रविवार, 21 मई 2023

कहानी. नक्सली राजा का बाजा. प्रदीप श्रीवास्तव

 कहानी 

 

 

 



 

नक्सली राजा का बाजा 

-प्रदीप श्रीवास्तव

 

"भोजूवीर इतना चीख-चिल्ला क्यों रहे हो? अपनी बात आराम से बैठ कर भी कह सकते हो। मैंने तुम्हारी बात कभी सुनी ना हो, तुम्हें कभी कोई इम्पॉर्टेंस ना दी हो तब तो तुम्हारा यह चीखना-चिल्लाना समझ में आता।"

"नहीं, नेताजी मैं चीख-चिल्ला नहीं रहा हूँ, आप मेरी बात समझने की कोशिश कीजिए।"

"बैठो, पहले बैठो कुछ देर शांति से फिर बताओ। आज मैं तुम्हारी हर बात सुनने के बाद ही कोई दूसरा काम करूँगा।"

नेताजी के कहने पर भोजू उनके सामने पड़ी बड़ी सी मेज़ के दूसरी तरफ़ रखी कई कुर्सिओं में से ठीक उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। इसी बीच नेताजी ने फोन करके चाय-पानी के लिए कह दिया। फिर भोजूवीर की तरफ़ मुख़ातिब हो कर बोले-

"देखो भोजू, अभी हमें सारा ध्यान इस बात पर देना है कि चुनाव क़रीब  गए हैं। पार्टी अपना दमखम दिखाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाए हुए है। इस बार हर हाल में सत्ता में आने के लिए कमर कसे हुए है। यही समय है जब हमें भी अपना पूरा दमखम हर हाल में दिखाना है। हमें पार्टी नेतृत्व को यह दिखाना है, अहसास कराना है, कि हम अपने क्षेत्र के ना सिर्फ़ एकमात्र सबसे बड़े मज़बूत नेता हैं, बल्कि संसदीय चुनाव में टिकट के एकमात्र दावेदार भी हम ही हैं। हमें टिकट देंगे तो यह सीट पक्की है। 

यहाँ हमारे सामने  पार्टी का कोई दूसरा नेता है, ना ही किसी और पार्टी की कोई हैसियत है। हमारी सीट इतनी पक्की है कि चुनाव तो औपचारिकता मात्र है। भोजू यह समय जब और मज़बूती से अपना दावा पेश करने का है, पिछले कई साल से पार्टी के लिए हमने जो मेहनत की है, जो समय, पैसा खर्च किया है, उसे ब्याज सहित पाई-पाई वसूलने का है, ऐसे महत्वपूर्ण अवसर पर तुम वह काम करने के लिए कह रहे हो हफ़्ते भर से जिससे अब तक के सारे किए-धरे पर पानी फिर जाएगा। पार्टी इसे हमारी बग़ावत मानेगी। 

एक मिनट का भी समय नहीं लेगी हमें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने में। जिला महासचिव तो कब का इसी फ़िराक़ में बैठा है कि मैं, तुम, किसी तरह हाशिए पर पहुँचें, और उसका रास्ता साफ़ हो। तुम ही बताते रहते हो कि किस तरह बराबर हम सब की चुगलखोरी करने, हमें डैमेज करने में लगा रहता है। जब देखो तब दिल्ली में आलाकमान से संपर्क साधने में लगा रहता है। सब कुछ जानते हुए भी तुम यह सब क्यों कह रहे हो? सच क्या है वह बताओ।"

"नेताजी देखिए एक तो पता नहीं क्यों आप मुझ पर शक कर रहे हैं कि मैं कुछ छुपा रहा हूँ। बार-बार कहता हूँ कि आपको छोड़कर कहीं जाने वाला नहीं हूँ। मैं साफ़-साफ़ यह कहना चाहता हूँ कि हम लोग बीते आठ-नौ सालों से पार्टी के लिए और जो ऊपर बड़े नेता, आलाकमान को घेरे रहते हैं, उन सबकी चमचई कर-कर के आज तक कुछ कर नहीं पाए। थोड़ा बहुत इधर-उधर का काम और इन सब से मिलने-जुलने का कोई मतलब है क्या? क्या है हमारा भविष्य? कहने को हमारा लीडर कहता है कि हम युवाओं को आगे ले आएँगे, युवा देश की, हमारी ताक़त हैं। हमें उन्हें आज अवसर देना ही होगा। लेकिन असल में हो क्या रहा है आप भी जानते हैं, हम भी जानते हैं। 

चाहे किसी प्रदेश की यूनिट हो या केंद्र की, सारे महत्वपूर्ण पदों पर वही पुराने खूसट डेरा जमाए हुए हैं। साले हिलने-डुलने को मुहताज हैं। मुँह से बोल निकल नहीं पाते हैं। लेकिन फिर भी खूँटा गाड़े जमें हैं। पार्टी को भी जमाए हुए हैं। ना खिसक रहे हैं, ना पार्टी को खिसकने दे रहे हैं। मुझे पार्टी का कोई भी भविष्य नज़र नहीं  रहा है। हमारा लीडर पचास साल का हो रहा है, लेकिन आज तक बोलना नहीं सीख पाया। कब अंड-बंड बोल कर कुल्हाड़ी अपने ही ऊपर मार ले, पार्टी की ऐसी की तैसी करा दे इसका कोई ठिकाना नहीं। जब कभी लगता है कि पार्टी दो क़दम आगे बढ़ी है तभी वह कुछ ऐसा कर बैठता है कि पार्टी चार क़दम पीछे चली जाती है। 

नेताजी, नेताजी इस जहाज़ के पेंदे में इतने छेद हो चुके हैं कि उन्हें ठीक करना असंभव है। कम से कम इस लीडर के रहते तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। तो आख़िर हम इस गल चुके पेंदे वाले जहाज़ में क्यों सफ़र करें, जिसका डूबना निश्चित है। चलो ग़लती हुई, ग़लत जहाज़ में सवार हो गए, जानकारी नहीं थी। लेकिन अब तो सब कुछ जान चुके हैं। देख रहे हैं, तो अब समझदारी इसी में है कि समय रहते निकल लिया जाए। इस जहाज़ का डूबना निश्चित है। थोड़ा ज़्यादा बड़ा है तो समय कुछ ज़्यादा लेगा। बकिया डूबना तो तय है।"

नेताजी भोजू की बातें बड़े ध्यान से सुन रहे थे। और साथ ही उसकी बातों में बग़ावत की बू  रही है या नहीं इसे भी सूँघने की पूरी कोशिश कर रहे थे। वह समझ नहीं पा रहे थे कि भोजू पिछले एक हफ़्ते से इतना आक्रामक क्यों हो रहा है? दिन पर दिन इसकी आक्रामकता क्यों बढ़ती ही जा रही है। वह सोचने लगे कि "इसके पीछे कोई लग तो नहीं गया है, कि यह मेरा दाहिना हाथ है? मेरी ताक़त है। इसे काट दो तो मैं बेकार हो जाऊँगा। 

पैसा रुपया सब मेरा ना सही लेकिन अस्सी परसेंट तो मेरा ही लगता है। बाक़ी में यह और अन्य हैं। लेकिन राजनीति की असली पॉवर भीड़ तो इसी के पास है। यह हाथ से निकल गया तो मैं कहीं का नहीं रह जाऊँगा। इसको जैसे भी हो साधना होगा। और यदि नहीं सधा तो?" नेताजी ने मन में ही ख़ुद ही प्रश्न किया और फिर उसी कठोरता से उत्तर भी दिया "तो यह किसी और की ताक़त बनने लायक़ भी नहीं रहेगा।" वह अंदर ही अंदर खौलते रहे, तेज़ी से कैलकुलेशन करते रहे। लेकिन चेहरे पर नम्रता की, प्यार की मोटी चादर ओढ़े रहे। और बड़े प्यार-स्नेह से बोले-

"भोजू तुम्हें मैं अपने छोटे भाई की तरह मानता हूँ, ध्यान रखता हूँ, तुम्हें आगे बढ़ा रहा हूँ। हो सकता है मुझसे अनजाने में कोई ग़लती हो गई हो। मुझे जो करना चाहिए तुम्हारे लिए वह नहीं कर पाया। तुम निसंकोच निश्चिंत होकर सब बताओ, अपने बड़े भाई को आज सब कुछ बताओ कि आख़िर क्या छूट रहा है मुझसे।"

नेताजी भोजू को समझाते रहे। उसे जितना समझाते वह उतना ही अपनी बात पर अडिग होता गया। नेताजी की चार तार की चासनी में पूरी गहराई तक रची-पगी भावनात्मक बातों को भोजू ने अपने क़रीब फटकने ही नहीं दिया। चाय नमकीन एक नहीं दो बार आई और ख़त्म हो गई। लेकिन ना नेताजी भोजू को समझा पाए और ना ही भोजू नेताजी को। अंततः नेताजी की ओढ़ी हुई सज्जनता, भोजू के लिए उमड़ता जा रहा प्यार-स्नेह अचानक ही एक झटके में ग़ायब हो गया।

वह अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए। भोजू भी जैसे पहले ही से तैयार था। वह भी खड़ा हो गया। लेकिन नेताजी उसकी उम्मीदों से भी कहीं ज़्यादा मुखर हो चुके थे। तमतमाए हुए जो बोलना शुरू किया तो बोलते ही चले गए। सीधे-सीधे कहा-

"तुम क्या समझते हो यह जो शगूफ़ा लेकर निकले हो इससे तुम राजनीति कर पाओगे। इतने दिनों में यही समझ पाए हो राजनीति को। तुम्हारे जैसे ना जाने कितने नेता राजनीति का ताज पहनने के लिए रोज़ निकलते हैं। और राजनीति की अँधेरी, बीहड़ गली में भटक-भटक कर, ठोकरें खा-खा कर कीड़े-मकोड़े की तरह मर जाते हैं। इस भीड़ में से निकल वही पाया है जो अपने सीनियर के पदचिन्हों पर बिना आवाज़ किए उसके पीछेे-पीछे चला है। तुम अभी राजनीति में पहली भोर की दुपहरी भी नहीं देख पाए हो और हमें बता रहे हो कि राजनीति कैसे करें? किसके इशारे पर हमें राजनीति सिखा रहे हो? कितनी कमाई कर ली है वहाँ से?"

नेता जी की बातें भोजू को तीर सी भेदती चली गईं। नेताजी के सारे आरोप झूठे थे। वह पूरी तरह उनके प्रति निष्ठावान था। लेकिन नेताजी की कच्छप चाल वाली राजनीति से बुरी तरह तंग  चुका था। वह नेता जी और अपनी ताक़त भी अच्छी तरह जानता-समझता था, और पार्टी में अपनी हैसियत से भी वाकिफ़ था। वह अच्छी तरह जानता था कि पार्टी में उसकी हैसियत नेता जी के दुमछल्ले की है। यह छल्ला खनकता भी तभी है जब नेताजी की दुम हिलती है। वह अपनी इस इमेज़ से  आजिज़  गया था। बड़ी शर्मिंदगी महसूस करता था। बदलना चाहता था अपनी इस इमेज को। निकलना चाहता था इस इमेज के शिकंजे से। उसे अच्छी तरह मालूम था कि नेताजी की राजनीति का इंजन वही है। यदि वह निकल गया तो नेताजी बिना इंजन के ढांचा (चेचिस), बॉडी भर रह जाएँगे। जो बिना इंजन के हिल भी ना पाएगा। खड़े-खड़े जंग खा जाएगा। ख़त्म हो जाएगा। 

मन में वह नेता जी से ज़्यादा तेज़ी से कैलकुलेशन करते हुए सोच रहा था कि "यह सबकुछ जानते हुए भी जिस तरह का व्यवहार मुझसे कर रहे हैं वह अब बर्दाश्त के बाहर है। अब इनको दिखाकर रहूँगा कि यह कायस्थ कुलोद्भव हैं तो मैं भी कायस्थ कुलोद्भव हूँ। नमक से नमक नहीं खाया जा सकता। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। इतने दिनों से रहती आईं यही बहुत बड़ी, बहुत अनोखी बात है। अब समय  गया है कि इनसे मुक्ति पा लूँ। दिखा दूँ लालाजी को कि तुम हमसे हो, हम तुमसे नहीं। अनादिका कितना सही कहती है कि "तुम कितना भी कोशिश कर लो, तुम्हारी यह दोस्ती अब बस पूरी ही होने वाली है।" वह कितने दिनों से कह रही है कि "तुम्हारा नेता इस क़ाबिल नहीं कि लीडर बन सके। तुम्हारे जैसे लोगों को नेतृत्व दे सके।"

वह मेरी बातें सुन-सुन कर कितनी बार बोल चुकी है कि "तुम्हारे इस लोकल लीडर और नेशनल लीडर में भी लीडरशिप, पॉलिटिक्स के कोई जर्म्स हैं ही नहीं। पॉलिटिक्स के जर्म्स तुममें है, इसलिए सबसे पहले तुम्हें इस पार्टी को ही छोड़ देना चाहिए। तभी सच में नेता बन पाओगे।" मगर मैं मूर्ख उसे यह कहकर चुप करा देता हूँ कि वह अपनी नौकरी सँभाले, किचेन सँभाले, होम मिनिस्ट्री भी दे रखी है वह भी सँभाले। बच्चा मिनिस्ट्री हमारा ज्वाइंट वेंचर है, उसे दोनों मिलकर सँभालेंगे। मगर सच तो यह है कि वह पॉलिटिक्स को मुझसे ज़्यादा बेहतर समझती है। मैं ही जाहिल पतियों की तरह उसे डपट देता हूँ कि अच्छा-अच्छा बहुत हुआ, अपनी मिनिस्ट्री सँभालो, मेरी पॉलिटिक्स तुम्हारे वश की नहीं है।

सच में मैं कितनी ग़लती करता  रहा हूँ। उसे वाक़ई बहुत अंडरएस्टीमेट करता हूँ। जबकि पाँच साल से वह अपने ऑफ़िस यूनियन की प्रेसिडेंट बनती  रही है। दो बार तो निर्विरोध हो चुकी है। मगर अब उससे मैं...मैं उसे।" भोजूवीर के मन में बड़ी द्रुत गति से यह सब अनवरत चलता रहा और फिर वह अंततः चीख-चिल्ला रहे नेताजी पर घनघोर बादल की तरह फट पड़ा। बरस गया एकदम से। लंबे समय से इकट्ठा घनघोर बादल दिल दहला देने वाली भीषण गर्जना के साथ बरस गया। बरसने केे बाद भोजूवीर ने झटके से कुर्सी पीछे खिसकाई। झटका इतना तेज़ था कि कुर्सी दो-तीन क़दम पीछे खिसक गई। 

वह गरजते हुए आख़िरी सेंटेंस बोल कर बाहर निकल गया। दरवाज़ा भी पूरी ताक़त, पूरी आक्रामकता के साथ खोला और बंद किया। नेता जी को ऐसा लगा जैसे भड़ाक से बंद हुआ दरवाज़ा सीधे उनके चेहरे पर  लगा है। उनके चेहरे को बुरी तरह ज़ख़्मी कर दिया है। नाक मुँह सब खून से लथपथ हो गए हैं। वह बुत बने खड़े रह गए अपनी जगह पर। भोजू का आख़िरी वाक्य उनके कानों में गूँज रहा था। 

उन्होंने पहली बार भोजू का यह रौद्र एवं बग़ावती रूप देखा था। वह इस वक़्त ग़ुस्से से ज़्यादा भयभीत थे। तभी उनकी पत्नी बग़ल वाले कमरे से अंदर आईं। उन्हें पसीने-पसीने देखकर पूछा-

"क्या हुआ? यह भोजू आज इतनी बदतमीज़ी क्यों कर रहा था। आदमियों को बुलवाकर उसके हाथ पर यहीं का यहीं क्यों नहीं तुड़वा दिया। सब के सब तो बाहर बैठे हमारे ही पैसों का खा-पी रहे हैं।"

नेताजी को तेज़ आवाज़ में बोल रही पत्नी पर भी ग़ुस्सा  गया। वह उसकी मूर्खता पर क्रोधित हो उठे कि मूर्ख औरत ऐसे फ़ुल वॉल्यूम में चिल्ला रही है। साले बाहर बैठे सुन रहे होंगे। वह तिलमिला कर बोले-

"चुप रहो, जहाँ नहीं बोलना होता वहाँ भी बछेड़ी जैसी कूद-फाँद करने लगती हो।"

उन्होंने लगे हाथ कई अन्य सख़्त बातें कहकर पत्नी को अंदर भेज दिया। पत्नी भी कमज़ोर नहीं पड़ी। उसने संक्षिप्त सा ही सही तीखा उत्तर दिया और पैर पटकती हुई चली गई उसी दरवाज़े से दूसरे कमरे में, जिधर से आई थी। नेताजी ने उसे जाते हुए नहीं देखा। दूसरी ओर मुँह किए मन ही मन में बस गरियाए जा रहे थे कि "साले बाहर बैठे खा तो मेरे ही पैसों का रहे हैं, लेकिन हैं तो उसी साले भोजुवा के आदमी, यह सब क्यों उस पर हाथ उठाएँगे।" वह मन में ही भोजू पर हमला किए जा रहे थे। 

"भोजू मैंने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं। आदमी तेरे पास हैं, अच्छी बात है। मगर आख़िर पॉलिटिक्स में तुझसे सीनियर हूँ। इसकी अँधेरी गलियों में आए पत्थरों, रुकावटों को कैसे हटाया जाता है वह तुझसे बेहतर जानता हूँ। और यह तो और भी अच्छी तरह जानता हूँ कि तेरे जैसे आदमी पर पत्थर कैसे गिराए जाएँ। कैसे उन्हीं के नीचे दबा कर उन्हीं पत्थरों से समाधि बना दी जाए। तेरे जितने आदमी, तेरे जैसे आदमी मेरे पास भले ही ना हों, लेकिन इतना तुझसे हज़ार गुना ज़्यादा जानता हूँ कि एक ट्रक ड्राइवर को कैसे साधना है। बड़ी मौज आती है ना तुझे गाड़ियों में दर्जनभर लोगों को साथ लेकर चलने में। घबरा नहीं, तुझे ऐसी मौज दूँगा उसी गाड़ी में कि तू मौज से ही ऊब जाएगा। इतना ऊब जाएगा कि दुनिया से ही चला जाएगा।"

तभी मोबाइल में दूसरी बार किसी की कॉल आई। रिंग पूरी होकर बंद हो गई। उन्होंने कॉल रिसीव नहीं की। भोजू की बातें उनके दिमाग़ में हथौड़े की तरह प्रहार किए जा रही थीं। उनकी चोटें उन्हें इतना विचलित कर रही थीं कि अब भी उनका पसीना सूख नहीं रहा था। बेचैनी में वह कमरे में चहलक़दमी करने लगे थे। एसी का रिमोट उठाकर कूलिंग और बढ़ा दी। गला सूख रहा था। पानी पीने की इच्छा हो रही थी लेकिन पत्नी को डाँट कर भगा चुके थे। किसी नौकर को बुलाना नहीं चाह रहे थे। हैरान परेशान आख़िर वह कुर्सी पर बैठ गए। उन पर हर तरफ़ से हमलावर भोजू का आख़िरी वाक्य "नेताजी मैं जा रहा हूँ, अब मेरी पॉलिटिक्स देखिएगा, कुछ हफ़्तों में आप छोड़िए आलाकमान भी मेरे आगे-पीछे नाचेगा। आप जैसे तो मेरे आस-पास भी नहीं फटक पाएँगे।" दिमाग़ में धाँय- धाँय  दगे जा रहा था। वह अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे थे कि भोजू ऐसा क्या करेगा?

"कहीं यह सारे राज़ तो नहीं खोल देगा। जिससे बवाल खड़ा हो जाए। बड़े नेताओं की आवभगत, उनके ऐशो-आराम की क़रीब-क़रीब सारी ज़िम्मेदारियाँ यही उठाता रहा है, औरतों से लेकर शराब तक सब इसी के सहारे हुआ है, कहीं साले ने वीडियो-सीडियो तो नहीं बना रखा है कि मीडिया, सोशल मीडिया में वायरल कर दे। मुझे और उन बड़े नेताओं को एक साथ मिट्टी में मिला दे। चुनाव को अब वैसे भी ज़्यादा दिन कहाँ रह गए हैं? बरसों की सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। इसके चक्कर में मेरा ही नहीं पार्टी का भी सत्यानाश हो जाएगा। बड़ी मुश्किल से तो किसी तरह लड़ाई में लौटी है, कुछ उम्मीद जगी है। यह भोजुवा तो साला वाक़ई भस्मासुर बन गया है। लेकिन भस्मासुरों को जीने का हक़ कहाँ है? भोजुवा तूने जीने का हक़ खो दिया है। अब तेरी समाधि भी घर वाले तेरी प्रिय मातृभूमि भोजूवीर में ही बनावाएँगे। भोजूवा तू नाहक़ ही भोजूवीर से मरने के लिए यहाँ मेरे पास चला आया। चमकाता अपनी राजनीति वहीं भोलेबाबा के पास वाराणसी में, भोजूवीर में।"

नेताजी बड़ी सावधानी से लग गए किसी ट्रक ड्राइवर को साधने में। सावधानी इतनी कि पत्नी को भी पहली बार अपने किसी काम में राज़दार नहीं बना रहे थे। मोबाइल से कोई बात नहीं कर रहे थे। ज़रूरत पड़ने पर अकेले ही निकल रहे थे। किसी ड्राइवर या गाड़ी को लेकर नहीं, रात के अँधेरे में टहलने के बहाने बाहर निकलते। फिर कुछ दूर जाकर ओला या उबर टैक्सी बुक करते। जहाँ जाना होता उससे थोड़ा पहले ही उतर जाते। ठीक इसी तरह वापस भी  जाते। पत्नी हर बार पूछती, "कहाँ चले गए थे इतनी देर तक, फोन भी रिसीव नहीं करते। मन घबराने लगता है।"

सच यह था कि भोजू से छत्तीस का आँकड़ा बनने के बाद से नेता जी भी बाहर निकलते घबराते थे। बिना सिक्योरिटी के बाहर निकलते तो घर के अंदर  जाने तक पसीने से तर रहते। लेकिन अपनी नेतागिरी के कॅरियर को लेकर इतना सजग कि उसके लिए जान हथेली पर रखकर निकलना भी उन्हें मंजूर था। उन्हें पूरा शक ही नहीं विश्वास था कि अगर भोजू को ज़रा भी पता चल गया तो वह एक्शन लेने में सेकेंड के दसवें हिस्से जितनी भी देरी नहीं करेगा। ऐसी जगह मार कर डालेगा कि एक बाल का भी पता नहीं चलेगा। उनके ही कहने पर तो कुछ ही साल पहले उसने एक अच्छे ख़ासे दबंग को ठिकाने लगा दिया था। आज तक थाने में लापता ही दर्ज है। 

भोजू के जाने के बाद वह लगातार उसके एक-एक पल की खोज-ख़बर लेने में लग गए। लेकिन उन्हें कुछ ख़ास सटीक जानकारी मिल नहीं पा रही थी। उन्हें जितनी असफलता मिल रही थी उनकी बेचैनी उतनी ही ज़्यादा बढ़ती जा रही थी। वह यहाँ तक पता लगाने की कोशिश कर रहे थे कि भोजू आलाकमान तक पहुँचने की कोशिश में तो नहीं है। वह इसलिए भी ज़्यादा डर रहे थे कि उन्होंने कई बार बातचीत, खाने-पीने के दौरान आलाकमान की कटु आलोचना तो की ही थी, साथ ही गालियाँ भी ख़ूब बकी थीं।     

सोच-सोच कर बेचैन होते रहे कि कहीं भोजू वह सब रिकॉर्ड तो नहीं कर ले गया है। आलाकमान के सामने रख दिया तो एक झटके में पार्टी से निकाल बाहर कर दिया जाऊँगा। बेचैनी, चिंता, खोजबीन, ट्रक ड्राइवर ना साध पाने से वह दस दिनों में ही एकदम अकुला उठे। कई-कई पैग पीने के बाद भी उनको नींद नहीं  रही थी। सच में उन्हें पहली बार पता चला कि वह कितने पानी में हैं। उनके मन में कई बार यह बात आयी कि ग़ुस्सा शांत होने पर भोजू वापस  जाएगा। मगर दिन पर दिन बीतते गए लेकिन उसकी छाया भी नहीं पलटी। वह उनसे कोसों दूर चली गई।

अफनाहट में उन्हें यह शक भी परेशान करने लगा कि उनके आसपास आज भी जो लोग हैं वह वाक़ई उनके हैं भी या नहीं। या भोजू के जासूस बनकर उनके आगे पीछे लगे हैं। हर आदमी उनके शक के राडार पर  गया। कई बार पत्नी भी उन्हें शक के राडार पर नज़र आने लगी। जबकि उनकी तेज़तर्रार पत्नी के राडार पर उनकी हालत साफ़ नज़र  रही थी। जिसे देख कर पत्नी चिंता में पड़ गई कि "ऐसे तो यह बीमार पड़ जाएँगे। इन्हें कुछ हो गया तो इतना फैला हुआ काम-धंधा कौन सँभालेगा। चारों बच्चे अभी छोटे ही हैं।" आख़िर उन्होंने एक दिन नेता जी को बहुत समझा-बुझाकर कहा-

"देखिए पता नहीं कितने राजनीतिज्ञ, पता नहीं कितनी बार यह कहते आए हैं कि राजनीति में ना तो कोई स्थायी शत्रु है, ना कोई स्थायी मित्र। देखते नहीं कैसे जानी दुश्मन नेता, पार्टियाँ ज़रूरत पड़ने पर पल भर में थूक कर बार-बार चाटने में देर नहीं करते। पलभर में गले मिलने लगते हैं। उन्हें देख कर तो कहना पड़ता है कि साँप-छछूंदर की, साँप-नेवले की भी दोस्ती हो जाती है।" इस पर नेताजी एकदम तड़कते हुए बोले-

 

"आख़िर तुम कहना क्या चाहती हो?"

नेताजी भीतर-ही-भीतर बुरी तरह हिल रहे थे, पत्नी से उनकी वास्तविकता छिपी नहीं थी, फिर भी पत्नी ने अनजान बनते हुए उन्हें अपनी योजना बताई। योजना सुनते ही नेताजी लगे तियाँ-पाँचा बतियाने। लगे तांडव नृत्य करने। इतना भीषण की पत्नी को लगा कि उसका अनुमान ग़लत है कि पति के बारे में वह सब कुछ जानती-समझती है। सदैव की भाँति वह फिर चली गईं दूसरे कमरे में। इधर जब नेताजी का पारा ठंडा हुआ तो उन्हें पत्नी की बातों में दम नज़र आने लगा। कुछ ही देर में यह दम उनके दिमाग़ में बढ़-चढ़ कर बोलने लगा।

आख़िर उन्होंने तय कर लिया कि वह पत्नी की सलाह पर अमल करेंगे। मगर यह तय करते ही समस्या यह आन पड़ी कि बहाना कौन सा ढूँढें? कौन सा अवसर ढूँढें? इस पर उन्हें ज़्यादा माथापच्ची नहीं करनी पड़ी। कुछ ही दिन बाद उनकी माँ की बरसी थी। वही समय उन्हें ठीक लगा। सोचा इस अवसर को ही भुनाता हूँ। उनके मन में एक लालच और उठ खड़ा हुआ कि इसी बहाने कितने उनके कहने पर चल सकते हैं यह भी पता चल जाएगा। भोजू और पार्टी को भी अपनी ताक़त का एहसास करा देंगे। 

यह सोचने के साथ ही उनके मन में एक चोर भी  बैठा कि यह योजना कहीं बैक फ़ायर ना कर जाए। यह कहीं कम लोगों के आने से फ़्लॉप शो ना बन जाए। ऐसा हुआ तो लेने के देने पड़ जाएँगे। फिर ख़ुद ही उत्तर दिया कि "अगर ऐसा हुआ तो कहूँगा माँ की बरसी है, ख़ुशी या शक्ति प्रदर्शन का अवसर नहीं है। आप लोग कम से कम भावनात्मक बातों को राजनीति का हिस्सा ना बनाया करें। उल्टा चढ़ बैठूँगा क्वेश्चन खड़ा करने वालों पर।"

नेता जी ने पूरा ज़ोर लगा दिया। इतना कि जैसे एम.पी. का चुनाव लड़ रहे हों। नगर, ज़िला, प्रदेश, से लेकर आलाकमान तक ज़ोर लगा दिया। जिसे कभी झुक कर नमस्कार नहीं किया था उसके भी चरणों में झुक गए। जिसके चरण छूते थे उसके क़दमों में लेट गए। रीढ़विहीन जीव से रेंग गए। ग़रज़ यह कि जितना ज़्यादा, जितना बड़ा नेता आएगा भोजुवा पर उतना ही ज़्यादा असर पड़ेगा। ज़्यादा प्रभाव पड़ेगा तो वह फिर से मेरे क़दमों में लोटेगा। जितनी बार नेता जी के मन में यह बात आती उतनी ही बार वह भोजू को सबसे बदतरीन गालियों से नवाज़ते कि "इस साले के कारण बीसों लाख रुपये फूँकने पड़ रहे हैं। लाखों रुपये तो कंवेंस में डूब गए हैं। कितने चक्कर तो दिल्ली के लगा चुका हूँ। तीन-तीन, चार-चार लोगों को लेकर हवाई जहाज़ से आनन-फानन में जाना-आना कितना हो गया। यह साला बहुत बड़ा भस्मासुर बन गया है। देखो अभी और क्या-क्या करवाता है। 

नेताजी की सारी मेहनत के परिणाम वाले दिन ऐसा मिला-जुला परिणाम रहा कि नेताजी ना सिर पीट पा रहे थे, ना ही ख़ुशी मना पा रहे थे। कोई बड़ा नेता, व्यक्ति नहीं आया। कुछ के व्हाट्सप मैसेज आए कि ईश्वर माता जी की आत्मा को शांति प्रदान करें। 

 

कुछ मैसेज इतनी जल्दी, इतनी लापरवाही से भेजे गए कि भाई लोग बरसी को ख़ुशी का अवसर मान बैठे। नेता जी इन सब को पढ़-पढ़ कर मन में ख़ूब गरियाए जा रहे थे। ज़्यादातर वही लोग आए जिनकी गिनती छुटभैए नेताओं में होती थी या वह जो मुफ़्त का खाने-पीने का अवसर ढूँढ़ते रहते हैं। मिलने पर कहीं भी टूट पड़ते हैं। कुल मिलाकर नेताजी की अपेक्षा से कम ही लोग आए, खाय-पिए चल दिए। कोई महत्वपूर्ण आदमी आया ही नहीं। सारे समय जिस एक आदमी को उनकी आँखें ढूँढ़ रही थीं वह दिखा ही नहीं। 

भोजू का साया भी उन्हें कहीं नज़र नहीं आया। उसके ख़ासमख़ास में से भी कोई नज़र नहीं आया। नेताजी तंबू उखड़ने तक उसका इंतज़ार करते रहे। बार-बार मोबाइल देखते, रिंग होने पर उनको लगता कि भोजू का फोन  गया। हर बीतते पल के साथ उनका दिल बैठता जा रहा था। उनकी दशा उनकी पत्नी से छिपी नहीं थी। उन्हें भोजू पर ग़ुस्सा और पति पर दया  रही थी। देर रात नेताजी बिना ठीक से खाए-पिए ही अपने बेडरूम में चले गए। 

पत्नी सारा तामझाम समेटवाने के बाद उनके पास पहुँची। उनकी मानसिक हालत को देखते हुए उन्होंने ज़्यादा कोई बात करने के बजाए ठंडा-ठंडा कूल-कूल तेल उनके सिर पर लगाया। फिर हल्का-हल्का सिर दबाकर सुलाने की कोशिश की। 

नेताजी भी आँखें बंद किए रहे। लेकिन उन्हें नींद नहीं  रही थी। बार-बार भोजू को गरियाते कि "साले को बेशर्म बनकर चार-चार बार बुलावा भेजा। बरसी में बुलावा भेजने का औचित्य ना होने के बावजूद ऐसा किया। व्हाट्सअप मैसेज दिया। माँ की बरसी का इमोशनल कार्ड भी खेला, लेकिन सब बेकार। साले की आँखों में सुअर का बाल है, सुअर का बाल। नहीं तो ज़रूर आता। भले ही दो मिनट को अपना मनहूस चेहरा ही दिखाने को सही।"

इन सब से ज़्यादा नेता जी को कुछ देर पहले ही बड़े पापड़ बेलने के बाद मिली इस सूचना से और चिंता होने लगी कि भोजू किसी बड़े निर्णायक क़दम को उठाने में लगा है। इतना ही नहीं इसके लिए वह पार्टी भी छोड़ने जा रहा है। वह भी बस कुछ ही दिन में। इस सूचना ने नेता जी के पैरों तले ज़मीन खिसका दी। क्योंकि वह अच्छी तरह जानते थे कि भोजू के पास उनके जो-जो राज़ हैं, पार्टी छोड़ने के बाद वह उनका यूज़ करके उन्हें निश्चित ही सड़क पर ला खड़ा करेगा। और वह उसका कुछ भी नहीं कर पाएँगे। 

उन्हें सुलाते-सुलाते ख़ुद पत्नी सो गई मगर उन्हें नींद नहीं आई। उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि जैसे तनाव से उनकी नसें फट जाएँगी। वह उठे, अलमारी से व्हिस्की निकाली, बिना सोडा, पानी के नीट ही गिलास में डाल-डाल कर एक झटके में पीते गए। एक दो नहीं तीन-चार लार्ज पैग पी गए और कुछ ही देर में बेड पर भद्द से पसर गए। इतना तेज़ी से दोनों हाथ फैलाए बेड पर पसरे क्या गिरे कि बड़े से बेड पर एक तरफ़ गहरी नींद में सो रही पत्नी से टकरा गए। इतनी तेज़ कि गहरी नींद में सो रही पत्नी घबड़ा कर उठ बैठी। लेकिन पति पर एक नज़र डालते ही समझ गईं कि माजरा क्या है? वह उठीं और किसी तरह उन्हें सीधा कर बेड के बीचो-बीच लिटाया। फिर कई कुशन उठाकर ले आईं और उन्हें उनकी दोनों तरफ़ लगा दिया, ताकि नशे में कहीं वह बेड से नीचे ना लुढ़क जाएँ। ख़ुद दूसरे कमरे में सोने चली गईं। ऐसे में वह कभी भी कोई टेंशन नहीं पालतीं बल्कि उनकी सुरक्षा का हरसंभव इंतज़ाम करके दूसरे कमरे में आराम से सो जाती हैं। आज भी यही किया।

नेता जी का अगला पूरा दिन हैंगओवर से मुक्ति पाने में निकल गया। थोड़ा बहुत जो काम किया उसमें सिर्फ़ यही जानने का प्रयास किया कि भोजू के जिस राइटहैंड को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया था उसमें कहाँ तक सफलता मिली। जितनी जानकारियाँ उन्हें मिलीं उससे उन्हें सफलता मिलती नज़र आई। उनकी भेजी नोटों की गड्डियों का पूरा असर रात होते-होते दिखा। वह आदमी रात के अँधेरे में किसी थर्ड प्लेस पर मिलने को तैयार हो गया। 

नेता जी रात दो बजे जब उससे मिलकर लौटे तो उनको इस बात की ख़ुशी, संतुष्टि थी कि उन्होंने भोजू के राइट हैंड को पूरी तरह तोड़ लिया है। हालाँकि यह तब हुआ जब उन्होंने कई लाख रुपये की गड्डी से उसकी हथेली को और ज़्यादा गर्म कर दिया। लेकिन राइट हैंड ने जो जानकारियाँ उनको दीं उससे वो सकते में पड़ गए। उन्हें कुछ समझ में नहीं  रहा था कि आख़िर उन सब की काट क्या है? वह यह नहीं समझ पा रहे थे कि आख़िर किससे सलाह-मशविरा करें। किससे पूछें कि उन्हें क्या करना चाहिए? टेंशन बढ़ते ही वह हमेशा की तरह अपनी बार की तरफ़ बढ़ गए। 

आज भी बड़ी बोतल निकाली लेकिन कुछ देर हाथ में लिए पता नहीं क्या सोचते रहे। फिर उसे उसी तरह अलमारी में रख कर बंद कर दिया। बार के सामने ही पड़े बड़े से सोफा कम बेड पर पसर गए। नींद, चैन उन्हें कोसों दूर-दूर तक नहीं दिख रही थी। उधेड़बुन में ज़्यादा देर तक पसर भी नहीं पाए तो कमरे में चहलक़दमी करने लगे। बेड पर पत्नी गहरी नींद में सो रही थी। वह कब आए इसका पता उसे नहीं था। नेताजी की चहलकदमी ने उन्हें उम्मीद की एक किरण दिखा दी। उन्हें अपने एक हम-प्याला हम-निवाला लेखक मित्र की याद आई। जिसे वह ना सिर्फ़ राजनीति बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में अपना सलाहकार बनाए हुए थे। कई मौक़ों पर उसने बड़ी-बड़ी गंभीर समस्याओं का समाधान उन्हें बताया और समस्या से बाहर भी निकाला था। मित्र का ध्यान आते ही उन्होंने यह भी  देखा कि रात के तीन बज रहे हैं। मोबाइल उठाया और कॉल कर दी। कई बार रिंग करने के बाद कॉल रिसीव हुई। छूटते ही नेता जी बोले-

"क्या मित्रवर यहाँ जान पर बनी हुई है और आप हैं कि कॉल तक रिसीव नहीं कर रहे हैं।"

 

लेखक महोदय ने कहा, "नेता जी इतनी रात को कॉल किया सब ठीक तो है ना।"

"सब तो क्या कुछ भी ठीक होता तो सवेरे तक इंतज़ार कर लेता। मगर कुछ भी ठीक नहीं है, इसलिए इंतज़ार करने का कोई मतलब नहीं था।"

"अच्छा तो फिर मुझे जल्दी बताइए क्या बात है?"

नेता जी बोले, "फोन पर सारी बातें नहीं हो पाएँगी। मिलकर ही कर सकते हैं।"

"ठीक है, मैं आने को तैयार हूँ, लेकिन इस वक़्त मेरे पास कोई साधन नहीं है।"

"आप रहने दीजिए मैं ख़ुद  रहा हूँ।"

नेताजी ने गाड़ी निकाली और पत्नी को बिना बताए चले गए अपने सलाहकार मित्र के पास। सलाहकार मित्र को भी नेताजी और भोजू के बीच तनातनी की भनक थी। नेताजी ने सिलसिलेवार उन्हें सारी बातें बताईं। कहा, "आज ही उसके सबसे बड़े हमराज़ और दाहिने हाथ ने बताया है कि भोजू कोई बड़ा आंदोलन चलाने की तैयारी कर रहा है। इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण यह कि पार्टी छोड़ कर यह सब करेगा। यदि वह सक्सेस हुआ तो मेरा पॉलिटिकल कॅरियर समाप्त, असफल हुआ तो भी।"

नेता जी की इस बात पर लेखक सलाहकार मित्र ने पूछा, "असफल होने पर कैसे?"

मित्र की इस बात पर नेताजी खीझ उठे। वह ऐसा महसूस कर रहे थे कि जैसे मित्र उनकी बातों को गंभीरता से नहीं सुन रहे हैं। इस बार नेताजी ने खीज निकालते हुए बोल दिया-

"लगता है आप मेरी बातों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।" यह सुनते ही लेखक मित्र सकपका कर बोले, "नहीं-नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। पूरी गंभीरता से सुन रहा हूँ। आप बताइए। 

"देखिए पार्टी द्वारा जो काम पिछले कुछ विधानसभा चुनावों में कई राज्यों में किया गया वही काम यहाँ भोजू के सहारे किया जाएगा। यदि भोजू को पब्लिक, मीडिया का सपोर्ट मिल गया तो वह निर्दलीय ही जीतेगा, जीतेगा तो आलाकमान उसे कैच करने के लिए हाथ फैलाए खड़ा है। वह बराबर ऐसे लोगों की फिराक में रहता है। तुरंत कैच कर लेगा। भोजू रातोंरात चमक जाएगा। 

यदि हार गया तो ऐसा नहीं है कि पार्टी उससे मुँह फेर लेगी। पार्टी में उसकी अहमियत बन जाएगी। क्योंकि इसके चलते पार्टी भोजू के रूप में सीट अपने कब्ज़े में ना कर पाई तो यह भी तो तय है उसके ज़रिए वह सत्ताधारी पार्टी के लिए सिरदर्द पैदा कर देगी। कुछ सीटों पर उसका खेल बिगाड़ देगी। जैसा सुनने में आया है उस हिसाब से पार्टी लाइन से अलग उसका आंदोलन उसे देखते-देखते महत्वपूर्ण बना देगा। उसके ऊपर हर तरफ़ से धन, सरकारी सुरक्षा सब बरसने लगेगा। और तब मेरे पास कुछ नहीं बचेगा। मेरी राजनीति पूरी तरह ख़त्म हो जाएगी। मैं पूरी तरह ख़त्म हो जाऊँगा।

मेरे सामने राजनीति से तौबा करने, कहीं मुँह छुपा कर बैठने, डूब मरने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचेगा।"

यह कहते हुए नेता जी बहुत गंभीर हो गए। गंभीर लेखक महोदय भी हो उठे थे। लेकिन जल्दी ही ख़ुद को सँभालते हुए बोले, "देखिए उसे मैं समझ तो बहुत दिन से रहा था। मैंने एक दो बार आपसे कहा भी था कि इससे अलर्ट रहिए। कई बार संकेत दिए लेकिन आप इग्नोर करते रहे। कहते रहे कि भोजूवीर ऐसा नहीं है। वह कुछ भी कर सकता है लेकिन मेरे साथ गद्दारी नहीं। लेकिन मैं बराबर उसे पढ़ने का प्रयास कर रहा था। मैं देख रहा था कि वह बहुत एग्रेसिव सोच का है। नियम क़ानून या सिस्टम को फ़ॉलो करने वाली उसकी सोच नहीं है। उसे बस पैसे और रुतबे की हवस है। चाहे जैसे मिले। उसके दिमाग़ में यह भरा हुआ है कि एक व्यक्ति अराजकता पैदा कर एक प्रदेश का सी.एम. बन बैठा है। 

हालाँकि अब उसकी इमेज़ थूकने-चाटने भर की रह गई है। दूसरे दो को उसने देखा कि वह जातीय मुद्दे के नाम पर हिंसा उपद्रव करवा कर विधायक बन गए। एक जातीय मुद्दे को आरक्षण की आग लगाकर तकनीकी कारणों से विधायक तो नहीं बना लेकिन पैसा, लोगों का हुजूम, सरकारी सुरक्षा ने उसे भी वी.आई.पी. बना दिया है। वह यही सब करना चाह रहा है। ख़बरें मेरे पास भी हैं, कि उसने ना सिर्फ़ अपने रास्ते का निर्धारण कर लिया है बल्कि उस पर बहुत आगे निकल चुका है। कुछ ही दिन बाद आप लोगों के देवता चित्रगुप्त की पूजा है। उसी दिन वह अपना आंदोलन शुरू कर रहा है। उसकी तैयारी पूरी और पक्की है। 

उस दिन वह धरना स्थल पर ही पहले अपने लोगों के साथ सामूहिक पूजा करेगा, फिर पूजा के समापन के साथ ही कायस्थों कोे आरक्षण दिए जाने की माँग करेगा। वहीं से आंदोलन शुरू कर देगा। इसी उद्देश्य से उसने सामूहिक पूजा के नाम पर बड़ी संख्या में लोगों की उपस्थिति सुनिश्चित कर ली है। मुझे आश्चर्य तो यह हो रहा है, कि आपको इन सारी बातों की पूरी जानकारी नहीं है। मैं तो सोच रहा था कि आप को बहुत कुछ पता होगा। लेकिन आपके पास बस उड़ती-उड़ती जानकारी है। जिस दिन आपके यहाँ बरसी के कार्यक्रम में पार्टी के बहुत से लोग  रहे थे उसी दिन यह भी अफ़वाह थी कि भोजू दो दिन से दिल्ली में पार्टी लीडर से गुफ़्तगू कर रहा है। मैं सोच रहा था कि आप भी उस समय दिल्ली के चक्कर लगा रहे थे आपको सारी ख़बर होगी। मगर यहाँ तो बात उलटी है।"

नेताजी लेखक मित्र की बातें सुनकर एकदम बुत बन गए। उनकी हालत देखकर लेखक बोले, "लेकिन आपको घबराने की ज़रूरत नहीं है। भोजू कि इस चालाकी की काट मेरे दिमाग़ में कुछ धुँधली ही सही उभरने लगी है। कोई रास्ता निकल ही आएगा। यह ध्यान रखिएगा कि हर समस्या के साथ उसका समाधान भी नत्थी रहता है। थोड़ा समय दीजिए मैं जल्दी ही आता हूँ आपके पास।"

 

सुबह हो चुकी थी। लेखक से विदा लेकर नेताजी चेहरे पर दयनीय भाव लिए बाहर निकले। मन ही मन गाली देते हुए "साले लेखक मैं तेरे समाधान के इंतज़ार में अपना सत्यानाश करने वाला नहीं। मैं इस भोजुवा का वह हाल कर दूँगा कि इस बार यह " श्री चित्रगुप्ताय नमो नमः" बोलने लायक़ ही नहीं रहेगा। उसके पहले ही उसके घर वाले राम नाम सत्य है, भोजू नाम सत्य है, बोल चुके होंगे।" यही सोचते हुए वह घर पहुँचे कि आज इसके तियाँपाँचा के काम को हरी झंडी दे दूँगा। उस साले ड्राइवर को उसकी मुँह माँगी क़ीमत दे दूँगा।

घर पहुँचे तो उन्हें बीवी किसी से मोबाइल पर बात करती हुई मिली। ग़ुस्से में उसे भी मन-ही-मन गरियाया, "साली जब देखो तब मोबाइल ही से चिपकी रहती है।" नेताजी सीधे बेडरूम में पहुँचे। सोचा कि दो-तीन घंटा सो लूँ, फिर निकलूँ। लेकिन भोजू उन्हें लेटने देता तब ना। उनके दिलो-दिमाग़ में निरंतर नगाड़ा बजाए जा रहा था। उनके दिमाग़ का कचूमर निकाले जा रहा था। नींद से कडु़वाती आँखों, थकान से टूटते शरीर के बावजूद वह सो नहीं पाए। एक बार सोचा कि दो-चार पैग मार कर सो जाएँ। लेकिन भोजू फिर आतंकी की तरह सामने  खड़ा होता है। हार कर उन्होंने ख़ूब जमकर नहाया। फिर निकल गए भोजूवीर के तियाँपाँचा को हरी झंडी दिखाने। क़रीब तीन घंटे बाद वह लौट, ज़ालिम ड्राइवर को हाफ़ पेमेंट एडवांस देकर। बाक़ी काम होने के बाद देने का वादा भी कर आए। साथ ही चित्रगुप्त पूजा से पहले काम हो जाने का सख़्त आदेश देना नहीं भूले। 

        लौटने के बाद नेता जी इतना ख़ुश थे कि पूछिए मत। लग रहा था कि जैसे विश्व मैराथन दौड़ अत्यधिक कड़ी टक्कर मिलने के बाद भी रिकॉर्ड समय के साथ जीत कर आए हैं। दौड़ने से चेहरा, पूरा बदन पसीना-पसीना ज़रूर हो रहा था लेकिन जीतने की ख़ुशी भी चेहरे पर साफ़ दिख रही थी। कोई किसी की जान लेने का इंतज़ाम करके भी ख़ुश हो सकता है यह देखना हो तो नेताजी को देखा जाना चाहिए। जो कल तक अपने राइट हैंड रहे, हम प्याला, हम निवाला भोजूवीर की अर्थी उठवाने की व्यवस्था करके ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे। वही भोजूवीर जिसे वाराणसी ज़िले के भोजूवीर क़स्बे में एक राजनीतिक कार्यक्रम के दौरान देखा था।

उसकी सांगठनिक क्षमता उसके पीछे चलती भीड़ देखकर बड़ी दूर की सोची और बुला कर कहा, "यहाँ कहाँ अपने को खपा रहे हो। लखनऊ आओ, राजनीति की मुख्यधारा में खेलो।" जब वह  गया तो जल्दी ही प्यार से उसे उसके नाम ऋषि राज की जगह भोजूराज फिर भोजूवीर कहने लगे।

जिसे कल तक वह सब से अपना छोटा भाई कहकर परिचय कराते थे, अब उसी के लिए नेताजी इंतज़ार करने लगे कि ड्राइवर जल्दी ही बाक़ी पचास पर्सेंट भी लेने आएगा। सवेरे पेपर उठाते ही आदत के मुताबिक फ्रंट पेज देखने के बजाए अब वह लोकल पृष्ठ पहले देखने लगे कि ट्रक दुर्घटना में भोजू की मृत्यु की ख़बर है कि नहीं। हर आने वाले को देखते ही उसका चेहरा पढ़ने का प्रयास करते कि भोजू की सूचना लेकर आया है क्या? लेकिन नेताजी पर जैसे साढ़ेसाती सनीचर की ढैय्या का प्रकोप था। जैसे राहु-केतु की वक्र दृष्टि उन पर पड़ रही थी। सब कुछ उलट-पुलट हो रहा था। 

भगवान चित्रगुप्त पूजा के चौबीस घंटे बचे थे, मगर भोजू की मौत की ख़ुशख़बरी सुनने को उनके कान तरस रहे थे। वह बार-बार ड्राइवर से मिलना भी नहीं चाह रहे थे। डर रहे थे कि किसी ने देख लिया और भोजू की दुर्घटना में मौत के बाद जब ड्राइवर पकड़ा जाएगा तो कहीं कोर्ट में वह यह ना बोल दे कि मैं फलां दिन उससे मिला था। 

आख़िर वह समय भी  गया जब भगवान चित्रगुप्त की पूजा के मात्र बारह घंटे बचे। नेताजी अपने स्तर पर भोजू की तैयारियों की पल-पल की ख़बर ले रहे थे। हर पल के साथ उनकी धड़कनें तेज़ हो रही थीं। उल्टी गिनती शुरू हो चुकी थी। वो रात भर कमरे में चहलक़दमी करते रहे। लेकिन उनकी ख़ुशी के पल नहीं  रहे थे। उनकी सारी ख़ुशी, सुख, चैन का रास्ता भोजू पहाड़ की तरह रोके हुए था। भगवान चित्रगुप्त  विराजे थे। दीपावली बीत गई थी। लेकिन दीए उनके दिल पर अब भी जल रहे थे। अब भी पूरा घर, पूरी दुनिया त्यौहार की ख़ुशियाँ मना रहा था लेकिन वह अलग-थलग थे। हमेशा विधिवत भगवान चित्रगुप्त की पूजा करने वाले नेता जी पूजा के बारे में सोच भी नहीं रहे थे। जबकि पूजा के कुछ ही घंटे रह गए थे। 

भोर हो गई, सूरज चढ़ आया लेकिन नेताजी की दुनिया में अँधेरा ही था। भोर तक नहीं हो रही थी। घरवालों ने पूजा के लिए तैयार होने के लिए कहा लेकिन उन्होंने भड़कते हुए कह दिया "तुम लोग कर लो।" सब समझ गए कि कुछ बहुत ही गंभीर बात है, वरना आज तक धरती इधर से उधर हो जाए, अपनी धुरी पर उल्टा घूमना शुरू कर दे लेकिन वह भगवान चित्रगुप्त की पूजा नहीं छोड़ते थे। मगर इस बार सब उलटा हो रहा था।

इधर घर में भगवान चित्रगुप्त की पूजा चल रही थी और उधर नेताजी के पास भोजूवीर के ख़ास आदमी की कॉल  गई। वही ख़ास आदमी जिसे नेता जी ने तोड़ लिया था। उसने जो बताया उससे नेता जी के पैरों तले ज़मीन खिसकी नहीं ग़ायब हो गई। पूरी पृथ्वी ही ग़ायब हो गई। वह अपने को त्रिशंकु की तरह अंतरिक्ष में लटका पा रहे थे। और दूर अपनी धुरी पर घूमती पृथ्वी पर वह भोजूवीर की सिर्फ़ सामूहिक चित्रगुप्त पूजा देख पा रहे थे। विशाल जनसमूह के साथ भोजू भगवान चित्रगुप्त की पूजा कर रहा था। और उनके घर वालों ने पता नहीं क्यों पूजा बीच में ही छोड़ दी थी। 

नेताजी घबरा गए कि घरवालों ने इतना बड़ा अपशगुन क्यों कर दिया। वह पूरी ताक़त से चिल्लाए, "मूर्खों, पागलों, पूजा अधूरी क्यों छोड़ी दी। तुम सब पागल हो गए हो क्या? मुझे बर्बाद करने पर क्यों तुले हुए हो?" मगर कोई नहीं सुन रहा था। तभी चित्रगुप्त भगवान की समवेत स्वरों में आरती शुरू हो गई। साथ में घंटा भी बज रहा था। घर के सभी लोग समवेत स्वर में आरती कर रहे थे। नेताजी का ध्यान भंग हो गया।

 

वह मोबाइल अभी तक कान से चिपकाए हुए थे। जबकि फोन करने वाले ने अपनी बात कहकर कब का फोन डिसकनेक्ट कर दिया था। वह एकदम पस्त होकर सोफ़े पर फिर पसर गए। सिर पीछे टिका कर आँखें बंद कर लीं। कुछ देर बाद उनकी पत्नी आईं। पूजा के समय भी उनका दिमाग़ पति पर ही लगा हुआ था कि आख़िर कौन सी ऐसी बात हो गई है कि जीवन में पहली बार पूजा तक नहीं की। वह प्रसाद देने के बहाने आई थीं। इसी बहाने बात उठाकर पूछना चाहतीं थीं कि बात क्या है? बगल में बैठ कर उन्होंने उनकी बाँह पर हाथ रखकर हल्के से पूछा "सो रहे हैं क्या?" नेताजी ने आँखें खोले बग़ैर ही पूछा "क्या बात है?" दरअसल पिछले बीस बाइस घंटों से वह सो ही कहाँ पा रहे थे। उनकी नींद तो भोजू ले उड़ा था। पत्नी ने कहा "प्रसाद लाई हूँ, बात क्या है? कुछ तो बताइए।" नेताजी चुप रहे आख़िर पत्नी ने फिर पूछा तो तीखे स्वर में कहा "रख दो, जाओ यहाँ से।" पत्नी उनके सख़्त लहजे से समझ गई कि इस समय और बोलना अच्छा नहीं है। 

वह गहरे सोच में पड़ गईं। त्यौहार पूजा की जो उमंग थी उस पर पूरी तरह ग्रहण लग गया। घंटा भर भी ना बीता होगा कि नेताजी के इनफ़ॉर्मर का फोन फिर  गया। उसने बताया कि "भोजू ने पूजा के बाद वहाँ उपस्थित क़रीब आठ सौ चित्रगुप्तवंशियों को धन्यवाद ज्ञापित करने के नाम पर संबोधित करना शुरू किया है। 

देश की आज़ादी में कायस्थों के योगदान का उल्लेख कर रहा है। स्वतंत्रता सेनानी एवं देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से लेकर महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस तक का उल्लेख किया है। सबसे योग्य प्रधानमंत्रियों में गिने जाने वाले लाल बहादुर शास्त्री का उल्लेख करते हुए कहा कि "उनके ही चलते देश सुरक्षा मामलों, खाद्यान के क्षेत्र में आज आत्मनिर्भर बन सका है। फिर भी सभी राजनीतिक पार्टियों नेे कायस्थों की घोर उपेक्षा की है। उन्हें हर जगह हाशिए पर डाल दिया है। नौकरी से बाहर कर दिया गया है। 

साज़िशन उन्हें किसी भी वर्ग में नहीं रखा गया है। बड़े हैं, अगड़े हैं, बस। लेकिन दलित, वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण किस वर्ण में हैं इस बिंदु पर चुप हैं। पहले भी यह बात  चुकी है कि कायस्थों को दलित वर्ग में शामिल करो। या फिर पाँचवां वर्ण मानों। जो हाशिए पर है। इसे भी आरक्षित वर्ग में रखो। लेकिन कुटिलतापूर्वक यह कह कर नकार दिया गया कि हम स्वभावतः कुशाग्र बुद्धि के हैं। अपनी मेधा से सारे पद ले लेंगे। यह कुटिलतापूर्ण कुतर्क है। हमें रोकने, बर्बाद करने की साज़िश है। 

आज़ादी के बाद से बराबर इस साज़िश का परिणाम है कि आज कायस्थों के पास नौकरी नहीं है। जबकि सदियों से कायस्थ शासन-प्रशासन का सबसे अहम हिस्सा रहा है। मगर आज दर-दर भटक रहे हैं। कायस्थ पटरी पर दुकानें, रेहड़ियाँ लगाने से लेकर रिक्शा तक चला रहे हैं। हमसे हमारे अधिकार, रोज़गार, ज़मीन सब छीन लिए गए हैं। इसलिए हमें अब और चुप नहीं बैठना है। 

हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे तो हमारे अस्तित्व को समाप्त होने में अब ज़्यादा समय नहीं लगेगा। आदरणीय स्वजनों हमने यदि अभी भी कुछ नहीं किया तो हमारी आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ़ नहीं करेंगी। हम अपनी आँखों के सामने ही अपनी अगली पीढ़ी को दर-दर भटकते देख ही रहे हैं।"

इनफ़ॉर्मर ने नेता जी को चटखारे लेते हुए बताया कि, "भोजू के भाषण को लोगों ने ना सिर्फ़ ध्यान से सुना बल्कि उससे आगे बढ़ने और हर क़दम पर साथ देने का वचन भी दिया। 

और भोजू ने गर्म लोहे पर चोट करने में देर नहीं की। उसने सबसे भगवान चित्रगुप्त की शपथ लेने को कहा कि सभी उसके शुरू होने वाले आंदोलन को तन-मन-धन से सहयोग करेंगे। और अब पूजा के नाम पर जिस समूह को इकट्ठा किया था उनकी भावनाओं में उबाल लाकर उन्हें लेकर धरना-प्रदर्शन के लिए आगे की ओर बढ़ चला है। पुलिस के नाम पर चार-छः लोग ही हैं। उन्होंने बिना अनुमति धरना प्रदर्शन के लिए मना किया लेकिन भोजू मान नहीं रहा है।

यह तय है कि और पुलिस फोर्स के आने में देर नहीं लगेगी। वह इन्हें आगे बढ़ने नहीं देगी। भोजू के चुने हुए बदमाश इसी समय पुलिस पर पत्थरबाज़ी, गाड़ियों, दुकानों में आग लगाने का काम शुरू कर देंगे। मजबूरन पुलिस सख़्ती करेगी, लाठी, गोली चलाएगी। दर्जनों लोग मारे जाएँगे। भोजू यही चाहता है। और यह होकर रहेगा। क्योंकि जो भीड़ उसके साथ चल रही है वह तो पूजा के लिए इकट्ठा हुई थी। उसे इस साज़िश का पता ही नहीं है। साज़िश से अनजान मासूम मारे जाएँगे। फिर विपक्षी पार्टियाँ मरे हुए लोगों की हितैषी शुभचिंतक बनकर आगे बढ़ेंगी। मीडिया तो चिल्लाएगा ही। हर तरफ़ से बहुतों का सपोर्ट मिलेगा भोजू को। जातीय राजनीति को इनकार करने का ढोंग करते हुए पार्टी उसे हाथों-हाथ ले लेगी। पैसा, आदमी, आंदोलन को और आग देने के लिए कूटनीतिज्ञों की सेवाएँ बस अगले कुछ ही घंटों बाद भोजू के क़दमों में ढेर होने लगेंगी।"

नेताजी इनफ़ॉर्मर की बातों को इससे ज़्यादा बर्दाश्त नहीं कर पाए। इतना क्रोध में  गए कि मोबाइल पूरी ताक़त से सामने दीवार पर दे मारा। मोबाइल कई टुकड़ों में ज़मीन पर बिखर गया। क़रीब एक लाख रुपए के उनके मोबाइल के कई टुकड़े वापस उनके क़रीब आकर गिरे। पसीने से तर नेताजी थरथर काँप रहे थे।

ट्रक ड्राइवर को भी गाली दिए जा रहे थे कि साले ने पैसा ले लिया लेकिन काम नहीं किया। कर दिया होता तो आज यह भोजू... फिर कई गंदी गालियाँ दीं। बुदबुदाए "ठीक है ट्रक से नहीं मरा, ना सही। लेकिन मरेगा निश्चित।" नेता जी ने इसके साथ ही एक और कठोर निर्णय ले लिया कि वह ट्रक ड्राइवर को भी मारेंगे। आज इन दो में से एक को ज़रूर मरना है। उसे उसके धोखे की सज़ा देंगे। वह दाँत किटकिटाते हुए "बुदबुदाए भोजुवा तुझको ऐसे आसानी से नहीं छोड़ दूँगा। साला लेखक रोज़ शाम को आने के लिए कहता है। आज फिर कहा है। देखता हूँ यह नमक-हराम क्या समाधान निकालता है। बहुत पैसा ख़र्च किया है साले पर।"

नेताजी कुछ देर बैठे रहे। इस बीच मोबाइल की आवाज़ सुनकर पत्नी आई और मोबाइल के बिखरे टुकड़ों को देखकर समझ गई कि क्या हुआ? उसने मोबाइल के सारे टुकड़े उठाकर नेताजी के सामने सेंटर टेबल पर रख दिया। एक गिलास ठंडा पानी भी ले आईं। और बिना कुछ कहे वापस चली गईं। उनके जाने के बाद नेताजी ने सिम उठाया उसे दूसरे मोबाइल में लगाया। उसे वह कुछ दिन पहले ही लाए थे, लेकिन लाने के बाद मॉडल से ना जाने क्यों उनका मन हट गया। उन्होंने उसे रख दिया था, इस समय वही काम  गया। मोबाइल ऑन होते ही उन्होंने अपने लोगों को फोन कर-कर के भोजू की लोकेशन लेनी शुरू कर दी।

आधा घंटा भी ना बीता होगा कि इनफ़ॉर्मर का फोन फिर  गया। उसने नमक-मिर्च के साथ फिर सूचना देनी शुरू की। छूटते ही कहा, "पहले जहाँ एक-दो मीडियाकर्मी थे वहीं अब सारे प्रमुख चैनलों की  वी वैन  गई हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जमावड़ा हो गया है। बड़ी संख्या में पुलिस, पीएसी, रैपिड एक्शन फोर्स  गई हैं। जुलूस को आगे बढ़ने से रोकने की पूरी कोशिश हो रही है। लेकिन साज़िशन भोजू मुठभेड़ के लिए आमादा है।" इनफ़ॉर्मर इतना ही बोल पाया था कि एक ज़ोरदार धमाके की आवाज़ ने नेताजी के कान को सुन्न कर दिया। इनफ़ॉर्मर की भी आवाज़ बंद हो गई। फोन डिस्कनेक्ट हो गया था। 

नेताजी की घबराहट से ज़्यादा उत्सुकता और बढ़ गई कि क्या हुआ? भोजू अपनी योजना में क़ामयाब हो गया क्या? उन्होंने कॉल बैक किया तो इनफ़ॉर्मर छूटते ही बोला "आप न्यूज़ चैनल देखिए मैं बाद में कॉल करूँगा।" नेताजी चीख-पुकार, गोलियों की आवाज़, धमाके, शोर के बावजूद कुछ और पूछना चाह रहे थे, लेकिन उधर से फोन काट दिया गया। नेताजी ने रिमोट उठाकर तुरंत टीवी ऑन किया। समाचार चैनल लगाने शुरू किए लेकिन किसी पर भोजू के बारे में कहीं कुछ नहीं  रहा था। वह चैनल बदलते रहे। लोकल न्यूज़ चैनल तक पहुँचे लेकिन वहाँ भी भोजू के बारे में कुछ नहीं था। 

उन्होंने इनफ़ॉर्मर को फिर गाली दी। "यह भी साला दग़ाबाज़ निकला क्या?" उन्होंने रिमोट साइड में रख दिया। उन्हें महसूस हुआ कि गला बुरी तरह सूख रहा है तो पानी उठाकर पिया। उसके पहले पत्नी जो प्रसाद रख गई थीं उसमें से एक पीस मिठाई उठा कर खा ली थी। मिठाई, पानी ने गले को कुछ तरावट दी तो बेचैन नेता जी ने रिमोट उठाकर फिर चैनल बदलना शुरू किया। कुछ ही चैनल बदल पाए थे कि उन्हें एक चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज़ चलती मिली कि, "आंदोलनकारियों पर पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई। सूत्रों के अनुसार डेढ़ दर्जन से अधिक लोगों की मौत। मरने वालों में महिलाएँ, बच्चे भी शामिल।"

नेताजी की नज़रें टीवी पर जम गईं। आधे घंटे में पूरी तस्वीर साफ़ हो गई। इनफ़ॉर्मर ने जो बताया था थोड़ी देर पहले वही सब हुआ था। कई गाड़ियों, दुकानों, पुलिस के वाहनों को आंदोलनकारियों ने आग के हवाले कर दिया था। पुलिस ने पहले लाठी, आँसू गैस, वाटर कैनन का इस्तेमाल किया लेकिन जब उपद्रवी क़ाबू में नहीं आए तो मजबूरन गोलियाँ चलाईं। मरने वालों में सात बच्चे, छह महिलाएँ, पाँच पुरुष थे। दो दर्जन से अधिक पुलिसवाले भी घायल हुए। भोजू सहित सैकड़ों लोगों को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया था। 

भोजू को बिना अनुमति जुलूस, धरना, प्रदर्शन करने, सरकारी संपत्तियों को नुक़सान पहुँचाने, क़ानून व्यवस्था को बिगाड़ने, दंगा बलवा करने के आरोप में गिरफ़्तार किया। वह जो चाहता था वह सब हो गया था। वह चैनलों पर छाया हुआ था। जब पुलिस उसे गिरफ़्तार करके गाड़ी में बैठा रही थी तो उसने चैनल वालों से चीख-चीख कर कहा कि, "पुलिस वालों ने चित्रांशियों के शांतिपूर्ण आंदोलन का बर्बरतापूर्वक दमन किया है। सरकार ने ज़ालिम जनरल डायर की याद दिला दी है। इतिहास को दोहराया है। लेकिन वह अच्छी तरह समझ ले कि दमन से हम झुकने वाले नहीं हैं। 

डायर ने स्वतंत्रता सेनानियों का दमन किया, उनकी हत्या की तो उनका भी शासन नहीं रह पाया। इस सरकार की भी उल्टी गिनती शुरू हो गई है। हम चित्रांशी अब चुप नहीं रहेंगे। देशभर में फैलेगी यह आग। हम अपने अधिकार लेकर रहेंगे। हमें अपनी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण चाहिए ही चाहिए।" वह चीख-चीख कर बोले जा रहा था। रिपोर्टर माइक लिए उसी पर टूटे पड़ रहे थे। पुलिस ने जल्दी ही भोजू को ठूँस कर गाड़ी के अंदर भर दिया था। चैनल बार-बार यही दृश्य दिखाए जा रहे थे। एंकर, रिपोर्टर चीख-चीखकर वही बात दोहराए जा रहे थे। उनकी बातें नेताजी के सिर पर हथौड़े की तरह पड़ रही थीं।

वह धम से सोफ़े पर बैठ गए। उन्हें कुछ सुझाई नहीं दे रहा था कि वह क्या करें। दिमाग़ में भयानक उथल-पुथल मची हुई थी। वह सोच रहे थे कि "मेरे पीछे-पीछे चलने वाला भोजू देखते-देखते घंटे भर में नेता बन गया। एक साथ सारे चैनलों पर छाया हुआ है। पूरा देश देख रहा है। देश क्या विदेशी चैनल भी तो दिखा ही रहे होंगे। इतना बड़ा बवाल हुआ है। इतने सारे लोग मारे गए हैं। घायलों में से भी अभी बहुत से मर जाएँगे। सारे छोटे बड़े लीडर किस तरह इसी साले के पक्ष में बोल रहे हैं। जाति के नाम पर यह बवाल हुआ है। इसमें भी आलाकमान सुर में सुर मिलाए हुए है। साला कोई मॉरल ही नहीं रह गया है। नेताओं के पीछे-पीछे चलने वाले, जय-जयकार करने वाले के लिए भी आलाकमान घंटे भर में ही लाल गलीचा बिछाने लग गया है। देखता हूँ, इस अपमान का बदला लेकर रहूँगा।"

नेताजी शाम को लेखक के आने तक कहीं बाहर नहीं गए। खाना भी ठीक से नहीं खाया। दिनभर टीवी के सामने जमे रहे। जहाँ-तहाँ फोन मिलाते रहे। शाम को लेखक ने आने में दो घंटे की देरी कर दी। इससे उनकी खीझ, ग़ुस्सा और बढ़ गया था। लेखक को सामने देखते ही नेता जी एकदम से तिलमिलाए। लेकिन स्थिति की गंभीरता को देखते हुए अपने ग़ुस्से पर बड़ी मुश्किल से क़ाबू कर लिया। फिर भी बड़े तल्ख़ अंदाज़ में बोले-

"क्या भाई, यह क्या तरीक़ा है। ना कॉल रिसीव करते हैं ना मैसेज का जवाब देते हैं। मैं सुबह से परेशान हूँ।"

 

इसी बीच लेखक मुस्कुराते हुए उनके क़रीब पहुँचे और उनका हाथ दोनों हाथों से पकड़ लिया। नेताजी पहले से ही हाथ बढ़ाए हुए थे। लेकिन लेखक की मुस्कुराहट ने उन्हें जैसे चिढ़ाने का काम किया। लेखक ने उनके मनोभावों को तुरंत भाँप लिया था इसलिए उन्हें सोफ़े पर बैठाते हुए बोले-

"नेताजी माना भोजू ने अभी दुनिया अपनी मुट्ठी में कर ली है। मगर हर बंद मुट्ठी को खोलना मैं जानता हूँ। उसकी मुट्ठी में बंद दुनिया छीनकर मैं आपकी मुट्ठी में बंद कर दूँगा।"

नेताजी एकटक लेखक को देखते हुए बोले, "मैं हमेशा आपकी बातों पर आँख मूँदकर यक़ीन करता रहा हूँ। लेकिन पता नहीं क्यों आज नहीं कर पा रहा हूँ।"

"आपका विश्वास इस प्रकार डोलने की वज़ह मैं जानता हूँ। और यह भी मानता हूँ कि आप की जगह जो भी होगा उसका भी यही हाल होगा।"

"यह सब छोड़िए, इतिहास दोहराने की ज़रूरत नहीं है। आज अभी की बात करिए। मेरी मुट्ठी में दुनिया कब बंद करेंगे? कैसे करेंगे? यह बताइए।"

नेताजी ने एकदम खीज कर कहा तो लेखक कुछ देर चुप रहे। उन्हें देखते रहे। उन्हें नेताजी की बात बुरी लगी थी लेकिन नाराज़गी के कोई भाव चेहरे पर आने नहीं दिया। जब पूरी तरह जज़्ब कर लिया तब बोले- "नेताजी हर आदमी का काम करने का अपना तरीक़ा होता है। मैं मानता हूँ कि इतिहास की नींव पर ही भविष्य की इमारत बनती है। नहीं तो इमारत सतह पर ही खड़ी रहती है। हल्का सा झटका, आँधी चलते ही धराशायी हो जाती है। ख़ैर आपने कहा इतिहास नहीं तो नहीं। अब बात भोजू की मुट्ठी से दुनिया को मुक्त कराने की। देखिए मैं जो कहने जा रहा हूँ उसे बहुत ध्यान से सुनिएगा और उससे पहले यह दृढ़ निश्चय कर लीजिए कि मैं जो कहूँगा उस पर आप दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ेंगे।"

"बुलाया किसलिए, आप कुछ कहिए, तभी तो यह डिसाइड होगा कि बढ़ा जाए कि नहीं।"

"देखिए भोजू ने एक संवेदनशील मुद्दा उठाया है। पूजा को ही सीधे पुल बनाकर आगे बढ़ गया। पुल उसका बहुत कारगर निकला। वह सफल है। आपके आलाकमान जैसे बयान दे रहे हैं, उससे यह साफ़ हो गया है कि जैसे पिछले दिनों एक राज्य के चुनाव के समय एक नहीं तीन-तीन यंग्स्टर को आपकी पार्टी ने कैच किया, उन्हें पूरी रणनीति, धनबल, बाहुबल दिया। उनके आंदोलन में दिखने वाली भीड़ भी आपके आलाकमान के निर्देश पर मैनेज की गई। आगजनी हिंसा के लिए ख़ास तौर से पेशेवर बदमाशों की फौज उपलब्ध कराई गई, जिससे ज़बरदस्त हिंसा हुई। 

"परिणाम यह हुआ कि जातीय आग बड़े पैमाने पर भड़की। वोटों का पोलराइज़ेशन हुआ, कई सीटों पर आपकी पार्टी को फ़ायदा हुआ। तीनों आपकी पार्टी के टूल बने। इनमें से दो टूल विधायक बनकर आपकी पार्टी के साथ हो गए। तीसरा भी निश्चित ही विधायक बन जाता। लेकिन तकनीकी कारणों से वह चुनाव नहीं लड़ सका। आज की डेट में यह तीनों आपकी पार्टी के इंपॉर्टेंट टूल हैं। जहाँ भी, जब भी चुनाव होता है, यह टूल स्टार्ट कर दिए जाते हैं। ये उस जगह पहुँच कर माहौल डिस्टर्ब करते हैं। घृणा, वैमनस्यता का ज़हर घोलकर वोटों का ध्रुवीकरण कराते हैं। दंगा बलवा करवाते हैं।"

"आप कहना क्या चाहते हैं वह कहिए ना, इस कहानी का मैं क्या करूँ? यह सब बातें तो आप से पहले ही हो चुकी हैं। अब दोहराने का क्या मतलब?"

"यही फ़र्क है आप में और भोजू में।"

                

यह सुनकर नेताजी भड़क उठे। वह समझ गए थे कि लेखक आगे क्या बोलने वाला है। इसलिए पहले ही उखड़ पड़े। लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से लेखक पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। वह एक योगी की भाँति उन्हें शांत भाव से देखकर फिर बोले- "मैं यह कहना चाह रहा हूँ, वह शॉर्टकट रास्ता बताना चाह रहा हूँ, जिस पर चल कर आप अपने इस प्यादे भोजू से आगे निकल जाएँ। जो आपसे ज़्यादा तेज़ चल कर राजा बन बैठा है। उसे आप एक झटके में घोड़े की ढाई चाल से शह और मात देकर विजेता बन जाएँ।"

नेताजी लेखक को ग़ौर से देखते रहे। इस बीच उन्होंने लेखक के लिए चाय-नाश्ते के लिए कह दिया था। लेखक चाय-नाश्ते की बात पर पल भर को ठहरे थे। फिर बोले- "नेताजी सच बोलूँ तो भोजू ने संवेदनशील मुद्दा पकड़ा नहीं, बल्कि ख़ुद ही सृजित कर लिया है। वैसे ही क्या आपके दिमाग़ में ऐसा कोई मुद्दा है?"

नेताजी लेखक की बात कुछ-कुछ समझते हुए बोले- "फिलहाल तो कुछ समझ में नहीं  रहा है। आप ही बताइए, आपको बुलाया किसलिए है?"

"ठीक है सुनिए। भोजू ने जो मुद्दा उठाया है उससे उसने अपने को एक जाति तक सीमित कर लिया है। इससे यदि वह चुनाव लड़ता है तो अपनी ही सीट जीत ले तो बड़ी बात है। क्योंकि अपनी जाति के शत-प्रतिशत वोट पा कर भी वो अपनी सीट निकाल नहीं पाएगा। हाँ मेन खिलाड़ियों का खेल ज़रूर बिगाड़ देगा। संक्षेप में वोट कटवा बन कर रह जाएगा। सपोर्ट मिलने पर ही जीतेगा। यह भी उन्हीं तीन यंग्स की तरह आपकी पार्टी का एक और टूल ही बनेगा। वह एक आंदोलन खड़ा कर नेता बन गया है। उसकी दुकान सज गई है। लेकिन वह हमेशा डिपेंड रहेेगा बड़े खिलाड़ियों पर। यानी कि वोट बैंक के बड़े सौदागर अर्थात् बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ इसे यूज़ करेंगी। इसके पास स्वयं को यूज़ होते रहने देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।"

बात लंबी खिंचती देख नेताजी ने फिर टोका- "महोदय आपके तरकस में मेरे लिए कौन सा ब्रह्मास्त्र है वह बताइए।"

"धैर्य रखिए वही बताने जा रहा हूँ। मैं जो तीर आपके लिए निकालने जा रहा हूँ वह आपके लिए वाक़ई ब्रह्मास्त्र है। जो आपको देखते-देखते सिर्फ हिंदुस्तान के हिंदुओं का ही हीरो नहीं बना देगा बल्कि पूरी दुनिया में फैले हिंदुओं के आप हीरो बन जाएँगे। आंदोलन चलाने के लिए दुनिया भर से आप पर चंदों की बरसात होने लगेगी। साथ ही आप के इस आंदोलन के तूफान में भोजू तिनके की तरह उड़ जाएगा। उसका कहीं अस्तित्व तक नहीं रह जाएगा। और आप भोजू की तरह किसी पर डिपेंड नहीं रहेंगे, किसी के भी टूल नहीं बनेंगे।"

लेखक की इन बातों से नेताजी के मन में एक साथ बहुत सी फुलझड़ियाँ छूटने लगीं। लेकिन अपने चेहरे पर वह कोई भाव नहीं आने दे रहे थे। लेखक ने आगे बोलना जारी रखा। सीधे-सीधे पत्ता खोलते हुए कहा- "आप इस माँग को लेकर आंदोलन शुरू करिए कि जब किसी और धर्म के पूजा स्थलों में आने वाले चढ़ावे, उसकी आय के स्रोतों पर सरकार का किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं है तो हिंदुओं के पूजा स्थानों पर क्यों है? हिंदुओं के पूजा स्थानों पर से सारे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नियंत्रण तत्काल हटाए जाएँ अन्यथा सारे धर्मों पर एक नियम क़ानून लागू किए जाएँ। क्योंकि यह धर्म के नाम पर एक अमानवीय भेदभावपूर्ण कुकृत्य है, अन्याय है, जो आज़ादी के बाद से ही सरकार द्वारा हिंदुओं के साथ किया जा रहा है। यह संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ है। संविधान की इस भावना का घोर उल्लंघन है कि धर्म के आधार पर भी किसी भी नागरिक के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। यह एक ऐसा मुद्दा है जो कि सारे हिंदुओं के मन में है। लेकिन हिंदू क्योंकि धर्म को लेकर कट्टर धर्मांध नहीं है, इसलिए उनके मन की यह बात उनके मन में ही तैर रही है। कोई जरा सा इस मुद्दे को छेड़ेगा तो उसे बड़ा समर्थन मिल जाएगा।"

लेखक की बात को बीच में ही काट कर नेता जी बोले- "आप यह क्या कह रहे हैं, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। अरे यह बात  जाने लोग कब से जान रहे हैं, समझ रहे हैं, ना जाने कितने कॉलमिस्ट ने लिखा है। लिखते ही  रहे हैं। तमाम डिबेट में बोला गया है। हिंदुओं में हलचल तो छोड़िए सुगबुगाहट तक नहीं हुई। आपके पास ऐसा कोई अस्त्र-शस्त्र है जो भोजू को फिर से वहीं पहुँचा दे जहाँ वह था। और मेरा कॅरियर उस जगह से भी आगे पहुँच जाए जहाँ तक मैंने सोचा भी नहीं है। दसियों साल का समय, करोड़ों रुपये बर्बाद कर चुका हूँ। बदले में विधायकी का भी टिकट पक्का नहीं। गले पर तलवार लटकती रहती है। आलाकमान का मुँह ताकते बीतता है।"

नेताजी एकदम बिलबिला कर बोले। मारे बेचैनी के उठ कर खड़े हो गए। उनकी इस हालत पर भी लेखक शांति से नाश्ते पर धीरे-धीरे हाथ साफ़ करते रहे। पनीर टिक्का और कॉफ़ी लेते रहे। और फिर पूरी शांति के साथ बोले- "नेताजी मैं बार-बार कह रहा हूँ कि आप धैर्य से सुनिए। जैसे भोजू ने जो मुद्दा, मुद्दा था ही नहीं कभी। कुछ पर्सेंट कायस्थों के मन में वह बात आई-गई जैसी हो गई थी। उसे वह आज की डेट में एक ज्वलंत मुद्दा बना कर एक ऐसी ताक़त बन बैठा है, जिसे सभी पार्टियाँ कैच करना चाहती हैं। वैसे ही जो बात मैंने कही वह भी है। बल्कि सही यह है कि यह हज़ार गुना ज़्यादा आगे है। सही मायने में यह एक मुद्दा पहले से है। बारूद के ढेर जैसा है। जिसमें एक चिंगारी दिखाने भर की देरी है। 

आपको बस यही चिंगारी दिखानी है। चिंगारी कैसे दिखानी है यह मैं आपको बता रहा हूँ। आपने अभी तक दसियों साल, करोड़ों रुपए खर्च किए हैं लेकिन रिज़ल्ट आपके हिसाब से ज़ीरो है। अब आपको बस कुछ रुपये और खर्च करने हैं। चार पाँच-सौ आदमी इकट्ठा करने हैं, धरना प्रदर्शन की प्रशासन से इज़ाज़त लेनी है। मिलती है तो ठीक, नहीं मिलती है तो ठीक। प्रदर्शन होना ही है। बाक़ी काम मीडिया के हवाले कर दीजिए।"

लेखक की बात पर नेताजी बड़ी कड़वाहट भरी हँसी हँसे। फिर बोले- "मैं बहुत गंभीरता से पूछ रहा हूँ कि क्या यह मुद्दा वाक़ई इतना दमदार है कि यह राजनीति की दुनिया में तूफ़ान ला देगा। अगर है तो आप ने पहले क्यों नहीं बताया? मुझे ही क्यों बता रहे हैं? आपके तो बहुत से राजनीतिक मित्र हैं। ज़माने से हैं। कई तो मुझसे भी बड़ी हैसियत रखते हैं। उन्हें बता कर क्यों नहीं उन्हें बड़े से और बड़ा बना दिया?"

नेता जी की बात से लेखक महोदय तिलमिला उठे। नेता जी ने सीधे-सीधे उनका अपमान किया था। उनकी विश्वसनीयता, उनकी क्षमता पर सीधे-सीधे प्रश्न चिन्ह लगा दिया था। जिससे लेखक ग़ुस्से से भर गए। लेकिन दूर की सोच कर ख़ुद पर नियंत्रण करने का पूरा प्रयास किया। फिर भी कुछ हद तक आगे उनकी बातों पर उसकी झलक दिखती रही। उन्होंने प्लेट में अभी भी पड़े काफी सारे पनीर टिक्कों में से एक छोटा पीस उठा कर मुँह में डाला। मानो उसके सहारे वह अपना ग़ुस्सा पूरा निगल जाना चाह रहे हों। फिर बोले- "मुझे बेहद अफ़सोस है कि आप मुझे आज तक इतना ही नहीं बल्कि यह कहूँगा कि आप बिल्कुल भी नहीं समझ पाए। थोड़ा बहुत भी जाना होता तो निश्चित ही ऐसी बात नहीं करते। आपने मुझ पर बहुत खर्च किया है। कई बड़े-बड़े काम कराए हैं। यह, यह पनीर टिक्का अभी भी खा ही रहा हूँ। यह बड़ी टेस्टी स्ट्रांग कॉफ़ी भी पी रहा हूँ। इसलिए अपना कर्तव्य पूरा किए बिना नहीं रह सकता।"

लेखक की बातों से नेताजी को लगा कि यह बहुत बुरा मान गए हैं। तुरंत ही उनके दिमाग़ में बात आई कि "इस कठिन समय में यह भी साथ छोड़ गए तो मुश्किल बढ़ जाएगी। यह मुझसे रूठा तो निश्चित ही यह भोजुवा के साथ खेलेगा। इसे साथ रखने में ही भलाई है। फ़ायदा है। काम ना आएगा तो कम से कम भोजुवा के साथ मिलकर मेरे लिए एक और मुसीबत तो नहीं बनेगा।"

नेताजी ने बड़ी तेज़ी से यह कैलकुलेशन किया और तुरंत बोले- "सुनिए-सुनिए, आप मेरी बात समझे नहीं। आप हमेशा मेरे लिए महत्वपूर्ण थे, रहेंगे, और ऐसे ही पारिवारिक मित्र भी। कितनी बड़ी है मेरी समस्या यह आप अच्छी तरह समझ ही रहे हैं। मेरे उतावलेपन का कारण भी। इसलिए आप मुझे वाक़ई समाधान जल्दी बताइए।"

नेताजी का आख़िरी सेंटेंस लेखक को फिर चुभ गया। वह बोले- "देखिए मंदिर वाला जो अंदोलन मैंने बताया है वही करिए। यह आपको नायक बना देगा। नायक।"

"लेकिन इस बात को तो आप मानेंगे ही कि आंदोलन में पाँच-छः हज़ार से ज़्यादा भीड़ नहीं होगी तो फिर सफलता नहीं मिल पाएगी। क्या कहते हैं?"

लेखक कुछ देर तक नेताजी को एकटक देखने के बाद बोले- "मैं हर एँगल से सोचने-समझने के बाद ही बोल रहा हूँ। यह अच्छी तरह जानता हूँ कि आप पैसे से तो कमज़ोर नहीं पड़ेंगे, लेकिन सच यह भी है कि हर संभव प्रयास करके भी आप पाँच सौ से ज़्यादा लोग इकट्ठा नहीं कर पाएँगे। और ज़ोरदार शुरुआत करने के लिए हर हालत में कम से कम चार-पाँच हज़ार आदमी तो चाहिए ही चाहिए। बड़ी भीड़ होगी तो मीडिया, पुलिस महकमा भी बड़ी संख्या में इकट्ठा होगा। बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ भी हर हाल में करवानी ही होगी। तभी बड़ी हलचल होगी। इतनी बड़ी की राष्ट्रीय स्तर पर लोग उसे देख पाएँगे। तभी आप अपने उद्देश्य तक पहुँचने में सफल होंगे।

यह भी अच्छी तरह जानता हूँ कि आप जो भीड़ लाएँगे उसमें से बहुत से तो पुलिस का जमावड़ा देखकर ही पीछे से ही इतने पीछे हो जाएँगे कि कहीं दिखाई ही नहीं देंगे। तो ऐसे लोग तोड़फोड़ क्या कर पाएँगे?"

"यही तो मैं कह रहा हूँ कि यह आंदोलन संभव नहीं है, इतना आसान होता तो अब तक  जाने कितने लोग आंदोलन चला चुके होते।"

नेताजी के चेहरे पर निराशा साफ़ झलकने लगी थी। उनको महसूस हुआ कि जैसे उनका दिल बैठा जा रहा है। उन्होंने पानी का गिलास उठाया और पूरा पी गए। लेखक इस बीच उन्हें ध्यान से देखते रहे। नेताजी की दयनीय हालत का अक्षर-अक्षर आसानी से पढ़े जा रहे थे। उनके चेहरे पर कोई बड़ी सफलता पा लेने जैसी ख़ुशी की रेखाएँ उभर रही थीं। जिसे हलकान हुए जा रहे नेताजी देख नहीं पा रहे थे। आख़िर लेखक फिर बोले- "आप नाहक़ परेशान हुए जा रहे हैं। मैंने कहा ना कि मैं हर एँगल से सोच समझकर बोल रहा हूँ। हज़ारों की भीड़ कैसे आएगी यह सब मुझ पर छोड़ दें, मैं ले आऊँगा। आप बस पैसे और जितनी ज़्यादा गाड़ियों का इंतज़ाम कर सकते हों वह करिए। इस मैटर पर भीड़ के सामने और मीडिया के सामने क्या-क्या बोलना है उसकी तैयारी करिए। ना हो सके तो वह भी बताइए, वह भी मैं कर दूँगा। 

 

"भीड़ के सामने क्या-क्या बोलना है लिखकर दे दूँगा, देख लीजिएगा। मीडिया कैसे-कैसे प्रश्न कर सकती है उनके उत्तर आपको क्या-क्या देने हैं, वह भी लिख कर दे दूँगा। रट लीजिएगा। वैसे भी आपकी पार्टी का युवराज लीडर भी तो यही करता है। चार सेंटेंस कहीं किसी विजिटर रजिस्टर पर भी लिखना होता है तो लिख कर जो दे दिया जाता है वही मोबाइल में देख कर लिखता है। फुली कंफ्यूज़्ड पर्सन है। आप तो ख़ैर विद्वान आदमी हैं। कई बार आपको बोलते देखा है।"

नेताजी लेखक की बातें सुनकर उन्हें आश्चर्य से देखने लगे। उन्हें अपनी तरफ़ ऐसे देखते पाकर वह बोले- "ऐसे आश्चर्य से क्यों देख रहे हैं। मेरी बातों पर यक़ीन नहीं हो रहा है क्या?"

"आश्चर्य क्या, यह बातें कोई नेता, माफ़िया कहता कि आप पैसों, गाड़ियों का इंतज़ाम करिए मैं हज़ारों लोगों को इकट्ठा कर दूँगा तो कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, मामूली बात थी। आप जैसा एक लेखक, एक यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर व्यक्ति कहे तो मैं क्या कोई भी आदमी आश्चर्य में पड़ जाएगा। आज तक आपका कोई भी ऐसा काम सामने नहीं आया है जिससे यह सोचा भी जा सके कि आप आठ-दस आदमी भी किसी आंदोलन के लिए ला सकेंगे। पिछले साल आपने अपनी किताब के विमोचन के लिए बुलाया तो मुझसे कहा कि ढंग के बीस-पचीस आदमी भेज दीजिए, जो दिखने में लिखने-पढ़ने वाले लगें।

"आपके बार-बार फोन करने पर जब मैं ख़ुद पहुँचा तो मेरे आदमियों के अलावा वहाँ बमुश्किल और दो दर्जन लोग रहे होंगे। ऐसा आदमी किसी और के लिए कहे कि वह पाँच- हज़ार आदमी आंदोलन के लिए इकट्ठा कर देगा तो आश्चर्य नहीं तो और क्या होगा? कौन विश्वास करेगा? सबसे बड़ी बात यह कि आज की डेट में जिस आदमी के पास इतनी क्षमता होगी तो वह ख़ुद एक बड़ा नेता बन जाएगा। और आप तो एक बड़े अच्छे वक्ता भी हैं। ज़ोरदार आवाज़ ही नहीं जब बोलना शुरू करते हैं, तथ्य-आँकड़ों की झड़ी जब अपने अकाट्य तर्कों की छौंक के साथ लगाते हैं तो पूरा समूह विस्मित भाव से देखता रह जाता है। मंत्रमुग्ध हो जाता है।

"एक सफल नेता के लिए जो कुछ चाहिए वह सब कुछ आपके पास है, तो आप किसी और को नेता बनाने के लिए क्यों अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं। आप सारा खेल छिपकर क्यों खेलना चाह रहे हैं, यह आश्चर्यजनक नहीं है? देखिए मैं इस समय बहुत परेशान हूँ, बहुत बड़ी उलझन में हूँ। मुझे साफ़-साफ़ बताइए। आपकी बातों ने मेरी उलझन और बढ़ा दी है। बुलाया था समाधान के लिए लेकिन आप द्वारा खड़े किए जा रहे प्रश्नों ने उलझन और बढ़ा दी है। इसलिए सच मुझे तुरंत बताइए। और समय नहीं है मेरे पास।"

नेताजी का चेहरा इस बार थोड़ा सख़्त हो चुका था। लेखक समझ गए कि अब सही समय है कि वह अपनी वास्तविक बात कहें। लोहा एकदम गर्म हो चुका है। इतना गर्म कि उस पर हल्की सी चोट भी गहरे निशान छोड़ सकती है। इतना गहरा निशान कि यह तथाकथित नेता उनका एक ज़बरदस्त टूल बन जाएगा। इतना पॉवरफुल टूल कि इसके ज़रिए वह शतरंज की कोई भी बाजी जीत लेंगे। जिस मिशन में वह बरसों से लगे हैं, उसके पूरा होने के और क़रीब पहुँच जाएँगे। यह सोचते ही उन्होंने एकदम से ऐसा ख़ुलासा किया कि उस कमरे में महाविस्फोट सा हो गया।

नेताजी हड़बड़ा कर अपनी जगह उठ कर खड़े हो गए। सेकेंड़ों में वो एसी कमरे में भी पसीने से तरबतर हो गए। जबकि एसी बाइस डिग्री टेंप्रेचर को मेंटेन किए हुए था। इसके बावजूद नेताजी के चेहरे पर पसीना इतना था कि वह नाक पर एक बूँद बनकर बस टपकने ही की स्थिति में  गया। उनकी आँखों की बरौनी को भी पसीना छूकर नीचे गिर गया। गला उनका ऐसे सूख रहा था कि जैसे उनका ब्लड प्रेशर हाई हो गया हो। 

जबकि लेखक एकदम शांत भाव से उन्हें देखते रहे। उनके अंतर्मन को पढ़ कर समझते रहे। वह खुश हो रहे थे कि जैसा वह चाहते थे हथौड़े ने गर्म लोहे पर बिल्कुल वैसी ही चोट की है। मन चाहा निशान लोहे पर उभर आया है और अब समय है कि गर्म लोहे पर ठंडा पानी डालकर बन चुके निशान को स्थाई बना दिया जाए। वह पानी का गिलास लेकर नेताजी के पास पहुँचे। उन्हें अपने हाथों से पानी पिलाया। फिर से सोफ़े पर बैठा दिया। और बहुत ही शांत भाव से बोले- "आप इतना हैरान-परेशान बिल्कुल ना हों। आप जो चाहते हैं उससे भी कहीं बहुत कुछ ज़्यादा आपको मिलेगा। इसके लिए जो कुछ चाहिए वह सब मेरे पास है। मैंने तो केवल पाँच हज़ार आदमियों की बात की थी, लेकिन अब तो आपको यक़ीन हो गया होगा कि मैं चाहूँगा तो आप के लिए दस हज़ार आदमी भी इसी शहर में इकट्ठा कर दूँगा। अब तो आपको यह आंदोलन शुरू करने में कोई संकोच, कोई शक-शुबहा नहीं रह गया होगा। 

आंदोलन की निश्चित सफलता के लिए शुरू में जो भीड़ चाहिए उससे भी ज़्यादा मैं दूँगा। जब आंदोलन चल पड़ेगा तब आपके साथ बाक़ी लोग भी अपने आप ही गाड़ी, पैसों का इंतज़ाम कर के आएँगे। तब आपको ना गाड़ी का इंतज़ाम करना होगा, ना पैसों का, ना ही मुझे आदमियों का।"

नेताजी अब तक बहुत हद तक सँभल चुके थे। अपना पसीना कई बार पोंछ कर सुखा चुके थे। जग से गिलास में डाल-डाल कर दो गिलास पानी भी पी चुके थे। गला अब पूरी तरह तर था। उन्हें संतुष्टि हो चली थी इस बात की कि लेखक जो कह रहा है, उसके कहे अनुसार चलकर वह आंदोलन इतने बड़े पैमाने पर चला ले जायेंगे कि आलाकमान को वो धो-धो कर मारेंगे। आलाकमान अब उनकी जी हुज़ूरी करता उनके पीछे-पीछे चलेगा। नेता जी बडी़ राहत महसूस करते हुए सोच रहे थे कि "भोजुवा साला मेरी आँधी, तूफ़ान में तिनके की तरह ऐसा उड़ेगा कि उस का नामोनिशान मिट जाएगा। और उसके बाद इस लेखक। छोड़ो इसके बारे में तो बाद में सोचूँगा। यह साला इतना छुपा रुस्तम निकलेगा, इतना पहुँचा हुआ खिलाड़ी होगा सपने में भी सोचा नहीं था। सोचना क्या शक भी नहीं किया जा सकता था। अब जबकि बात खुल गई है, इसका असली चेहरा सामने  गया है, तो ज़रूरी यह है कि इसकी एक-एक बात की जाँच-पड़ताल कर ली जाए। पूरी तरह ठोक-बजा कर देखना ज़रूरी हो गया है।" नेताजी ने मन ही मन यह जोड़-घटाव करते हुए लेखक से पूछा- "आपके इस तरह के काम-धाम या इस रूप की मैंने कल्पना तक नहीं की थी। लेकिन यह भी आश्चर्यजनक है, मैं अपनी बात दोहराऊँगा कि जब आप इतना कुछ करने में सक्षम हैं, तो ख़ुद आगे बढ़कर क्यों नहीं मोर्चा सँभालते। मुझे क्यों आगे कर रहे हैं? और जब मैं आगे निकल जाऊँगा तो आपको क्या मिलेगा? आपका उद्देश्य क्या है? यह जाने बिना संशय की इतनी मोटी पर्तें हैं कि आगे बढ़ पाना बहुत कठिन लग रहा है।"

नेताजी की बातें सुनकर लेखक सोचने लगे कि कहीं गाड़ी फिर ना पटरी से उतर जाए इसलिए तुरंत ही बोले- "आप निश्चिंत रहिए। मैं आपके संशय की सारी पर्तें तुरंत हटाता हूँ। देखिए मेरा उद्देश्य वास्तव में संपूर्ण नक्सल जगत का उद्देश्य है। स्वर्गीय कानू सान्याल, चारू मजूमदार का सपना है। देश में जन सामान्य, मज़दूरों की सरकार का सपना है। जो वर्तमान लोकशाही को समाप्त करके ही पूरा होगा। इस लोकशाही को उखाड़ने के लिए ऐसे ही जातिवादी, धार्मिक, क्षेत्रवादी, भाषावादी, अलगाववादी आंदोलनों की ही ज़रूरत है। ऐसे अंदोलन इस लोकशाही की जड़ों को खोखला कर देंगे। इतना कि एक दिन लोकशाही की दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र का भवन अपने आप धराशायी हो जाएगा। और तब इस विशाल हिंदुस्तान में जन सामान्य की, मज़दूरों की, ग़रीबों की सरकार होगी। जो इनके लिए सच में काम करेगी। उनकी ज़मीनें भीमकाय उद्योगों के लिए ज़बरिया छीनी नहीं जाएँगी।

"जिन क्षेत्रों में हज़ारों-हज़ार वर्षों से जन-जातियों के लोग रहते आए हैं, उनसे उनका क्षेत्र छीना नहीं जाएगा। उसके मालिक वही रहेंगे। उसके नीति-नियंता वही रहेंगे। ना कि दिल्ली के सिंहासन पर बैठा तथाकथित जनसेवक। जो जनसेवक के नाम पर धब्बा होते हैं। कहलाएँगे जनसेवक, लेकिन जनता की कमाई से प्रचंड तानाशाहों की तरह रहते हैं। करोड़ों की सैकड़ों गाड़ियों के काफ़िले में निकलते हैं। जनता के पैसों पर आलीशान ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जिएँगे और तुर्रा यह कि हम तो जनसेवक हैं।

"अरे आप कैसे जनसेवक हैं भाई कि जनता आपकी छाया भी नहीं छू पाती। जब आपके निकलने का कार्यक्रम बनता है तो सड़कें खाली करा ली जाती हैं। मकानों पर सुरक्षा के नाम पर सुरक्षाकर्मियों का कब्ज़ा हो जाता है। आप का उड़न खटोला उतरेगा तो ग़रीबों की खून-पसीने से सींची खड़ी फ़सल तबाह कर दी जाती है। यही है लोकाशाही है? ये लोकशाही नहीं है, जन की सरकार नहीं है। लोग जिन्हें चुनते हैं वही चुने जाने के बाद सामंत बन बैठते हैं। 

"देखते-देखते करोड़पति, अरबपति, खरबपति बन जाते हैं। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति सबके सब सोने के अभेद्य क़िलों में पहुँच जाते हैं। और जनता उन्हें पाँच साल तक ठगी सी देखती रहती है। वह भी रूबरू नहीं बस मीडिया में। वास्तव में राजशाही, तानाशाही का नया रूप है आज की लोकशाही। आज दुनिया में लोकशाही लोकतंत्र के नाम पर आम जनता का ख़ून चूस रही है। यह भी तानाशाहों जितने ही अत्याचारी शोषक हैं। हमारा संघर्ष इन बहुरूपिये सामंतों, पूँजीपतियों से आमजन, ग़रीब, जनजातीय लोगों की मुक्ति का है। ज़मीन के मालिक जो आज ये पूँजीपति बन बैठे हैं, इनसे ज़मीनें मुक्त करानी है। इसे असली मालिकों को वापस दिलाना है। जो वास्तव में इन ज़मीनों के हक़दार हैं। हमारा एकमात्र उद्देश्य ग़रीबों को उनका हक़ दिलाना है। हम नक्सली किसी के दुश्मन नहीं हैं। बस अपने अधिकार के लिए लड़ रहे हैं।"

लेखक अपनी बातों को कहते-कहते काफ़ी उग्र हो चुके थे और नेताजी उन्हें कुरेद-कुरेद कर उनसे एक-एक सच जानने में लगे हुए थे। वह अंदर-अंदर भयभीत भी थे कि वह एक हार्डकोर शहरी पढ़े-लिखे प्रोफ़ेसर नक्सली के सामने बैठे हैं। उनके दिमाग़ में चार-पाँच नक्सलियों की गिरफ़्तारी घूम रही थी, जो कुछ दिन पहले ही गिरफ़्तार हुए थे। उनमें भी प्रोफ़ेसर, वकील, लेखक, पत्रकार थे। तो क्या अब यह नक्सली सुदूर जंगलों, गाँवों से निकलकर शहरों की ओर रुख कर चुके हैं? शहरों में अपनी जड़ें गहरे पैठा चुके हैं? अपने मन में उठते तमाम प्रश्नों के साथ उन्होंने लेखक को फिर कुरेदा, उनसे पूछा, "आप यह बताइए कि आप चारू मजूमदार, कानू सान्याल के सपनों की बात करते हैं, लेकिन जहाँ तक मुझे याद पड़ता है कि कानू सान्याल ने जीवन के अंतिम समय में दिए अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि "नक्सल आंदोलन अपनी राह से भटक गया है। नक्सल आंदोलन में ऐसी हिंसा को स्थान नहीं दिया गया था, जैसी आजकल नक्सली कर रहे हैं।" यह बात सही भी है। आप लोग जिहादी आतंकियों से भी पहले से पकड़े गए निरीह मासूम लोगों के हाथ-पैर काटते  रहे हैं। सिर क़लम कर देते हैं। सुरक्षाकर्मियों की लाशों को चीरकर बम भरकर भेज देते हैं। यह सब निरंतर जारी है। ये सब मरने वाले कोई अमीर नहीं ग़रीब ही होते हैं। ऐसे ग़रीब जिनके पास दो जून की रोटी भी नहीं होती। वो जब आपका साथ नहीं देते तो आप क़त्ल कर देते हैं। टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। ये कैसा न्याय है? ये ग़रीबों का कौन सा हित कर रहे हैं आप लोग। अमीरों से तो आप लोग सिर्फ़ पैसा लेते हैं। शायद ही कोई अरबपति, खरबपति हो जिसे आप लोगों ने मारा हो। एक से एक नक्सली पकड़े गए जो ख़ुद अरबपति हैं। ऐशो आराम से रहते हैं। कहाँ से आता है इनके पास इतना अकूत धन। चारू मजूमदार, कानू सान्याल का सपना कहाँ है?"

लेखक को शायद अपने उग्र होने की ग़लती का एहसास हो चुका था, इसलिए जल्दी से उसने अपने को शांत कर लिया। और नेता जी के प्रश्न का बड़ी शांति से जवाब दिया। कहा- "देखिए हम सिर्फ़ यह जानते हैं कि उनका सपना क्या था? रही बात रास्ते की तो जब पहला रास्ता मंज़िल तक पहुँचता ना दिखे तो हमें तुरंत नया रास्ता ढूँढ़ कर उस पर चल देना चाहिए। हमें सिर्फ़ मंजिल दिखाई देती है, रास्ता कैसा है? यह सोचने का हमारे पास समय नहीं होता। ना ही हम ऐसा सोचना चाहते हैं।"

"लेकिन रास्ता भटक कर तो कभी मंज़िल तक पहुँचा नहीं जा सकता।"

"मैंने कहा ना कि हम रास्ता भटके नहीं हैं, हमने रास्ता बदला है बस। भटकना और बदलना दोनों ही दो चीज़ें हैं। भटकते वो हैं जो जाना कहीं होता है अनजाने में चले कहीं और जाते हैं। बदलना वह है जो हर चीज़ को जान-समझकर सही का चयन कर के आगे बढ़ जाए।"

 

"मगर मैं तो यह समझ रहा हूँ कि नक्सल आंदोलन धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ रहा है। सिकुड़ता हुआ समाप्ति की ओर बढ़ रहा है। सरकार तमाम नक्सल प्रभावित ज़िलों को, क्षेत्रों को नक्सल मुक्त क्षेत्र घोषित करती जा रही है। फिर यह जो आप कानू, चारू के सपने की बात कर रहे हैं इसके पूरा होने की बात कहाँ रह जाती है।"

लेखक नेताजी की इस बात पर बड़ी रहस्यमयी हँसी हँस कर बोले- "भ्रम! सरकार, मीडिया दोनों ही बड़े भ्रम में हैं। गफ़लत में हैं। कहीं कुछ ऐसा नहीं है। जिस एरिया को वह नक्सल मुक्त बता रहे हैं, वास्तव में हम वहाँ अपना काम कर चुके हैं। हम अपनी जड़ों को वहाँ बहुत गहराई तक पहुँचा चुके हैं। जैसे गर्मियों में तेज़ धूप होने पर आपको लगता है कि दूब घास सूख गई है, ख़त्म हो गई है। लेकिन बारिश की एक फुहार पड़़ते ही वह पहले से भी कहीं ज़्यादा बड़े क्षेत्र में हरी-भरी होकर एकदम से प्रकट हो जाती है। 

"ठीक वही स्थिति हमारी है। आप की सरकार हम से मुक्ति मानकर अपनी पीठ थपथपा रही है, ख़ुश हो रही है। जबकि वास्तविकता इसके उलट है। आप आवश्यकता पड़ने पर उन क्षेत्रों से भी और बड़े क्षेत्रों में हर तरफ़ हमें पाएँगे।"

"जब इतना सफल हो चुके हैं आप लोग, इतना फैल चुके हैं, तो क्यों नहीं अपनी जनसामान्य की सरकार बना लेते। आख़िर अब किस बात की देर है, सपना पूरा कीजिए अपने महान कानू सान्याल का और चारू मजूमदार का।"

"आप भी कैसी बातें कर रहे हैं। हमारा सपना कुछ क्षेत्रों में अपनी सरकार बनाना नहीं है। हमें पूरे भारत में अपनी सरकार बनानी है। हम पूरे भारत से पूँजीपतियों की सरकार हमेशा के लिए उखाड़ फेंकेंगे। पूरे भारत से सफ़ेद वर्दीधारी नेताओं को ही नहीं, लोकशाही की विचारधारा का ही नामोनिशान मिटाना है। यह तभी हो सकता है जब दूरदराज के सुदूर गाँव, क़स्बा छोटे शहर ही नहीं मेट्रोपॉलिटन शहर की छोटी सी छोटी गलियों तक में हम अपनी जड़ें गहरे पहुँचाएँगे। जिससे वह नीचे तक इस तथाकथित लोकशाही की जड़ों को दीमक की तरह चाट डालें। जिस दिन हमें लगेगा कि हम दूब की तरह फैल चुके हैं भीतर-ही-भीतर पूरे देश में। इस लोकशाही की जड़ों को पूरी तरह चाल दिया है। उस दिन एक फुहार से ही पूरे देश में एकदम प्रकट होंगे और देखते-देखते खोखली जड़ों पर खड़े लोकशाही की इमारत को धराशाही कर देंगे। जो ग़रीबों के ख़ून से सने गारे से बनी है।"

ग़ौर सुन रहे नेताजी ने बीच में ही टोकते हुए कहा- "मैं इस समय इस बहस में क़तई नहीं पड़ूँगा कि नक्सली अपनी दुकान चलाए रखने के लिए यह सब खेल कर रहे हैं। ग़रीब, आदिवासी सभी की यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं। स्थिति पूँजीवाद से ही बदलेगी। विकास बिना पूँजी के होता नहीं, चीन भी इसी राह चल रहा है। मगर नक्सली भ्रम फैलाए हुए हैं? मैं इतना ही कहूँगा कि जब क्रांति करेंगे तो क्या यहाँ की सेना, सारी सिक्योरिटी फ़ोर्सेज वह कहाँ चली जाएँगी? आप लोग लोकशाही के महल को गिराएँगे और लोकाशाही की इतनी बड़ी ताक़त, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी सेना चुपचाप देखती रहेगी। जिसके सामने आपका आक़ा, आपका आयडल, आपका पालनहार चीन भी एक तरह से देखा जाए तो डोकलाम में बंदरघुड़की दिखाकर शांत हो गया। शांति की बात कर रहा है।"

नेताजी की बात पूरी भी ना हो पाई थी कि लेखक कुटिल हँसी हँसते हुए बीच में ही बोले- "लगता है आप मेरी बात को समझ ही नहीं पा रहे हैं। आप का मन कहीं और लगा हुआ है। बातों को समझ रहे होते तो यह प्रश्न करने को छोड़िए आप के मन में यह पैदा भी नहीं होता। ख़ैर प्रश्न किया है तो उत्तर भी सुन लीजिए। यह बताइए मैं "क्या हूँ?", "कौन हूँ?"

इस प्रश्न से नेताजी अजीब सी उलझन में पड़ गए। लेखक का असली परिचय मिलने के बाद उसको लेकर एक अजीब भय उनके मन के किसी कोने में बैठ चुका था। वह लेखक के नए प्रश्न से कुछ विचलित भी हो रहे थे कि "अब यह क्यों पूछ रहा है कि "मैं कौन हूँ?" इसके बारे में जो नहीं जानता था वह भी इसने बता दिया कि यह एक हार्डकोर नक्सली है। फिर यह प्रश्न मुझसे क्यों कर रहा है? आख़िर मुझसे यह क्या कहलाना चाहता है। इसको तो अब बड़ा सोच-समझ कर जवाब देना होगा।" उनको चुप देखकर लेखक ने पूछा - "आप कहाँ खो गए, जवाब नहीं दे रहे हैं कि मैं कौन हूँ?"

"आप क्या जानना चाह रहे हैं मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। आप एक लेखक हैं। एक यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं, विभागाध्यक्ष हैं। यह मैं बरसों से जानता हूँ। समझता हूँ। जो नहीं जानता था कि आप एक नक्सली हैं, आप का सपना चारू, कानू के सपनों को पूरा करना है। वह भी आप से जान चुका हूँ। इसके बाद भी यह प्रश्न कि आप कौन हैं यह मैं समझ नहीं पा रहा हूँ तो उत्तर क्या दूँ?"

"चलिए ठीक है, मैं ही अपने प्रश्न का उत्तर भी देता हूँ कि मैं कौन हूँ? यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हूँ, विभागाध्यक्ष हूँ। बेहिचक यह भी कहता हूँ कि एक नामचीन लेखक भी हूँ जिसकी एक दो नहीं डेढ़ दर्जन किताबें हैं। वह लेखक जिसके साहित्य पर दर्जन भर छात्र पीएच.डी. कर चुके हैं। कई प्रोफ़ेसर बन कर पढ़ा रहे हैं। आगे जो बताने वाला हूँ वह सब आप आसानी से ज़्यादा बात किए बिना समझ जाएँ इसलिए यह सब कह रहा हूँ, कि आलोचक मेरे साहित्य को उग्र वामपंथी सोच का प्रतीक कहते हैं। कुछ ज़्यादा ही घुटे हुए जो आलोचक हैं वह तो दबे स्वर में ही सही मुझे नक्सली विचारों का पोषक, प्रचारक कहते हैं। उनकी तीक्ष्ण नज़रों से मेरा वास्तविक चेहरा मुश्किल से बच पाता है। 

"उनकी संदेह की नज़र मुझ पर बनी ही रहती है। और स्पष्ट करूँ तो सीधे से यह कि नक्सल एक विचार के रूप में पूरे देश में, हर क्षेत्र में फैल रहा है। शिक्षण संस्थाओं, न्यायपालिका, सिक्योरिटीज़ फ़ोर्सेज़, सेना, मेडिकल क्षेत्र, और प्रशासनिक क्षेत्र में भी। जिस दिन हर क्षेत्र में यह पर्याप्त रूप से फैल जाएगा उस दिन एक साथ क्रांति होगी। जिन सिक्योरिटी फ़ोर्सेज़, सेना, पुलिस की ताक़त पर आप या आप जैसे लोग नक्सल आंदोलन को कुचलने का भरोसा किए बैठे हैं, जिनकी ताक़त पर आप अपने दंभ में हैं वही ताक़त आप की नहीं, परिवर्तित होकर नक्सली ताक़त बन चुकी होगी। और यह निरंतर हो रहा है। 

"यहाँ तक कि आपकी पार्टी में भी हमारे विचारों के ढेरों समर्थक हैं। आप फिर कोई संशय प्रकट करें इसके पहले ही प्रमाण दिए देता हूँ कि आपकी पार्टी के ही एक बड़े क़द्दावर नेता ने बीते दिनों ही कहा है कि नक्सली क्रांति कर रहे हैं। उसने हमारे विचारों का पूरा समर्थन किया है। वह अभिनेता से नेता बना, नाचने गाने वाला आपके आला कमान का चहेता भी है। उसका पूरा परिवार ही नचनियाँ-गवनियाँ है। तो जब नचनिए गवनिए, आपकी फ़िल्म इंडस्ट्री वाले हमारे विचारों के समर्थन में हैं तो बाक़ी आगे की आप समझ सकते हैं। यह और आगे बढ़ेगा।

"फिर दुनिया में महान रूसी क्रांति के बाद एक और उससे भी बड़ी महान क्रांति होगी। देश जनसामान्य के शासन तले आगे बढ़ेगा। लोकशाही का ठीक उसी तरह नामोनिशान नहीं रहेगा जिस तरह पूर्व सोवियत संघ में ज़ारशाही का नामोनिशान नहीं रहा। मुझे लगता है कि अब और ज़्यादा समझाने की आवश्यकता नहीं है कि लोकशाही को नेस्तनाबूद कर जनसामान्य की सरकार कैसे बनेगी?"

"नहीं, समझाने की तो नहीं लेकिन संशय की आख़िरी पर्त रह गई है। आपको उस पर्त को भी हटाना है"

नेताजी की बात सुनकर लेखक कुछ खीझते हुए अंदाज़ में बोले- "इतना कुछ बताने के बाद भी संशय की एक पर्त रह गई है, आश्चर्य है! बताइए वह आख़िरी संशय की पर्त क्या है? ख़ुशी इस बात की है कि आपके संशय की यह आख़िरी पर्त है।"

लेखक की खीज को नेताजी ने भाँप लिया था। वह नक्सली के सामने हैं इस भय के प्रभाव से वह क़रीब-क़रीब बाहर निकल चुके थे। अतः बेबाकी से बोले- "मैं आपकी सारी बातों से सहमत हूँ, बस एक संशय यह कि आप एक तरफ़ अपनी पहचान दुनिया से छुपाने के लिए सारे जतन करते हैं, फिर अचानक ही आपने सारे सच मेरे सामने क्यों रख दिए। किसी और को भी तो आगे करके आंदोलन करवा सकते हैं। अपना उद्देश्य पूरा कर सकते हैं। मुझसे ही क्यों? मुझ में ही ऐसी कौन सी योग्यता देखी आपने कि सारे राज़ बता दिए।"

"क्योंकि मैंने देखा कि आप प्रतिद्वंद्विता में इस क़दर धँसे हुए हैं कि भोजू की हत्या के लिए भी जी-तोड़ कोशिश में लगे हैं। आप में जैसा जुनून है मुझे अपने काम के लिए वही चाहिए था। आप में मिला तो आपसे बातें कीं। यानी सुपात्र से। बस इतनी सी बात है।"

लेखक के मुँह से भोजू की हत्या के प्रयास की बात सुनकर नेताजी हक्का-बक्का हो गए। लेकिन पूरी ताक़त से अपने को सामान्य बनाए रहे। अनजान बनते हुए कहा- "आप यह नई बात भोजू की हत्या के प्रयास की क्या कर रहे हैं? मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ।"

"मुझे सब मालूम है। अनजान ना बनिए। सतवीर ड्राइवर को भोजू को ट्रक से मारने के लिए कितने पैसे दिए यह भी।"

इतना कहते हुए लेखक ने अपने मोबाइल को ऑन कर सतवीर और नेताजी की बातचीत की रिकॅार्डिंग सुना दी। सारी बातें एकदम साफ़-साफ़ रिकॉर्ड थीं। नेताजी एक बार फिर पसीने से तर हो रहे थे। उनकी हालत का अंदाज़ा करके लेखक ने उन्हें फिर पानी पिलाया। समझाने के लिए उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा- "कोई बड़ा काम ऐसे परेशान होने से नहीं होता, पूरे जोश, होश, हिम्मत के साथ आगे बढ़ने से होता है। मेरी बात मानिए जैसा कह रहा हूँ वैसा करिए, अपना आंदोलन खड़ा करिए। अपना सपना पूरा करिए। भोजू को नहीं उसके क़द को ख़त्म करिए।"

लेखक की बातों से नेताजी बहुत साफ़-साफ़ समझ गए कि वह उसके चंगुल में ऐसा फँस चुके हैं कि वहाँ से उनका निकलना संभव नहीं है। उसे कोसते हुए सोचने लगे कि "बुलाया था इसे किस लिए और हो क्या गया है? यह  जाने कब से मेरा पीछा कर रहा है?  जाने क्या-क्या जानता है? नहीं सुनता हूँ तो जिस टोन में यह बोल रहा है उसमें साफ़-साफ़ धमकी है कि भोजूवीर की हत्या के प्रयास में यह अंदर करा देगा। यह बात जानकर भोजूवीर भी मेरी जान का जानी दुश्मन बन जाएगा। ये साला लेखक तो जेल में भी मेरी हत्या करा देगा। मेरे बाद क्या होगा मेरे परिवार का? इधर कुआँ, उधर खाई, किधर क़दम बढ़ाऊँ?"

उनको चुप देखकर लेखक ने फिर टोका। "आजकल इतना सोचने नहीं तुरंत एक्शन लेने का दौर है। भोजू की तरह। सोचने-विचारने में समय लगाना आप जैसे नेताओं के लिए ख़ुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।"

"मैंने डिसाइड कर लिया है कि मुझे क्या करना है। लेकिन मेरी समझ में अभी भी नहीं  रहा है कि मेरे इस एक आंदोलन से आप की महान क्रांति जैसे असंभव से सपने को पूरा करने में क्या मदद मिलेगी।"

लेखक ने बड़ी मुश्किल से अपनी खीज पर नियंत्रण करते हुए कहा- "देखिए मैं बार-बार कह रहा हूँ कि एक अकेले आपके ही आंदोलन से नहीं बल्कि ऐसे तमाम आंदोलन देशभर में होंगे और यह सारी बातें मिलकर ही चुनाव के क़रीब आने तक ऐसा माहौल बिगाड़ेंगे कि जिस एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलता दिख रहा है वह भी पिछड़ जाएगी। अस्थिर मज़बूर सरकार अस्थिरता पैदा करेगी। आप क्या समझते हैं कि यह सब इतना आसान है। हम लोगों द्वारा बहुत कुछ देश भर में किया जा रहा है। बरसों-बरस से बराबर किया जा रहा है। हमारे काम का महत्व कितना है इसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा लीजिए कि हमें एक नहीं कई देशों से समर्थन, मदद सब मिलती रहती है। कुछ देर पहले आपने ही चीन को हमारा पालनहार कहा ही है। आप क्या समझते हैं यह जो मॉब लिंचिंग होती है, किसानों के उपद्रव होते हैं, चुनाव आते ही बढ़ जाते हैं, क्या यह सब अपने आप ही हो जाता है?

"अपनी रोज़ी-रोटी के लिए मर रही भीड़ के पास इतना समय कहाँ है? यह सब हम ही कराते हैं। हमारे प्रयासों से होता है। दस में से एक घटना ही भीड़ की होती है बाक़ी भाड़े के गुंडों से कराई जाती है। कभी दलितों की पिटाई, हत्या। कभी किसी को मंदिर में जाने से रोकना, कभी कुँए का झगड़ा, कभी शादी का लफड़ा। कभी यूनिवर्सिटी में देश के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे, आए दिन पाकिस्तान ज़िंदाबाद, पाकिस्तान के झंडे फहराना ऐसी नब्बे परसेंट घटनाएँ हमारे प्रयासों का ही परिणाम होती हैं। कभी आप लोगों के दिमाग़ में यह बात क्यों नहीं आती कि ऐसी घटनाएँ चुनाव के क़रीब आते ही क्यों हर तरफ़ होने लगती हैं?

"यह बातें मैं सिर्फ़ इसलिए बता रहा हूँ जिससे आप हमारी ताक़त, हमारे विस्तार का सटीक अनुमान लगा सकें। अपना कंफ्यूज़न तुरंत दूर कर सकें। बताई इसलिए भी क्योंकि अब आप हमारे आदमी हैं। हमारे सदस्य बन चुके हैं। अपनों से कुछ क्या छुपाना, और क्या डिसाइड करना। इसी मंगल से आप का आंदोलन शुरू हो रहा है। यहाँ एक बड़े मंदिर में भीड़ में धक्का-मुक्की होगी, भगदड़ मचेगी। कुछ भक्त बेचारे मर जाएँगे। आप सिंपैथी में तुरंत वहाँ पहुँचेंगे, प्रशासन, मंदिर की व्यवस्था को एकदम दोषी ठहराएँगे। कहेंगे सरकार मंदिर का अधिग्रहण तो कर लेती है, लेकिन कोई व्यवस्था नहीं करती। जिस कारण आए दिन ऐसी घटनाओं में मासूम भक्त जान गँवाते हैं। इसलिए सरकार भारत के सभी मंदिरों से अपना शिकंजा हटाए। 

"व्यवस्थापक अपनी व्यवस्था ख़ुद कर लेंगे। वैसे भी यह भेदभावपूर्ण है। संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ है। यह सारी बातें मंगलवार को आप मीडिया के सामने चीख-चीखकर कहेंगे। रही बात मीडिया की कि आप के पास क्यों आएगी? क्योंकि आपके साथ कम से कम दो ढाई सौ लोग होंगे। आप प्रशासन, लोगों की मदद कर रहे होंगे। दूसरे हम ख़ुद मीडिया को इतना मैनेज करेंगे कि आप का व्यू लेने सब पहुँचेंगे। इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिंट मीडिया दोनों ही। आप भी पार्टी लाइन के अगेंस्ट बोलकर, अगले दिन से बड़ा आंदोलन प्रारंभ करने की घोषणा करके भोजू की तरह छा जाएँगे।

"आपकी सफलता और सुरक्षा भी इस बात पर निर्भर है कि हमारे आपके बीच हुई यह वार्तालाप कितनी गुप्त बनी रहेगी। मेरी तरफ़ से निश्चिंत रहें। मैं जो कहता हूँ उस पर अंतिम साँस तक अडिग रहने का संकल्प रखता हूँ। आप भी रखिए। आख़िर आप एक बड़े व्यवसायी हैं। भरे-पूरे परिवार के स्वामी हैं।"

लेखक यह कहते हुए उठे और नेता जी से हाथ मिला कर चले गए। उनकी आख़िरी बातों में साफ़-साफ़ धमकी सुनकर नेताजी बड़े गहरे सहम गए।

उन्हें लेखक की आँखों में भयानक ग़ुस्सा, खून सब कुछ दिख रहा था। वह उसके जाने के बाद भी जहाँ के तहाँ बुत बने बैठे रहे। मंगल को मंदिर में भगदड़ में भक्तों के इधर-उधर पड़े शव, चीख-पुकार, खून, दबे-कुचले बच्चे, सब दृश्य उनकी आँखों के सामने घूम रहे थे। और ख़ुद को वह इस भगदड़ के बाद अफरा-तफरी में इधर-उधर भटकते देख रहे थे। कुछ सँभलने के बाद उन्होंने सोचा कि "जो भी हो यह भगदड़ रुकनी चाहिए। हे भगवान यह राजनीति..."

नेता जी इतना ज़ोर से चीखे कि पत्नी दौड़ी भागी उनके पास पहुँच गई। मगर नेता जी की हालत उनकी कुछ समझ में नहीं  रही थी। पूछने पर भी वह कुछ नहीं बोल रहे थे। स्तब्ध से सामने दीवार पर देखे जा रहे थे। मन में एक वाक्य दोहराए जा रहे थे कि "जैसे भी हो लोगों की मौत रुकनी चाहिए। लेकिन कैसे? इस लेखक, नहीं-नहीं नक्सली राजा ने यह ख़ुलासा तो किया ही नहीं कि भगदड़ किस मंदिर में होगी। हे भगवान मैं किस बवाल में पड़ गया। इस भोजू साले के कारण मैं कहाँ से कहाँ फँस गया। अब चाहे जो भी हो भोजू से पहले इस नक्सली से निपटूँगा। साला धमकी देकर गया है। मेरे परिवार पर नज़र डाली है। लोकशाही के ख़ात्मे का सपना देख रहा है। घबड़ा नहीं तुझे सपना देखने लायक़ ही नहीं छोड़ूँगा। अपनी राजनीति की बलि देकर भी तुझे समाप्त करना पड़ा तो अब पीछे नहीं हटूँगा चीनी पिल्ले। तूने भले ही ऐसा फँसाया है कि ना निगलते बन रहा है ना उगलते।"

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प्रदीप श्रीवास्तव

जन्म : लखनऊ में जुलाई, 1970

प्रकाशन :

उपन्यास

मन्नू की वह एक रात - अप्रैल 2013 में प्रकाशित (इसका -संस्करण दिसंबर, 2016 में कनाडा से पुस्तक बाज़ार.कॉम द्वारा प्रकाशित)

बेनज़ीर- दरिया किनारे का ख़्वाब

वह अब भी वहीं है

कहानी संग्रह

मेरी जनहित याचिका

हार गया फौजी बेटा

औघड़ का दान

नक्सली राजा का बाजा

मेरा आखिरी आशियाना

मेरे बाबू जी

कथा संचयन-

मेरी कहानियाँ-खंड एक जून २०२२ में प्रकाशित

नाटकखंडित संवाद के बाद

कहानी एवं पुस्तक समीक्षाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित

संपादन :"हर रोज़ सुबह होती है" (काव्य संग्रह) एवं "वर्ण व्यवस्था" पुस्तक का संपादन

पुरस्कार:

मातृभारती रीडर्स च्वाइस अवॉर्ड -२०२०

उत्तर प्रदेश साहित्य गौरव सम्मान २०२२ 

संप्रति : लखनऊ में ही लेखन, संपादन कार्य में संलग्न

सम्पर्क : pradeepsrivastava.70@gmail.com