुबिका को महबूबा का आवेश भरा लहजा बहुत ही नागवार गुज़रा। उसने कहा, “मैं किसी ऐरे-ग़ैरे की बात नहीं कर रही हूँ, मैं इतिहास से सबक़ लेने की बात कर रही हूँ। कितना अफ़सोसनाक है कि तुम भी मेरी तरह ही इतिहास में ही पीएच. डी. कर रही हो, लेकिन जिसके नाम से ही दुश्मनों की रूह काँप जाती थी, उस हरि सिंह नलवा और मुस्लिम मर्दों के सलवार कुर्ता पहनने के कनेक्शन को नहीं जानती। 

“क़ौम के लिए वह हालत बड़ी शर्मिंदगी वाली होती है, जब क़ौम के मर्द, कोई काम निकालने के लिए औरतों के कंधों का सहारा लेने लगते हैं। शाहीन बाग़ मामले में देश-भर में बुर्कानशीं औरतों को आगे कर दिया गया था, अब फिर से वही किया जा रहा है। 

“मुझे डर इस बात का है कि जब आगे इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें ध्वनि यही होगी कि तब क़ौम के मर्द इतने कमज़ोर और कायर थे कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी अपना कोई भी सही या ग़लत विरोध दर्ज कराने की हिम्मत नहीं रखते थे। 

“इसके लिए भी महिलाओं के पीछे खड़े होकर, उनके कन्धों पर बंदूक रखकर चलाने को छोड़ो, बंदूकें उनके हाथों में पकड़ा कर दूर बहुत दूर से खड़े होकर तमाशा देखते थे। अपनी उन्हीं महिलाओं को जिन्हें वह और दिनों में, एक कोठरी में, सात तहों में छुपा कर रखने के लिए जी-जान से जुटे रहते थे कि सूरज की रोशनी भी उन पर न पड़ने पाए लेकिन जब काम पड़ता था तो सड़कों पर खदेड़ देते थे। 

“आने वाली नस्लें ऐसे मर्दो पर हँसेगी नहीं तो क्या उनको सलाम करेंगी। आज भी इतिहास में जब पढ़ती हूँ कि सिक्ख महाराजा रणजीत सिंह के महान सेनानायक हरि सिंह नलवा ने पूरा कश्मीर, पेशावर, अटक, मुल्तान, सियालकोट, क़ुसूर, जमरूद, कंधार, हेरात, कलात, बलूचिस्तान एक तरह से पूरा अफ़ग़ानिस्तान, फ़ारस तक जीत लिया था, पठान उनसे बुरी तरह हार गए, बड़ी संख्या में उन्हें हरि सिंह ने क़ैद कर लिया, इन सबके सिर क़लम किए जाने थे। 

“जान बचाने के लिए मर्दों ने कहा कि हिंदू राजा, सेना नायक, लोग महिलाओं का सदैव सम्मान करते हैं, यदि महिलाएँ हरि सिंह नलवा से अपने पतियों, बेटों, भाइयों की जान बख़्शने के लिए रहम की भीख माँगें तो हरि सिंह सबक़ी जान बख़्श देंगे। 

“औरतों की मर्ज़ी नामर्ज़ी जाने बिना मर्दों ने जब उन्हें अपना फ़रमान सुनाया, तो औरतों ने मर्दों की जान बचाने के लिए हरि सिंह से रहम की भीख माँगी, लेकिन वह किसी पर रहम करने को तैयार नहीं थे। 

“क्योंकि उन्हें यह विश्वास था कि यह सारे क़ैदी छूटने के बाद विद्रोह करने की तैयारी करेंगे। यह जानकर मर्द औरतें फिर गिड़गिड़ाने लगीं, तब हरि सिंह नलवा ने कहा, कि जो भी क़ैदी सलवार-कुर्ता पहन कर क़ैद से बाहर आने को तैयार होगा, उसकी ही जान बख़्शी जाएगी। 

“इसके बाद सारे के सारे पठान सलवार-कुर्ता पहनकर अपनी जान बचाकर नलवा की क़ैद से निकले। पठानों में नलवा का इतना ख़ौफ़ था कि उनका नाम सुनते ही वह भाग जाते थे या कहीं छिप जाते थे। अपनी जान बचाने के लिए वह हमेशा सलवार-कुर्ता ही पहने रहते थे। यही धीरे-धीरे चलन में आ गया। उनकी परंपरा सी बन गई। 

“हरि सिंह नलवा ने अपनी तलवार के दम पर विशाल सिक्ख साम्राज्य स्थापित कर दिया था। वह इतने बहादुर थे, इतनी जंगें उन्होंने जीती थीं कि सर हेनरी ग्रिफिन जैसों ने उन्हें खालसा जी का चैंपियन की उपाधि से नवाज़ा था। 

“सभी इतिहासकार उन्हें नेपोलियन बोनापार्ट जैसा महान सेनानायक कहते हैं। उन्हें शेर-ए-पंजाब की भी उपाधि दी गई है। उनके दुश्मन, सभी पठान उनसे कितना ख़ौफ़ खाते थे उसका अंदाज़ा तुम इसी बात से लगा सकती हो कि जहांगीरिया की लड़ाई में बर्फ़ीली नदी को पार करके उन्होंने पठानों पर भयानक हमला कर दिया। 

“दस हज़ार से अधिक पठान मारे गए, बाक़ी अपनी जान बचा कर पीर सबक़ की ओर भाग गए। हरि सिंह की बहादुरी को देख कर डरे घबराए पठान चिल्लाने लगे, ‘तौबा-तौबा ख़ुदा ख़ुद खालसा शुद।’

“मतलब कि ‘ख़ुदा माफ़ करें, ख़ुदा स्वयं खालसा हो गए हैं।’ इन डरे घबराए पठान मुसलमानों का हाल देखो कि क़रीब दो सौ साल होने वाले हैं और जो इन लोगों ने सलवार पहनी तो पहनते ही चले आ रहे हैं। 

“अफ़ग़ानिस्तान में तो मर्दों की जैसे राष्ट्रीय पोशाक बन गई है। चाहे वहाँ आज के आतंकी तालिबानी शासक हों या वहाँ की जनता, सब एक ही रंग में रँगे हैं। 

“अपने भारत में ही देख लो, ज़्यादा कट्टर मुसलमान दिखने के चक्कर में बहुत से बेवुक़ूफ़ नक़ल करते हुए बड़ी शान से सलवार-कुर्ता पहन रहे हैं। 

“ये सब कभी भी यह जानने की भी कोशिश नहीं करते कि उन्हें औरतों के यह कपड़े सलवार किसने पहनाई? बस ऐसे पहनते चले आ रहे हैं, जैसे कि वह उनकी बहादुरी, शानो-शौकत की निशानी है। अजीब बात तो यह है कि सलवार टखने से बहुत ऊपर पहनेंगे और कुर्ता घुटने से बहुत नीचे। 

“अजीब जोकरों सी-स्थिति होती है। सोशल मीडिया से लेकर ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ लोग हँसते न हों। मज़ाक में कहते हैं कि छोटे भाई का पजामा, बड़े भाई का कुर्ता। सोचो जिस तरह जान बचाने के लिए बहादुर मुसलमान पठानों ने औरतों के कंधों का सहारा लिया, औरतों के कपड़े सलवार कुर्ते पहन लिए, तो वह अपमानजनक वाक़या इतिहास में दर्ज हो गया है हमेशा-हमेशा के लिए, तो क्या अब ऐसा कुछ किया जाएगा तो वह इतिहास में दर्ज नहीं होगा।”

जिस आवेश में महबूबा ने नॉन-स्टॉप अपनी बातें कही थीं, उससे कहीं ज़्यादा आवेश, गति में रूबिका ने अपनी बातें कहीं। उसकी अतिप्रतिक्रियावादी आदत से महबूबा परिचित थी इसलिए उसे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। लेकिन वह अब भी अपनी कोशिश में पीछे नहीं हटना चाहती थी। उसने तुरंत ही कहा, “कमाल की बात करती हो, पठान तो बहादुर लोग हैं। न जाने कितनी पिक्चरों में उनकी बहादुरी के क़िस्से भरे पड़े हैं।” 

“महबूबा मुश्किल तो यही है कि एक एजेंडे के तहत पिक्चरों में उलटी तस्वीर उकेरी गई, इनको बहादुर दिखाया गया। लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ में स्थापित कर दिया गया कि पठान बहादुर होते हैं। मगर जब इतिहास के पन्नों को पलटते हैं तो उसमें हक़ीक़त इसके उलट नज़र आती है। वहाँ हमें पठान जान बचाने के लिए अपनी औरतों की सलवार कुर्ता पहनने वाले, दुश्मन से जान बचा कर भागते, छिपते नज़र आते हैं, बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती है।” 

इस बार महबूबा कुछ विचलित होती हुई बोली, “हिंदुस्तान पर एक नहीं कितने ही मुसलमानों ने हमले किए, यहाँ के राजाओं को हराया। मुग़लों ने सैकड़ों साल शासन किया, यह भी तो एक सच है।” 

रूबिका ने महबूबा की आँखों में देखते हुए गहरी साँस लेकर कहा, “नहीं महबूबा, यह एक सच नहीं वामपंथी, पश्चिमी, कांग्रेसी मानसिकता वाले इतिहासकारों का अधूरा या गढ़ा हुआ सच है। जैसे जोधा और अकबर का विवाह। तमाम रिसर्च के बाद अब यह सच सामने आ गया है कि जोधा बाई भारत, प्राचीन भारतीय संस्कृति से चिढ़ने, खुन्नस खाने वाले इन्हीं इतिहासकारों के दिमाग़ की उपज है। 

“मुस्लिम देशों, इन्हीं दुराग्रही इतिहासकारों, लोगों का एजेंडा चलाने वाले बॉलीवुड के लिए ही इन्हीं लोगों ने कपोल कल्पित कैरेक्टर गढ़े। एजेंडे का गोलमाल ही तो है कि हम-सब लोग, सारी दुनिया कल्पित कैरेक्टर जोधा बाई का क़िस्सा तो जानते हैं, लेकिन राजपूताने के ही महान शासक जिन्हें ‘फ़ादर ऑफ़ रावलपिंडी’, ‘काल भोज’ भी कहा जाता है, उनकी तीस से भी अधिक मुस्लिम पत्नियों के बारे में नहीं जानते। अपनी जान और सत्ता बचाने के लिए इन मुस्लिम राजकुमारियों के अब्बा, भाईजान उन्हें बप्पा रावल को सौंपते जाते हैं लो, बना लो इसे अपनी बेगम, बख़्श दो मेरी जान। इसमें ग़ज़नी का मुस्लिम शासक मुख्य था जिसने अपनी बेटी का विवाह बाप्पा रावल से किया था। बप्पा रावल का बसाया शहर रावलपिंडी आज भी पाकिस्तान का प्रमुख शहर है। 

“राणा सांगा के नाम से ही दुश्मन काँपते थे, शरीर में अस्सी घावों के बावजूद वह युद्ध में सेना का संचालन करते थे। उनकी चार पत्नियाँ मुस्लिम थीं, उनमें से एक का नाम मेहरून्निसा था। 

“हल्दी-घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप ने अकबर को इतनी बुरी तरह परास्त किया था कि वह उनसे घबराने लगा, जब राणा प्रताप के बेटे अमर सिंह गद्दी सँभालते हैं तो अकबर ने अपनी बेटी शहजादी खानम की शादी उनसे कर दी। हैदराबाद के निज़ाम ने अपनी बेटी रूहानी बाई की शादी राजा छत्रसाल से कर दी। जोधपुर के राजा हनुमंत सिंह ने जुबेदा से विवाह किया। 

“इसी तरह कुँवर जगत सिंह से उड़ीसा के नवाब कुतुल खां की लड़की मरियम का, वजीर खान की बेटी का महाराणा कुंभा से, राजा मानसिंह का मुबारक से, अमरकोट के राजा वीर साल का हमीदा बानो से विवाह हुआ था। 

“सेलेक्टेड ही नहीं झूठ, छद्म मक्कारी से भरा इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों की मक्कारी झूठ का सबसे बड़ा उदाहरण है जोधा बाई कैरेक्टर। सोचो कि अकबर अपनी आत्म-कथा में सब-कुछ लिखता है, बेगमों का ज़िक्र करता है, लेकिन जोधा बाई के बारे में एक शब्द कहीं नहीं है। 

“एक बार को यह मान भी लें अकबर भूल गया होगा, लिखते समय किसी कारण से ग़ुस्सा रहा होगा, इसलिए उसने जोधा बाई का ज़िक्र नहीं किया, लेकिन उसके ज़माने के बाक़ी इतिहासकारों ने भी अकबर की बेगमों के बारे में विस्तार से लिखा, उनके नाम बताए, लेकिन जोधा बाई का कहीं नामोनिशान नहीं है। यह तथ्य ही बताते हैं कि जोधा बाई मक्कारों के दिमाग़ की उपज के सिवा और कुछ नहीं है। 

“जिन जंगों की फ़तह, राज्य, शासन-व्यवस्था के आधार पर मुग़लों को महान-फहान बताया गया है, जब ईमानदारी से तथ्यों का विश्लेषण करो तो सचाई यह सामने आती है कि मुग़ल साम्राज्य हिन्दू राजाओं ख़ासतौर से राजपूतों के परस्पर झगड़ों के कारण बना। कुछ को छोड़ कर बाक़ी सारे युद्धों में मुग़लों के सेना-पति, सेना हिन्दू ही होते थे, वही लड़ते जीतते थे। सारी व्यवस्था राजा टोडरमल जैसे हिन्दू राजाओं की बनाई थी। 

“जिन कुछ युद्धों को मुग़ल सेनापति ने जीता वह भी छल छद्म से ही जीता, किसी युद्ध में गायों को आगे कर दिया कि हिन्दू सेना गायों के सामने होने पर हथियार ठीक से चला नहीं पाएगी, क्योंकि वो धार्मिक मान्यताओं के चलते किसी भी सूरत में गायों को नुक़्सान नहींपहुँचाएँगे। तो किसी में कुछ और। यदि वो इतने ही महान लड़ाके थे तो छत्रपति शिवा जी, उनके मराठा साम्राज्य को समाप्त क्यों नहीं कर पाए? आख़िर मराठा साम्राज्य ही मुग़ल साम्राज्य के नष्ट होने का कारण बना। 

“पूर्वोत्तर में आहोम साम्राज्य मुग़लों को नाकों चने चबवाता रहा, उसके सेनानायक लाचित बरफुकन ने सोलह सौ इकहत्तर में सराईघाट के युद्ध में मुग़ल सेना को रौंद कर रख दिया था। यहाँ भी मुग़ल सेना का सेनापति हिन्दू रामसिंह प्रथम थे। इस युद्ध में भी मुग़लों ने छल-छद्म किया, फ़र्ज़ी पत्र के माध्यम अफ़वाह उड़वाई कि सेनापति लाचित को मुग़लों ने युद्ध हारने के लिए एक लाख रुपये दिए हैं। 

“भ्रम फैला भी लेकिन लाचित ने अपनी बुद्धिमत्ता, रण-कौशल से ब्रह्मपुत्र नदी युद्ध में भी मुग़ल सेना को कुचल कर रख दिया। मुग़लों ने हार मानते हुए लिखा ‘महाराज की जय हो! केवल एक ही व्यक्ति सभी शक्तियों का नेतृत्व करता है! यहाँ तक कि मैं राम सिंह, व्यक्तिगत रूप से युद्ध-स्थल पर उपस्थित होते हुए भी, कोई कमी या कोई अवसर नहीं ढूँढ़ सका!’ ऐसे लोगों के बारे में इतिहास में कितना पढ़ाया जाता है? दक्षिण में भी मुग़ल असफल रहे। सच छिपा कर हर वह झूठ स्थापित किया गया जो इस देश को अपमानित महसूस कराए, बर्बाद करे।” 

महबूबा, रूबिका की बातों से खीझती, परेशान होती हुई बोली, “रूबिका इतिहास में क्या हुआ, क्या नहीं, किसने मक्कारी की, किसने कितना झूठ लिखा, हमें इन सब चक्करों में नहीं पड़ना है। हमें तो आज देखना है। हल्द्वानी में अपनी क़ौम के साथ खड़े होना है बस।”

रूबिका ने कुछ सोचते हुए कहा, “महबूबा, मैं तुम्हारी तरह इतिहास से किसी भी तरह से मुँह नहीं मोड़ सकती। मैं तुम्हें पहले भी कई बार बता चुकी हूँ कि जब से मैंने यह जाना है कि मेरा ख़ानदान छह पीढ़ी पहले एक क्षत्रिय बड़ा ज़मींदार हुआ करता था, तब से मैं अपनी जड़ों को तफ़सील से जानने कि कोशिश में लगी हुई हूँ। 

“तुमसे भी कई बार कहा कि अपनी जड़ों को खोजो, कौन हो तुम यह जानो। लेकिन तुम इस बात को सुनती ही नहीं। मगर मेरा पूरा यक़ीन अब इस बात पर है कि अपने इतिहास को जाने-समझे बिना न हम आज को ठीक से समझ पाएँगे और न ही कल के बारे में कुछ तय कर पाएँगे।”

यह सुन कर महबूबा के चेहरे पर ग़ुस्सा खीझ दिखने लगी थी। उसने उस पर नियंत्रण रखने की कोशिश करते हुए कहा, “रूबिका मैं तुमसे इतिहास पर बहस करने नहीं आई हूँ। प्रोफ़ेसर सईद ने जो कहा था, वह बताने के साथ ही यह गुज़ारिश करने आई हूँ कि आज फिर से क़ौम को तुम्हारी, हमारी, सबकी ज़रूरत है। हम-सब को फिर से बिना किसी आनाकानी के पुराने जज़्बे यानी की शाहीन-बाग़ वाले जज़्बे के साथ हल्द्वानी पहुँचना है बस।”

महबूबा ने बहुत ज़ोर देकर, क़रीब-क़रीब आदेशात्मक लहजे में अपनी बात कही तो रूबिका को ग़ुस्सा आ गई। उसने महबूबा की आँखों में देखते हुए कहा, “महबूबा मैं बोलना तो नहीं चाहती थी, लेकिन तुमने मुझे मजबूर कर दिया है बोलने के लिए तो सुनो प्रोफ़ेसर सईद के असली चेहरे के बारे में। 

“क़ौम के लिए उनकी इतनी हमदर्दी तब कहाँ चली गई थी, जब मैं अपनी बड़ी बहन का जीवन तबाह होने से बचाने के लिए उनसे मदद माँगने गई थी। तब उन्होंने बजाए मदद करने के अपने जाल में फँसाने की कोशिश की। 

“मुझे कई दिन तक दौड़ाया और फिर एक पुरानी बात का हवाला देकर ब्लैक-मेल किया, बहुत दिन तक मेरी इज़्ज़त लूटते रहे, मेरे इसी बदन को शराब पी-पी कर जानवरों की तरह नोचते रहे। बदन पर से वो निशान अब भी मिटे नहीं हैं। तुम्हें यक़ीन नहीं होगा इसलिए ये . . . ये देखो सुबूत . . .” 

बहुत आवेश में आ चुकी रूबिका ने बात पूरी करने से पहले ही कुर्ता उतार कर पेट, पीठ कुछ अन्य हिस्सों पर सईद के वहशीपन के निशान दिखाए। लेकिन महबूबा के चेहरे पर कोई आश्चर्य के भाव आने के बजाए ऐसा लगा जैसे कि वह पहले से ही सब-कुछ जानती है। 

मगर आवेश में इस बात से अनजान रूबिका कहे जा रही कि “आज मैं उनका चेहरा बेनक़ाब कर रही हूँ, उन्होंने जो किया वह बताने जा रही हूँ, हालाँकि मैं जानती हूँ कि मालूम तुम्हें भी होगा। लेकिन तुम उनकी इतनी पैरवी कर रही हो इसलिए कह रही हूँ कि . . .”

इसी वक़्त महबूबा बोल पड़ी, “मैं पैरवी नहीं कर रही हूँ, मैं तो . . .” 

“सुनो-सुनो, पहले मेरी बात सुनो, मेरी बहन उज्मा का मामला तो तुम्हें काफी-कुछ मालूम है। उसके जुआरी शौहर ने पहली बार तलाक़ दिया, फिर कुछ दिन बाद ही अपने बड़े भाई से हलाला करा कर दोबारा निकाह कर लिया। इसके कुछ दिन बाद ही घर में प्रॉपर्टी को लेकर झगड़ा हो गया। 

“सारे भाई अपनी-अपनी प्रॉपर्टी लेकर अलग हो गए। इसी बीच उज्मा के शौहर ने जुए के साथ-साथ नशेबाज़ी भी शुरू कर दी। घर का सामान भी बेचने लगा। जिससे रोज़ झगड़ा होने लगा। एक दिन उसने फिर तलाक़ दे दिया। अबकी हलाला की बात घर में नहीं बन पाई, क्योंकि भाइयों में तो प्रॉपर्टी को लेकर पहले ही ख़ूब मार-पीट, लड़ाई-झगड़ा हो चुका था, सब जानी दुश्मन थे, बोलचाल भी बंद थी। 

“उसने एक मौलवी से मसले का हल पूछा, तो वह ख़ुद ही हलाला करने के लिए तैयार हो गया, तो उसने उज्मा को मौलवी के पास हलाला के लिए जाने के लिए मजबूर कर दिया। समस्या तब और बड़ी हो गई जब मौलवी ने बातचीत में तय हुए समय पर उज्मा को तलाक़ देने से आनाकानी करनी शुरू कर दी। 

“वह उसको रोज़ शारीरिक यातना देता रहा। शौहर बार-बार तलाक़ के लिए कहता रहा, मगर मौलवी टालता रहा। शौहर उसके पास बार-बार जाता गालियाँ खाकर लौट आता। उसके तीनों बच्चे लावारिस से होकर रह गए थे। मौलवी ने बच्चों को लाने के लिए सख़्त मना कर दिया था। जुआरी-शराबी बाप के चलते बच्चों को मैं लेते आई। 

“वह मौलवी उज्मा का शारीरिक शोषण इतनी भयानक तरीक़े से करता था, लगता कि जैसे वह उसे तड़पा-तड़पा कर मारना चाहता है। मेरे घरवाले, मैं, उसका शौहर सारी कोशिश करके थक गए, लेकिन मौलवी ने उज्मा को तलाक़ नहीं दिया कि वह फिर से अपने लफ़ंगे शौहर से निकाह कर पाती, अपने बच्चों को सँभाल पाती। 

“हार कर मैं सईद के पास गई कि उनका बड़ा रुतबा है, तमाम महत्त्वपूर्ण संगठनों से जुड़े हुए हैं, वह मौलवी से कहेंगे तो वो उज्मा को तलाक़ दे देगा। मेरी बात सुनते ही सईद ने ऐसी बातें कहीं कि लगा बस अभी मौलवी को फोन करके उज़्मा को मिनट भर में तलाक़ दिलवा देंगे। 

“लेकिन देखते-देखते तीन महीने बीत गए। मैं सईद और मौलवी के बीच में फुटबॉल बनके रह गई। दोनों मुझे किक मारते और मैं इधर से उधर, उधर से इधर होती रही। उज्मा की हालत देखती तो कलेजा फट जाता। उसका चेहरा, बदन चोटों से भरा रहता था। बड़ी मशक़्क़तों के बाद ही मौलवी कुछ देर को मिलने देता था। 

“बहुत दबाव के बाद उसने अपने एक दलाल के ज़रिए तलाक़ के बदले पाँच लाख रुपये की माँग कर दी, जो बहुत मिन्नतें करने के बाद दो लाख रुपए में तय हुई। तब जाकर उसने तलाक़ दिया। यह पैसा भी मेरे घर वालों ने किसी तरह इंतज़ाम करके दिया। 

“उज्मा के निकम्मे जुआड़ी-शराबी शौहर ने एक पैसा नहीं दिया। हमारी बदक़िस्मती इतनी ही नहीं रही, जब उज्मा घर आ गई तो पता चला कि शौहर ने एक दूसरी औरत से निकाह कर लिया है। इस बात को लेकर भी बड़ा बवाल हुआ। उज़्मा तब से घर पर पड़ी है। 

“इतनी चिड़चिड़ी हो गई है कि बच्चों को अपने पास भी नहीं आने देती, छोटे-छोटे बच्चों को बेवजह पीटती है। बड़ी ऊल-जुलूल बातें करती है। कहती है, ‘जानवरों से भी गई-गुज़री हो गई है ज़िन्दगी। ऐसी बदतरीन ज़िन्दगी से तो बेहतर है मर जाना। सबसे अच्छा जीवन तो हिन्दू औरतों का है। उन्हें वो देवी मानते हैं। हिन्दू ही बन जाऊँ तो अच्छा है।’ उसका, उसके तीनों बच्चों का भविष्य क्या होगा, कुछ समझ में नहीं आ रहा है। घर का पूरा माहौल ऐसा तनावपूर्ण रहता है कि जीना मुश्किल हो गया है। घर जाने का मन नहीं करता।” 

अब-तक रूबिका बहुत भावुक हो गई थी, आँखों से आँसू टपकने लगे थे। महबूबा ने कहा, “तलाक़ ए बिद्दत के ख़िलाफ़ क़ानून है। उसके शौहर, मौलवी के ख़िलाफ़ रिपोर्ट क्यों नहीं लिखवाई।” 

“रिपोर्ट दोनों के ख़िलाफ़ है, मुक़दमा चल रहा है। उज्मा की रिपोर्ट लिखवाते समय मन में आया कि मेरा शोषण जिस तरह से सईद ने किया उसकी रिपोर्ट मैं कर दूँ, लेकिन कुछ सोच कर चुप रही। उन्होंने तुम्हारे साथ क्या-क्या किया, वह भी मुझ से छुपा नहीं है। 

“मैं तो समझ नहीं पा रही हूँ कि तुम इतना सेक्सुअल हैरेसमेंट झेलने के बाद भी, अब भी उनके साथ कैसे इतनी शिद्दत से लगी हुई हो। क्या तुम्हारे मन में ज़रा भी ग़ुस्सा नहीं आता या तुमको भी वह सब अच्छा लगता है। 

“अरे वह और उनके जैसे लोग हमारी-तुम्हारी जैसी औरतों के कंधों पर बंदूक रखकर हल्द्वानी में जो दूसरा शाहीन बाग़ खड़ा करने पर तुले हुए हैं, उसमें हमें तुम्हें सिवाय बर्बादी के और कुछ नहीं मिलेगा, लेकिन यह तय है कि उनकी जेब में अब-तक करोड़ों रुपए आ चुके हैं। 

“जिस संगठन पर अभी प्रतिबंध लगे हैं, देश में तबाही मचाने की साज़िश रचने के आरोप में, यह उस संगठन के ऐसे कर्ता-धर्ताओं में से हैं, जो चेहरे पर नक़ाब लगाएँ बड़े पाक-साफ़ दिखते हुए काम करते हैं। लेकिन झूठ एक दिन सामने आएगा ही, तमाम पकड़ के जेल भेजे गए हैं, कोई ताज्जुब नहीं कि जल्दी ही एक दिन यह भी धरे जाएँ। इसलिए तुमसे भी कहती हूँ कि अपना कैरियर देखो, उनके साथ लगी रही तो किसी दिन तुम भी आरफा की तरह क़ानून के शिकंजे में फँस सकती हो, जेल पहुँच सकती हो।” 

रुबिका की बातों से महबूबा के चेहरे पर ग़ुस्से की रेखाएँ बहुत गाढ़ी हो गईं। उसने कहा, “रुबिका तुम जातीय दुश्मनी के कारण क़ौम पर हो रहे काफ़िरों के हमले के ख़िलाफ़ एक क़दम नहीं बढ़ाना चाहती, तो न बढ़ाओ, तुम यह गुनाह करना चाहती हो, तो करती रहो, मर्ज़ी तुम्हारी, लेकिन ख़ुद को बचाने के लिए आरफा की आड़ मत लो। 

“सईद साहब ने न ही मेरा और न ही तुम्हारा, किसी का कोई बेजा फ़ायदा उठाया है। पढ़ी-लिखी तुम भी हो और मैं भी हूँ। कोई बच्ची नहीं कि सईद साहब या कोई भी बिना हमारी मर्ज़ी के हमें छू ले। इसलिए उन पर कोई तोहमत लगाने की ज़रूरत नहीं है।” 

यह सुनते ही रूबिका भड़क उठी। उसने कहा, “सईद जैसे लोग कैसे हमारी-तुम्हारी जैसी पढ़ी-लिखी शेरनियों का जाल बिछाकर शिकार करते हैं, यह तुम भी बहुत अच्छी तरह जानती हो। मगर जब तुम्हें शिकार होने में ही मज़ा आता है, तो तुम कैसे कह सकती हो कि तुम्हारा शिकार हो रहा है। यह मज़ा तुम्हें मुबारक। 

“मैं किसी सईद के इशारे पर नाचने को अब तैयार नहीं। काफ़िर और क़ौम के नाम पर यूज़ करना बंद करो। इतिहास से तुम लोगों ने कुछ जाना हो या न जाना हो, लेकिन उसमें लिखी बातों को हथियार बनाना बड़ी अच्छी तरह जान लिया है। मगर मैं अब किसी का हथियार बनने के लिए तैयार नहीं, इसलिए मुझे तुम माफ़ करो। 

“अपने सईद साहब से जाकर कह देना कि क़ौम की बड़ी चिंता है तो पहले क़ौम की महिलाओं पर ख़ुद वह और उनके मौलवी जो अत्याचार कर रहे हैं, उसे बंद करें। उन्हें जो दोयम दर्जे का बना कर रखा हुआ है, मस्जिद में नमाज तक पढ़ने नहीं देते, क़ानून बन जाने के बाद भी तीन तलाक़ देकर औरतों को सड़क पर फेंक देते हैं, उनके साथ जो ज़्यादतियाँ हो रही हैं, उनको पहले उनसे नजात दिलाएँ। उसके बाद काफ़िरों का डर दिखाकर रोज़ नए-नए शाहीन बाग़ खड़ा करें और अपनी जेबें भरें।” 

यह सुनते ही महबूबा तैश में आकर खड़ी हो गई। आँखें तरेरते हुए कहा, “तुम रास्ता भटक गई हो रुबिका, तुम किसी काफ़िर के बहकावे में आ गई हो, इसीलिए ऐसी बातें कर रही हो। मैं अल्लाह ता'ला से दुआ करूँगी कि वह तुम्हें सही रास्ते पर जल्दी ले आएँ और तुम जल्दी ही फिर से मेरे साथ आओ, अपनी क़ौम के साथ।” यह कहती हुई वह कमरे से बाहर निकल गई। 

रूबिका ने भी उसे सुनाते हुए कहा, “मैं भी अल्लाह ता'ला से दुआ करूँगी कि वह तुम्हें और सईद जैसे लोगों को सही और ग़लत रास्ते का फ़र्क़ जानने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाएँ।” वह उसे दूर तक जाते देखती रही, उसकी एकदम नई स्कूटर को भी, जिसकी चमकीली टेल लाइट शाम होते ही पड़ने लगे कोहरे में जल्दी ही गुम हो गई।

               ~ ~  ~ ~

 परिचय 

प्रदीप श्रीवास्तव      

जन्म : लखनऊ में जुलाई, १९७०

प्रकाशन :

उपन्यास–

'मन्नू की वह एक रात' - पहला संस्करण अप्रैल, २०१३ में (प्रिंट), दूसरा संस्करण (ई) सितम्बर, २०१३ में पुस्तक डॉट ऑर्ग अमेरिका से, तीसरा संस्करण दिसंबर, २०१६ में पुस्तक बाज़ार डॉट कॉम कैनेडा से, चौथा संस्करण मातृभारती डॉट कॉम गुजरात से प्रकाशित)

'बेनज़ीर- दरिया किनारे' का ख़्वाब- २०१९ में पहला संस्करण पुस्तक बाज़ार डॉट कॉम कैनेडा से, इसी वर्ष दूसरा संस्करण मातृभारती डॉट कॉम गुजरात, भारत से, तीसरा संस्करण (प्रिंट) प्रकाशनाधीन    

'वह अब भी वहीं है' २०२० में पहला संस्करण पुस्तक बाज़ार डॉट कॉम कैनेडा से, इसी वर्ष दूसरा संस्करण मातृभारती डॉट कॉम गुजरात से.

'अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं'  पहला संस्करण २०२२ में मातृभारती डॉट कॉम गुजरात से, दूसरा संस्करण पुस्तक बाज़ार डॉट कॉम कैनेडा से प्रकाशनाधीन.   

कहानी संग्रह–'मेरी जनहित याचिका', 'हार गया फौजी बेटा','औघड़ का दान','नक्सली राजा का बाजा', पहला संस्करण कैनेडा से दूसरा भारत से. ('शब्द निष्ठा पुरस्कार-२०२३' से पुरस्कृत पुस्तक।')

'मेरा आखिरी आशियाना'

'मेरे बाबू जी'

'प्रोफ़ेसर तरंगिता'

'' टेढ़ा जूता ''  कहानी  RVS COLLEGE OF ARTS AND SCIENCE (AUTONOMOUS)

SULUR, COIMBATORE – 641 402. के पाठ्यक्रम में सम्मिलित 

कथा संचयन-

मेरी कहानियाँ : खंड-एक जून २०२२ में कैनेडा से प्रकाशित

(एक हज़ार सात सौ तीन पृष्ठों में पचीस लम्बी कहानियां)

मेरी कहानियाँ : खंड-दो, प्रकाशनाधीन 

(दो हज़ार से अधिक पृष्ठों में बत्तीस लम्बी कहानियां)

 - मातृभारती डॉट कॉम पर मेरी पुस्तकों की डाऊनलोड संख्या करीब पांच लाख और व्यूज की संख्या १.२ मिलियन से अधिक हो रही है.  

नाटक– 'खंडित संवाद के बाद', कहानी एवं पुस्तक समीक्षाएँ, साक्षात्कार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित

संपादन-  'हर रोज़ सुबह होती है' (काव्य संग्रह) एवं वर्ण व्यवस्था पुस्तक का संपादन.

पुरस्कार- ‘मातृभारती रीडर्स च्वाइस अवॉर्ड’ -२०२०, विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में प्रदान किया गया. 

‘उत्तर प्रदेश साहित्य गौरव सम्मान’-२०२२, बरेली, उत्तर प्रदेश में प्रदान किया गया.

डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव स्मृति 'कहानी सम्राट सम्मान'-२०२३, हिंदी संस्थान, लखनऊ, उत्तर प्रदेश में प्रदान किया गया.  

'शब्द निष्ठा पुरस्कार'-२०२३ अजमेर, राजस्थान में प्रदान किया गया.  

सम्पर्क : pradeepsrivastava.70@gmail.com, psts700@gmail.com      

ब्लॉग: https://tatsamtadbhav.blogspot.com/  ,    मो.नं. 8299756474

मेरी कहानियों को यू ट्यूब चैनल kahanitime pradeep पर सुना जा सकता है.




कहानी -रावण गाथा - डॉ. संदीप अवस्थी

    




 रावण गाथा

~डॉ. संदीप अवस्थी

        

  लगता नहीं इस आर्यों के देश में कोई कभी मुझे सुनेगा ,मुझसे बात करेगा।कभी मेरा भी पक्ष जाएगा या नहीं लोगों तक या ऐसे ही सदियों तक मेरे पुतले जलाए जाते रहेंगे? आज किसी भी अफसर,नेता का पुतला जलाओ तो दस लोग रोकने पहुंच जातें हैं। मुझे तो सारे के सारे भरी भीड़ के सामने जला देते हैं। मैं अपने देश का राजा, यशस्वी राजा,जिसने कई देवताओं तक को युद्ध में परास्त किया।अर्थ ,अनर्थ, शुभ अशुभ का ज्ञाता। शिव की ऐसी अखंड तपस्या,जो किसी ब्राह्मण के भी वश की नही ,मैंने की और साक्षात भोलेनाथ ने वरदान दिया।कभी मैंने अपने राज्य विस्तार के लिए हजारों कोस दूर अयोध्या तो छोड़ें किसी अन्य मानुष के राज्य पर कभी आक्रमण नहीं किया। हां,जिस तरह आदिवासी,या आज के अफ्रीकन मूल के लोग अलग रंगत और नैन नक्श के हैं वैसे ही हम भी थे।और आज भी विश्व में उनको भी वही अधिकार और सुविधाएं हासिल हैं जो अमेरिका,इंग्लैंड और यूरोप के किसी भी नागरिक को। तो फिर मेरे और मेरे देश लंका के साथ यह भेदभाव क्यों?  क्या मुझे,हमारे जैसे आदिवासियों,या असुरों को  भगवान ने अलग से बनाया और आपको अलग भगवान ने? ऐसा तो नहीं होता !! तो फिर मेरी सोने की लंका में ,जिसमें पूर्ण शांति थी,अमन चैन था और शासक ब्रह्मज्ञानी,शूरवीर योद्धा और परम प्रतापी रावण था। कुछ अज्ञानी मुझे वेदों ,उपनिषदों का ज्ञाता भी कहते हैं। पर यह तो मेरे हजारों वर्ष बाद आए। त्रेतायुग में यह वेद,आरण्यक,उपनिषद कुछ नही था। हमें इसके बिना ही सब ज्ञान भगवान की आराधना से मिला था। यहआपके लिए सूचना है की हमारे भगवान शिवजी,इंद्र या अन्य आपके ही थे। कोई असुर राक्षस जैसा भगवान हमारा कोई  क्यों नही था? निरंतर एकतरफा और पक्षपाती  व्यवहार से मुझे लगा की मेरी बात आपके सामने रखना उचित होगा। आप जो सभी मानव,संवेदनशील और खरे इंसान हैं। रखने का जरिया यह लिखे शब्द हैं। 

आप क्या सोचते हैं रावण मार दिया गया? क्या विभीषण  जैसे कुलद्रोही भाई के व्यवहार और दुश्मन खेमे में मिल जाने के नुकसान का मुझे अंदाजा नहीं होगा ? वह श्री रामचंद्र क्षत्रिय युवराज को मेरे प्राणों का ही रहस्य बताएगा। जिसने तीनों लोकों को नापकर ,फिर भी पाताल लोक,देवलोक  उनके निवासियों के लिए छोड़ दिया। उस दशानन को वह कल का युवराज मुझे मार सके। यकीनन मैं जानता था,मुझे पता था और उसका उपाय भी मेरे पास था। परम ज्ञानी यूं ही नही कहा जाता मेरे को। तो मैंने बचाव किया,योजना बनाई ,प्लान बी भी था मेरे पास पर उसकी जरूरत नही पड़ी  तो अभी भी और रहती दुनिया तक मैं जिंदा हूं और यहीं हूं। वह दस सिर मेरे अब असंख्य हो गए हैं। और सम्पूर्ण पृथ्वी के अलग अलग भाग पर रहता हूं मैं। परंतु जैसे हत्यारा,बलात्कारी,डाकू,दुष्ट आपके देश काल में हैं वह मैं नहीं हूं। यह तो अन्य पिचाशीय बाधाएं हैं,जिनका हल प्रभु के पास है परंतु अब कोई उतनी साधना नही करता जितनी मुझ रावण ने की।मुझे कहें तो पृथ्वी और प्राणियों के लिए मैं फिर भोलेनाथ को प्रसन्न कर इस धरती के लिए वरदान मांग लूंगा। लेकिन जब मैं  जाऊंगा और समस्याएं खून खराबा,बलात्कार,अपराध,आतंकवाद खत्म कर दूंगा तो फिर जग में जगह जगह बने मंदिरों,धार्मिक स्थलों में जो खुद ही मूर्ति बना बैठा है ,उसके पास आप जाना बंद कर दोगे  और यही मैं नहीं चाहता। मुझे अपनी मूर्ति, या जगह जगह तमाशा नही करना। यह शासन का, राजा का कर्तव्य है की प्रजा खुशहाल रहे,देश में शांति रहे, उसके लिए राजा की पूजा हो यह बहुत ही अजीब बात है।

 मैंने अपने कर्तव्य का पालन,शासक होने के नाते किया  की मूर्ति बनाकर मेरी पूजा करवाने के लिए ?   तो इसीलिए मुझे सदियों पहले से ही बाहर कर दिया गया और ऐसा इंतजाम किया की कभी भी मैं आऊं तो कोई भी मेरा नाम तो दूर मेरा चित्र तक  हो। प्रभु होकर इतनी असुरक्षा क्यों? मेरी आत्मा भी आपने ही तो बनाई है जगत के स्वामी,पालनहार ? फिर मुझे ऐसी नाराजगी क्यों की ? मुझे हमेशा के लिए इस भूमि,पृथ्वी से निकाला और लांछन अलग।   और आज मैं सभी का जवाब दूंगा।  आप मेरी पूरी बात सुनकर फिर फैसला करना की मुझे जलाना कितना सही या गलत फैसला है   "मेरे विचार से यह केवल हमदर्दी पाने और किए हुए  हतकर्म को कम दिखाने का एक प्रयास है इनका। और इतनी सदियों,शताब्दियों और सभ्यता के बीत जाने के बाद यह सब कहना बिलकुल फिजूल और व्यर्थ गाल बजाना है।

 यह सब कहने और दूसरे को ग्रे शेड में दिखाने से इनके चरित्र और मुख पर पुती कालिख कम नहीं हो जाएगी। लिहाजा इनकी बातों को यहीं रोककर ,इन्हे इनकी सजा,_कहकर दो पल को मुनिवर नारद रुके, मुस्कराकर तिरछी निगाह  कटघरे में सिर झुकाए बैठे रावण पर डाली और न्यायिक बेंच से बोले _ "जब से श्री राम जी की विजय गाथा चली है तब से चल रही सजा को ही बाकी दुनिया तक चलने देना चाहिए  यही मेरी इस अदालत से प्रार्थना है।"                       सातों आसमान से ऊपर,सितारों के मध्य और यक्षों, गणों,देवी देवताओं की मौजूदगी में लगी अदालत  न्यायधीश  स्वयं ब्रह्म और विष्णु जी मंद  मंद मुस्कराते विराजमान हैं। असुर सम्राट ने उन दोनो की ओर देखा ।एक धीर गंभीर मुद्रा में कुछ नोट कर रहे फाइल में तो दूसरे सारगर्भित स्मित से उसे देख रहे।            मंद मंद मुस्कराया दशानन,                         "देखिए ईश्वर भी मनुष्य,देवता और असुरों के एक ही हैं। मैं बताना चाहूंगा हम असुर, मानवों से अलग प्रजाति और अपने अलग राज व्यवस्था में रहते हैं। परंतु विधाता ने हमें भी वह सभी सुविधाएं दी हैं जो मानव को। प्रजनन,हवा,पानी,रंगों की दुनिया, सुख,दुख सभी देने में उसने भेद नहीं किया।     कुछ उत्पात मचाने वाले तत्व हर समुदाय में होते हैं जो ऋषि मुनियों की तपस्या में बाधा बनते। चाहे वह खर,दूषण,अक्षय कुमार हो या अन्य राक्षस  उन्हे दंड मिलता भी रहा है  क्या ऋषि मुनियों के पास तप जप की शक्तियां नही थीं जो इन उत्पात मचाने वालों को रोक ,नष्ट कर देती?" या वह सब दिव्य शक्तियां केवल आम मानव,अहिल्या पर ही चलती उनका हम असुरों पर असर नहीं होता? फिर तो हम विशेष हुए। और स्वयं मैंने शिवजी को अखंड तपस्या कर कई कई बार वरदान और दिव्य शक्तियां ली थीं। तो एक तरह से मैं भी तो संत,ऋषि मुनि हुआ या नहीं ? " अदालत में सन्नाटा। 

सब सन्न से दशानन की ठोस पर विनम्र आवाज में खोए हुए।  चतुर सरकारी वकील बने नारद ने तुरंत हस्तक्षेप किया," छी,छी छी एक राक्षस,असुर अपने आपको ऋषि तुल्य रख रहा।नारायण नारायण, नारायण  यह बेकार की बात है प्रभु, (my lord)  बेकार क्यों? जो भी घनघोर तपस्या के मानदंड है वह सब मैंने पालन किए। मेरी भी जटाजूट ,शरीर पर चिटियों,प्राणियों ने घर बना लिए थे।मुझे कुछ भी भान नहीं था सिर्फ मेरे शिव की भक्ति के। तो मैं सन्यासी,योगी हुआ या नहीं?""क्या तुम्हे यह अहसास है उस युग में किसी नारी का ऐसे बलात अपहरण करना और उसे सैंकड़ों मील दूर कैद में रखना पहला भयंकर अपराध था।"कहकर नारद ने कोर्ट का ध्यान मुद्दे पर दिलाया।            "इस विषय पर बोलने से पहले मैं कुछ पूछना चाहता हूं माननीय न्यायालय से।" विष्णु जी स्मित हो अनुमति का संकेत दिए। "क्या यह मुकदमा आस्था, मिथ पर चलेगा या तर्क और यथार्थ पर? क्योंकि इसकी ही आड़ में सदियों से आज तक हमारे साथ खिलवाड़ होता रहा है। "नारद सहित देख रहे असंख्य गणों,देवी देवताओं, यक्षों, अप्सराओं आदि ने रावण को ,इतिहास के सबसे बड़े खलनायक को देखा।  "क्या कहना चाहते हो,साफ साफ कहो।" ब्रह्मा जी की धीर गंभीर वाणी गूंजी। 

चारों धरतीलोक, पाताललोक और  सातों आसमान के पार देखता वह सामने न्यायपीठ से विनम्रता से बोला,"यही की ऐसा तो नहीं की जो बातें मेरे पक्ष में हो उन्हे तो ऐसा होता है,प्राचीन परंपरा है कहकर खारिज कर दिया जाए। और जो बातें मेरे खिलाफ हो उन्हे ,यह तो गलत है ही,कहकर स्वीकार कर लिया जाए? ऐसा तो नही की व्यक्ति व्यक्ति में फर्क किया जाएगा? हमारे लिए अलग और श्री राम के लिए अलग कानून होगा? यदि ऐसा है तो बता दें मै अभी ही अपनी बात खत्मकर कोई भी सजा भुगतने को तैयार हूं।" दोनो न्यायधीश सोचते रहे और कुछ सिर झुकाए मंत्रना करते रहे। नारद मुनि बीच में खड़े होकर बोले,"यह न्याय को भटकाने की इसकी चाल है। आप पहले से न्याय को इस या उस हिस्से में नही बांट सकते।" कोर्ट कुछ देर बाद बोली,"इस बारे में अभी से कुछ आश्वासन देना उचित नहीं।यहां सभी की उपस्थिति में तथ्यों, किए गए अपराध के लिए दोषी और निर्दोष का फैसला होगा। पहले से ही हम यह नहीं कह सकते जब तक मामले की प्रकृति, हालात और उसके ओचित्य को समझ   लें।

 आपका मुकद्दमा कोन लड़ेगा?"  "धन्यवाद,आपका यह कहना भी काफी है की गुणदोष के आधार पर मामला तय होगा। "_दो पल रुककर और सभी को देखते हुए उसने कहा,"अपनी लड़ाई खुद ही लड़ी है तो यहां भी आपकी अनुमति से खुद ही लडूंगा " आसमान पर सन्नाटा था।और यहां दिन और रात,सूरज और चांद,समय  खुद एक तरफ खड़े थे तो कोर्ट के अगले दिन का कोई प्रश्न नही था। रावण उठ खड़ा हुआ और जब बोला तो उसकी आवाज में दर्द और पीड़ा थी,  "हे सर्वज्ञ ज्ञाता,  मेरा यह कहना है की जब रामभार्या सीता, को मैं लेकर गया और उसको अशोक वाटिका,अपने राजमहल में रखा तो यह मेरे "प्रथम जघन्य अपराध में  गया" जैसा अभी मुनिवर ने कहा परंतु उससे पहले जो एक स्त्री के,एक राजकुमारी के ,मेरी प्यारी बहन शूर्पणखा के साथ हुआ वह तो कभी भी कहीं भी संज्ञान में लिया ही नही गया? एक स्त्री को कुरूप,बदसूरत बना देना,एक राजकुमारी को जो प्रणय निवेदन कर रही थी, वह भी श्री रामचंद्र के अनुमति से लक्ष्मण के साथ  उसे आर्यपुत्र द्वारा कुरूप बना देना, नाक कान काट देना क्या जघन्यतम अपराध नहीं? क्या ऐसा पहले हुआ इस भूमि पर? वह भी स्वयं नारायण के सामने। क्या हमारी बहन,हम जंगलवासियों की स्त्रियां,बहनों के दर्द ,तकलीफ,अपमान नही होता? प्रणय निवेदन से यह इनकार तो आज कलयुग में तेजाब डालकर,स्त्री के टुकड़े टुकड़े कर देना,हत्या कर देना हो रहा है उसकी नींव वहीं पड़ी। " कहते कहते उसका गला भर आया,वह रुका आसपास,उपर तक सन्नाटा छाया था।लोग सन्नाटे में थे। "आज तक कोई भी उस अति रूपवती,असुर सुंदरी ,राजकुमारी मेरी बहन का जिक्र किसी किताब,ग्रंथ में नही  

वह तो ऐसे भुला दी गई जैसे उसका होना, हम असुरों, राक्षस प्रजाति का होना ही अपराध है। इस धरती पर तो सिर्फ राजा,राजकुमार ,देवदूत,अवतार ही रहें। हम लोग,आदिवासी,जंगल निवासियों को तो रहने का अधिकार ही नहीं,हक ही नही?"                  अब नारद उठे, " नारायण,नारायण यह विषय से भटका रहा है। यह भावुकता से कोर्ट के फैसले नही होते। और किसी के रहने  रहने का अधिकार स्वयं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी ने,हुजूर ने दिया हुआ है  उस पर कोई प्रश्न ही नहीं है ।फिर इसे क्यों मुद्दा बना रहा है वादी? इस पर गौर नही किया जाए।"            "वादी को कहा जाता है वह विषय से भटके नही और जो बातें सभी जानते हैं उन्हें  कहे। सभी जीव जंतुओं के मूलभूत अधिकारों और रहने के स्थानों का निर्धारण किया गया है। सीमा का अतिक्रमण ही विवाद को जन्म देता है।" नारद जी तुरंत खास व्यंग्य के लहजे में  बोले,"यही वजह रही जब सुदूर देश लंका की भ्रमणशील,चंचला,सुंदरी राजकुमारी कामांध होकर वन में विचरण करती दो स्वस्थ हष्टपुष्ट राजकुमारों पर मोहित हो गई  उसकी मासूमियत देखें की सीता मां के सामने ही उनके पति राम को प्रणय निवेदन कर रही!! यह भी कभी इतिहास में नही हुआ?" कहकर तिरछी निगाह से उन्होंने रावण को देखा। सिर झुकाए बैठा रावण खड़ा हुआ और गंभीर आवाज में बोला," आज बात उठी है तो इस युद्ध की वजह और जड़ मैं स्पष्ट कर ही देता हूं। फैसला आगे आप सभी करें जो जूरी के सदस्य हैं।बात उचित है शूर्पकर्णखा को ऐसे दूसरे प्रजाति और देश के राजकुमारों को प्रणय निवेदन नही करना था। 

परंतु ऋषिवर नारद की यह बात गलत है की विवाहित पुरुष से प्रणय निवेदन गलत है। स्वयं श्री राम के पिता दशरथ की तीन तीन पत्नियां थीं।  पर यह उनकी निजी जिंदगी है मैं उसमें नही जाऊंगा। पर यह बात अकाट्य है की प्रेम निवेदन को ठुकरा दें,मना कर दें पर स्त्री और वह भी राजकुमारी के नाक कान  काटना बिलकुल भी न्याय संगत नहीं। और इसकी सजा या सुनवाई कहीं नहीं हुई  तब और  इससे पहले। और वह खर,दूषण दोनो मेरे खानदान के वीर योद्धा के पास गई खून से लथपथ। चिकित्सकऔर वैद्य,ज्ञानी,आचार्य शुक्राचार्य और उनके बहुत से योग्य शिष्यों को हमने सब जगत तैनात कर रखा था। तो हमारी बहन की मरहम पट्टी समय पर हुई। अन्यथा कुछ भी हो सकता था।  परंतु आगे इससे भी बुरा और भयानक हुआ जिसे कोई भी अदालत उचित नहीं कह सकती।  वह  रुका और देखा की तभी नारद के पास एक देवता कुछ लिखे हुए बेलपत्र लेकर आया और मुनिवर उसे गौर से देखने लगे। रावण के माथे पर क्षण मात्र को बल पड़े पर फिर वह आगे पैरवी करता बोला,"फिर खर,दूषण जब गए बात करने,और मिलने  ऐसे योद्धा से  जो अकेली स्त्री के नाक कान काट सकते हैं प्रणय निवेदन के बदले। तो आप जानते ही हैं उन दोनो की हत्या कर दी गई ।साथ ही कई सैनिक भी उन लोगों ने मार डाले। यहां से बात मेरे संज्ञान में आई और मुझे गंभीर लगी की हमारे क्षेत्र, वनों में जहां कभी कोई असुर, राक्षस मारा नही गया वहां मेरे प्यारे  खर और दूषण और मेरे  सैनिक मार डाले गए।वह भी मात्र दो मुनि जैसे युवाओं द्वारा?"                     

 "प्रभु,प्रभु यह तो ऐसा ही है जैसे शेर या भेड़िया कहे की बकरी मुझे धमका रही हो ,की मैं तुझे खा जाऊंगी " खुले आसमान में कई हंसी के स्वर नारद की बात सुनकर गूंजे।"इस बिंदु पर यह  बताना उचित होगा की वह दोनो देत्य  खर और दूषण निरीह मानुषों को मारकर भक्षण करते थे। ऋषि मुनियों की तपस्या,झोपड़ी तोड देते थे। पूरे वन क्षेत्र में इन राक्षसों का आतंक था। तो जब दो वीर योद्धाओं ने उन्हे अपनी बहादुरी और युद्ध कौशल से परास्त किया तो कैसा रोना? वह तो यह सोचकर आए थे की इन दोनों श्री राम और लक्ष्मण का भी भक्षण कर लेंगे। तो हिंसा को उतारू,हिंसक लोगो को मारकर राम ने तो वनवासियों की रक्षा ही की। और यह उनका  कर्तव्य था। रही बात राजकुमारी शूर्पकर्णका की तो यह तो उसे बेहद सामान्य  सजा दी। कृत्य तो उसका अक्षम्य था। एक विवाहित युवक को उसकी पत्नी के ही सामने रिझाने और शादी का प्रस्ताव रखने की घटिया हरकत एक राक्षसी ही कर सकती है। फिर भी राम,सीता ने सहजता से इस अप्रिय प्रसंग को झेला। लक्ष्मण के बार बार मना करने पर भी वह नही मानी।  

यह ध्यान  रखें की वह उन लोगों के सामने रूपवती स्त्री का मायावी वेश बनाकर गई थी,  की राक्षसी का। तो उस मायावी के ,जो ऐसी दुष्ट आत्माओं के साथ किया जाता है ,बाल या नाक ,कान काटे ही इसलिए जाते हैं की यह माया अपने असली स्वरूप में  जाएं और भाग जाएं। लेकिन वह दुष्ट अपनी तमाम गलतियों से भी नही सुधरी और जाकर इस असुरराज रावण को दो की चार, बढ़ा चढ़ाकर घटना बताई। और इतना ज्ञानी, वीर दशानन अपनी बहन की कारगुजारियां जानते हुए भी उसकी हिमायत में यहां पंचवटी  धमका ?? " कहकर मुनिवर चुप हुए ,चारों ओर सन्नाटा था। सत्य अपनी जगह और तथ्यों की रोशनी में जगमगा रहा था। दशानन सिर झुकाए सब सुन रहा था।  डायस पर विष्णु भगवान नोट करते हुए मुस्कराए और बोले," नारद,कलयुग में भी तुम्हारे कई अवतार और चाहने वाले होंगे। जिस तरह तुमने सच्चाई को जाहिर किया वह सराहनीय है।परंतु इससे मुलजिम रावण की शिकायत दूर नहीं होती  ,की उसे क्यों बुराई का प्रतीक ,अधम ,नीच मानकर सदियों से कलंकित किया जाता है?"  नारद अपनी मनमोहक मुस्कान के साथ आधे  आसमान में टहलते हुए सामने झुके और बोले,"आपके आशीर्वाद से यह नारद जब भी जहां भी अन्याय, घात,प्रतिघात होगा सदैव उसे सामने लाएगा। 

अब एक मिथ, गलतफहमी भी आज दूर करता हूं।जो रहती दुनिया तक इसे सहानुभूति दिलाती रही पर यह झूट था।" ऋषिवर नाटकीय रूप से रुके,देखा सब उत्सुकता से उन्ही की तरफ देख रहे। सामने हवा में दिखाई दे रहे बेलपत्र को उठाया और बताया,"उस प्रणय निवेदन वाली  राक्षसी के कटे हुए नाक,कान भी  मायावी थे   वह बाद में रावण को दिखाने के बाद पुनः अपने मूल स्वरूप में  गई थी। जिस तरह मायावी चीज का आप वध भी करदो तो वह ,जो यह माया रच रहा होता है,उसका बाल बांका भी नही होता। और इस बात को भला रावण से बेहतर कौन जानता है? जी हां, शूर्पकर्णखा के नाक कान कटे ही नही। वह मायावी,धूर्त अपने मूल रूप और नैन नक्श में ही रही " कोर्ट में हलचल होती है।कई यक्ष, गण,देवता मुस्कराते हुए सिर हिलाते हैं।  रावण परेशान दिखता है  मुनिवर आगे अपनी धीर, गंभीर वाणी में आगे कहते हैं,"कलयुग तक मानव जाति और उसके कुछ जड़, जिद्दी लोग यही सच मानते रहे की एक राजकुमारी के नाक कान कटे, बहुत बड़ा अपराध दशरथ पुत्रों से हुआ। जबकि ऐसी कोई बात नही थी। मायावी के हाथ, सिर सब काट दिए जाएं तो भी उस माया का कुछ नही बिगड़ता। यानि जो मुद्दा बनाया गया, वह था ही नही।फिर भी रावण खुद चला आया जानकी को,एक मानुषी,पतिव्रता स्त्री को हरण करने? वह भी साधुवेश धरकर? यही इसके मन के खोट,फरेब को दिखाता है।  यह राक्षसी सोच पर स्त्री की चाह और सबसे बढ़कर इसका अहंकार कि जिसे देवता भी परास्त नहीं कर पाए,जिसके संगी साथी सब पूरी धरती ही नही पाताललोक तक में अत्याचार कर रहे। 

असंख्य निर्दोषों की हत्याएं ही नही कर रहे उन्हे जिंदा खा भी रहे,उसके राक्षस लोगों को दो वन में आए युवक मार देते हैं!! इतनी हिम्मत!!यह दुस्साहस ? इसीलिए पापी  और कामी रावण ने सीता मां का बलात अपहरण किया। वह भी पूरी तैयारी और सोची समझी साजिश से। आप सभी जानते हैं की वह हिरण भी मायावी था,और इस पापी का वेश भी एक साधु ,पुण्यात्मा का था।राम ही नही उनके अनुज ने भी जानकी की रक्षा के लिए ऐसी अकाट्य लक्ष्मण रेखा खींची थी कि रावण भी उसे पार नहीं कर पाया था। यह साजिश,यह छलना किसी की पत्नी को उठा लाना ,और अपने महल में कैद रखना यह इतनी नीच,शर्मनाक और कलंकित करने वाली घटना थी की उससे पहले और कलयुग तक में नही होती। हुई तो पापी को तुरंत कानून और समाज ने सजा दी। इसीलिए इस लंकापति के रहती दुनिया तक पुतले जलाए जाते हैं और बुराई का प्रतीक इसे माना जाता है।" सातों आसमान देव ,गणों,नक्षत्रों,अप्सराओं की तालियों से गूंज उठे। 

अब लंकापति से रहा नही गया उसने चारों ओर, ऊपर तक गर्दन घुमाकर देखा। और विनम्रता की मूरत बने नारद मुनि को भी         "फिर तो फेसला हो गया। मै दोषी हूं पर इस बात को लेकर बहस नहीं हुई की क्यों मैंने इन दोनो राजकुमारों को वहीं पंचवटी में नही मारा? क्यों मैंने, जिसने इंद्र से लेकर कुबेर ,यम तक को परास्त किया हुआ है इन्हे आगे बढ़ने दिया? त्रिकालदर्शी हूं मैं तो क्या मैंने इनमें साक्षात नारायण को नहीं पहचाना? और सबसे जरूरी बात  सीता को अशोक वाटिका में रखा।उसे कोई तकलीफ मेरे से नही होने दी।मेरी परछाई भी नही पड़ी उस पर। यदि मै चाहता तो युद्ध से पूर्व ही मेरे गुप्तचर विभीषण का वध कर देते।फिर अकेला रावण ही इस पूरी चतुरंगिनी सेना के लिए काफी था।" वह रुका और एक चौपाई पढ़ी,"_____ "देखिए,प्रभु का नाम आखिर इनके मुंह पर  गई गया !! और रावण महोदय सीता को यह शक्ति प्राप्त थी की तुम उसकी परछाई भी छूते तो भस्म हो जाते। तो यह मत कहो।कोशिश तुमने उसे रिझाने,बहलाने की बहुत की। अपनी मुहलगी दासियों से प्रलोभन दिलवाए। सोचकर ही घृणा होती है की एक राजा ,अपनी महारानी ,पत्नी मंदोदरी के होते हुए भी परस्त्री को बलात  हरण करके कैद में रखता है। और उसकी पत्नी भी देखती रहती है और सीता मां को आजाद नही करती। यह भी पाप की श्रेणी में आता है। नारायण, नारायण,नारायण "  न्यायपीठ से ब्रह्मा जी ने नारद को हाथ के इशारे से मौन रहने को कहा।  फिर वह बोले, "दशानन,आपको जो कहना है वह तथ्यों की रोशनी में कहो। ऐसे इधर उधर की बातों से आप पर लगा कलंक मिट नही जाएगा। तो be spacific and to the point " विष्णु जी,साक्षात विधाता,सब भाषाओं के ज्ञाता और बारंबार ग्रहों पर अवतार लेकर वहां व्यवस्था ठीक करने वाले मुस्कराए।

आजकल वह पृथ्वी के अलग अलग हिस्सों में हैं। वह ईरान में हिजाब,बुर्के का विरोध करती स्त्री के रूप में हैं। जो टैंकों,मशीनगनों के सामने डटी हैं और उनके पुरुष,नेता,विपक्ष,शिक्षाविद और दुनियाभर के प्रगतिशील दुबके बैठे हैं खुमैनी के अंदर के रावण से।कोई उन स्त्रियों के अहिंसक आंदोलन को सेना और इस्लामिक  मोलानाओं द्वारा कुचले जाने और  उन स्त्रियों को जेलों में अमानवीय यातनाएं और फांसी देने के खिलाफ जरा भी आवाज नहीं उठा रहा। कम्युनिस्ट तो खत्म हो गए पर उनके पुछल्ले साहित्यकार भी मोन हैं।जो कश्मीर के आतंकियों से लेकर नक्सलियों के पक्ष में खड़े हो जातें हैं  परन्तु कितनी सहनशीलता से सेना,अर्धसैनिक बल काम कर रहे उस पर भी नही बोलते    विष्णु  जी भारत में भी हैं तो यूक्रेन में भी मानवता और इंसानियत के पक्ष में हैं  दशानन ने सिर झुका चेतावनी कुबूल की,और फिर खड़ा हो गया। 

सभी तरफ देखा ,देवताओं की आंखों में परिणाम जानने की उत्सुकता थी।  तो कुछ अप्सराएं, गण, यक्ष आदि एक अनजाने डर से सहमे हुए थे।  क्योंकि यदि रावण ही सारे इल्जामों से बरी हो गया तो फिर बुराई और अच्छाई में फर्क ही मिट जाएगा। और यह  मायावी, दानवी और आसुरी सोच का दशानन कहीं दुबारा इस धरती पर अत्याचार और अनाचार  बढ़ा दे। अभी तक की पैरवी में दोनो ही पक्ष बराबरी से लगे हुए थे। "अशोक वाटिका हो,या विभीषण की दगाबाजी,नारायण को पहचानना सब कुछ मुझे पता था। और यह लड़ाई दरअसल देवताओं और असुरों में थी। इस पर थी की पृथ्वी पर शक्तिशाली योद्धा मैं ,लंकेश्वर हूं। इस युद्ध से सब तय हो जाता।  और तीनों लोकों में  रावणराज होता। परंतु ऐसा हो  सका। लेकिन मै मायावी, यम जिसके वश में कैसे मर सकता हूं? मेरी इच्छा थी पूरी पृथ्वी पर राज करने की तो उस वक्त भी मैंने ऐसा खेला किया की आज कलयुग तक मेरा नाम लिया जाता है।  और ,........वह रुका ,अपनी बड़ी बड़ी मूछों में मुस्कराया ,आज मैं हर जगह हूं। 

मेरी लंका एक नही कई जगह हैं।  आतंकवाद,नक्सलवाद,भ्रष्टाचार,हत्याएं,बलात्कार,संकीर्णता,नस्लभेद,धर्मांधता,भ्रूण हत्या और राजनीति यह दसों सिर मेरे पहले से भी मजबूत और पूरे ब्रह्मांड में नाना रूपों में फैले हैं।" कहते कहते वह क्लीन शेव रूप में बदल गया। फिर वह खुमैनी, पुतिन से लेकर आतंकवादी, किम जोंग चेहरा बदलता अंत में एक मासूम युवक बनकर कठघरे में खड़ा दिखा।   फिर उस मंद मुस्काते सौम्य युवक ने अचानक से विकराल रूप लिया और जोर से हंसा। फिर वह गरजा, उसकी आवाज तीनों लोकों में गूंजी  ,"आज  दशानन, सामने खड़ा है आप सबके और अपने बताए कार्यों की सफाई नही दे रहा बल्कि बता रहा है की उस अपरोक्ष युद्ध में भले ही मैं विजयी नही हुआ परन्तु मैंने अपने सामर्थ्य और आसुरी शक्ति को इतना मज़बूत और फेला दिया की आज हर शहर,गांव ,देशों में रावण हैं और रहेंगे।  लेकिन कहीं भी आपके प्रभु नारायण, श्री राम नजर नही आते? कहां हैं वो? मैं तो अमर हूं ,रहूंगा ,हर वक्त, हर काल में ।और अब, .......सबने देखा,उसने पृथ्वी से आकाश तक  विकराल स्वरूप कर लिया और दसों सिरों के साथ अट्टहास किया।पूरा ब्रह्मांड दहल गया। विष्णु भगवान ने जज की गरिमा को बड़ी मुश्किल से सहन करते हुए स्वयं को इस पापी को सजा देने से रोका, "रावण, यह मत भूलो तुम कहां और किनके सामने हो। सृष्टि के रचयिता सामने हैं।तुम्हे जो घमंड है उसे हम अभी तोड़ सकते हैं परंतु...."  रावण आगे बढ़कर बोल उठा, "पंरतु तोड़ेंगे नही, नियम से बंधे हो,न्याय करोगे। अरे इन बेकार की बातों को तुम मानते रहो। हम, दशानन के लाखों प्रतिरूप और समर्थक  मानते हैं ,  कभी मानेंगे। अपनी मनमानी पूरे विश्व में करते रहेंगे। राम से कह देना इस बार मेरे से मुकाबले के लिए उसे सारी फोज और दिव्यास्त्र भी कम पड़ेंगे। और अब में कभी नही जाऊंगा। रहती दुनिया तक राम भले ही ना मिले लोगों,लेकिन तुम्हे दशानन हर जगह मिलेगा। क्यों  तुम मेरी पूजा,आराधना करो? मैं जल्दी सुन लूंगा। " कहते कहते वह अचानक से गायब हो गया। सातों आसमान पार चल रही खुली कोर्ट में सन्नाटा था ……..     

                     ~ ~ ~ ~                       

_संदीप अवस्थी, चार कथा संग्रह,दो काव्य और आलोचना की पुस्तकें प्रकाशित,देश विदेश से पुरस्कृत।  

संपर्क: मो 7737407061,अजमेर राजस्थान, भारत  ईमेल: leooriginal2010@gmail.com